अब दिन के दस बज चुका था और इसके साथ ही शहर की गतिविधि अधिक तेज हो गई थी। रोजी-रोटी के लिए भागता शहर, यहां हर एक मानव आगे की ओर निकलने की होड़ में लगा हुआ था। सभी अपने-अपने तरीके से रोजगार उपार्जन में लग गए थे।.....परन्तु उस युवक को तो जैसे इसकी जरूरत ही नहीं थी।
घुंघराले काले बाल, मोटी-मोटी काली आँखें और आकर्षक चेहरा। उसपर उसका लंबा कद उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहा था। वह युवक अभी मुक्ता अपार्ट मेंट में अपने फ्लैट में बिस्तर पर लेटा हुआ मैगजीन पढ रहा था, नाम था सम्यक बहल। नाम के अनुरूप ही उसके चेहरे पर चिर शांति थी और उसके हाथ में पुस्तक भी "शांति की खोज" ही थी।.....परन्तु उसकी यह शांति छनिक ही तो थी, वह तो वास्तव में उद्विग्न था। उसकी नजर भले ही पुस्तक पर टिकी थी, परन्तु वह पुस्तक तो बिल्कुल भी नहीं पढ रहा था। "शायद वो किसी विचार के भंवर जाल में था और उस विचार का मनो-मंथन करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहता था।
जीवन की परिपाटी कितनी विचित्र है, जो हमें पसंद नहीं होता, यह उसे ही चलाना चाहती है और जो हम चाहते है, यह उसे होने ही नहीं देती।....परन्तु मानव ही तो है, हार मानना उसने सीखा कहां है? उसे तो अनवरत प्रयास करना पड़ता है, जीत के लिए। उस जीत के लिए, जो अवश्यंभावी नहीं है, क्योंकि ढृढता के साथ कहा नहीं जा सकता कि जीत उसकी ही होगी। फिर भी प्रयास तो उसको करना है और यह उसका स्वभाव भी है। सम्यक भी इसी प्रयास में लगा हुआ था कि वो अपने विचारों को जीत ले।....फिर तो उसने बांह फैलाया और सारा जहां उसका ही होगा।
जीवन बहुधा ही मानव मन के इसी ढृढता की परीक्षा लेता है। उसे सत्य की उस कसौटी पर कसता है, जिसे शायद " भट्ठी" का उपनाम दिया जाता है। जैसे सोने को जलती हुई "भट्ठी" में उच्च ताप पर तपाया जाता है और वह तप कर दमक उठता है, उसी प्रकार मानव भी है। जीवन की "कसौटी" पर कसने के बाद मानव निखर उठता है, "दमक" उठता है मानवीय गुणों से। परन्तु सम्यक इस कसौटी पर ज्यादा देर तक टिका नहीं रह सका।....उसके चेहरे से बेचैनी के भाव "परिलक्षित" होने लगे। आखिरकार उसके हृदय की ढृढता उसका साथ छोड़ती हुई सी प्रतीत होने लगी, उससे अलग होती सी लगी।
फिर तो वह बेड पर उठकर बैठ गया, किताब को साइड में रख दिया और फिर उसने रूम में नजर घुमाई।...रूम में सुविधा की हर एक वस्तु मौजूद थी, फिर भी कभी-कभी यह रूम उसे काट खाने को दौड़ता था। उसके पिता युनिवर्सिटी के डीन थे, जिनका वो इकलौता वारिस था, ऐसे में पैसे की कोई कमी तो थी नहीं। फिर भी न जाने क्यों उसे चैन नहीं मिलती थी। वह चाहता था कि सुकून भरी जिंदगी गुजर-बसर करें, परन्तु उसकी यह अभिलाषा "अभिशप्त" हो गई थी। जीवन के तट बंध उष्णिय हो गये थे, जो अपने तीव्र ज्वाला में उसके सुख-शांति को भस्म करने पर उतारू हो गए थे।
ऐसे में उसने बैठे-बैठे ही पास रखे टेबुल के डोअर को खोला और उसमें से चरस की पुड़िया एवं चिलम निकाल ली।....उसके बाद उसने बड़े प्रेम से चिलम तैयार की और सुलगा कर होंठों से लगा ली।...फिर तो उसने लंबी कश ली, जिससे ऊँची लपट उठी। इसके बाद तो रूम एक पल के लिए धुएँ के गुबार से भर गया।..... परन्तु उसने कश लगाना तब छोड़ा, जब चिलम खाली हो गई।...धुआँ अंदर गया और उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव दृष्टिगोचर होने लगे।....परन्तु कितनी देर तक? कृत्रिम संसाधनों के द्वारा प्राप्त किया गया संतुष्टि अल्पायु लिए होता है, जो कि क्षणिक होता है। तो उसकी संतुष्टि कब तक स्थाई रहती?
दो पल भी नहीं गुजरे होंगे कि वह फिर से बेचैन नजर आने लगा। उसको धीरे-धीर विचारों की श्रृंखला अपने आगोश में समेटने लगे।.....वह सोचने लगा कि पहले तो वो ऐसा नहीं था। हंसमुख स्वभाव का सम्यक, सभी से घुला-मिला रहता था। उसका हंसमुख स्वभाव ही था कि काँलेज में उसके दोस्तों की लिस्ट बहुत लंबी थी।....लेकिन एक दिन, उसकी मुलाकात लवण्या आर से हुई और उसकी जिंदगी बदल गई।....परन्तु न जाने उसकी खुशियों को ग्रहण लग गया हो, "गर्वित सक्सेना लवण्या आर के करीब आ चुका था"। इसके बाद तो उसने काफी कोशिश की अपने दिल को मनाने की, पर दिल माने तब न।
इश्क अजीब सी वस्तु है, बिना अकार- प्रकार के, बिना किसी रुप-रंग के, यह अतिशय प्रभावी है। जब यह किसी को अपने बाहु पाश में जकड़ता है, उसके अस्तित्व को रहने ही नहीं देता, जबकि अपना रुप-रंग, आकार-प्रकार ग्रहण कर लेता है। तभी तो बड़े- बड़े तपस्वी अपने तप साधना से डिग जाते है और प्रेम की शरणागति स्वीकार कर लेते है।.....फिर तो सम्यक युवा था, उसके रगो में प्रवाहित होने बाला लहू गर्म था, तो प्रेम के सामने उसकी बिसात ही क्या थी? वो तो प्रेम के मधुर अंक पाश में जकड़ कर रह गया। ऐसे में उसकी स्थिति उस मछली के समान हो गई, जिसे पानी से निकाल कर रेतीले जमीन पर रख दिया गया हो।
वो लवण्या आर को दिली हद तक चाहता था, इस हद तक कि उसके लिए जान भी दे सकता था।....."फिर भी वो अपने मुहब्बत का इजहार नहीं कर सका"। बस यही उससे भूल हो गई और वो खाली हाथ मलता ही रह गया।....शायद उसने प्रेम का इजहार कर दिया होता, परन्तु उसके नसीब में तो तड़प ही लिखा था और तब से अब तक वो तड़प ही रहा था। इस कारण से ही तो वो अपने पिता से अलग इस अपार्ट मेंट में रहने के लिए चला आया था। उसकी दिली चाहत थी कि उसके "नयनों के अश्रु बिंदु" को किसी की नजर नहीं लगे।....उफ! जीवन इंसान को कैसे-कैसे नाच नचाती है कि इंसान खुद में ही उलझ जाता है।
सोचते-सोचते आखिरकार उससे नहीं रहा गया और उसने फिर से चिलम भर लिया और सुलगा कर धुआँ फेफड़ों में भरने लगा। चिलम खतम करने ही उसे भूख की अनुभूति हुई। इसके बाद वह उठा और कपड़ा पहन कर बाहर निकला, अपार्ट मेंट को लाँक किया और पैदल ही सड़क किनारे चलने लगा। चलता रहा....कदम दर कदम चलता रहा। वैसे तो अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में सूर्य की किरणें इतनी तेज नहीं होती। धूप में इतनी तिखाश नहीं होती, फिर भी ए. सी. रूम में रहने बालों के लिए इतना धूप भी काफी है। ....फिर भी वो चलता रहा और आखिर राम दयाल ढाबा के पास पहुंचा और अंदर जाकर बैठ गया।
ढाबे के अंदर अभी तक तो खाली -खाली था। परन्तु अब दिन के ग्यारह बज चुके थे और ऐसे में अब ग्राहकों की तादाद बढने लगी थी। लेकिन सम्यक को इन बातों से जैसे कोई मतलब नहीं हो, उसकी नजर तो बस "लवण्या आर" को ही ढूंढ रही थी। बहुत दिनों से उसको नहीं देखा था, इसलिये आँखों को सुकून की कमी खल रही थी।....भले ही वो प्रेम का इजहार नहीं कर पाया हो, परन्तु फिर भी अगर चाहत का एक दीदार मिल जाए," राहत सी मिल जाती है।....बस यही बात चाहत के लिए थी। भले ही दिल का मिलन हो, चाहे नहीं हो, परन्तु आँखों को सुकून मिलने का तो अधिकार है।
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क्रमशः-