सुबह की प्रभात किरणें फूटने को आतुर हो चली थी। चारों तरफ उजाला फैल चुका था और अंधेरे का साम्राज्य छिन्न -भिन्न हो चुका था।.....तो सहज ही था कि चिड़िये के कलरव से वातावरण गूंज उठे। "यूं तो शहर में कंकरीट का जाल इस प्रकार से फैल चुका है कि विचारी चिड़ियां को अपना आशियाना ढूंढने के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है"। परन्तु पंछी है न, बहुत जीवट होते है और विपरीत परिस्थिति में भी गुजारा कर लेते है।....तो फिर स्वाभाविक ही है कि प्रभात बेला के आगमन पर वे एक कंठ स्वर में कलरव करके गीत गाए।....परन्तु मानव तो मानव है, स्वार्थी और धूर्त, जो अपने हित साधने के लिए इनका आशियाना उजाड़ने से भी गुरेज नहीं करता। बस यही बात है, अभी मानवों का चहल-पहल बहुत कम ही था, इसलिये चिड़ियां चहक रहे थे।
ऐसे ही मनोहारी वातावरण में, जब लग रहा था कि प्रकृति खिल उठी हो, सफेद रंग की इनोवा कार सड़क पर फिसलती जा रही थी। कार के ड्राइविंग शीट पर बहुत ही सुंदर कोमलांगी बैठी हुई थी और वो पूरी तन्मयता से कार ड्राइव कर रही थी। उसके रेशमी बाल, जो कि लगता था कि नागिन से फन काढे हुए हो। उसके सुर्ख रसीले अधर और लंबा सुता हुआ नाक। गुलाबी गाल और पतली कमानीदार भौंह।.....उसपर उसने ब्लू रंग की टी-शर्ट और ब्लैक जिंस पहना हुआ था, जिसमें वो " कमायनी" की प्रतिमा लग रही थी।....हां वो लवण्या आर थी, उद्योगपति जगपति आर की लाडली बेटी।
वैसे तो उसकी अभी पढाई चल रही थी, परन्तु उसके हाव-भाव से नहीं लगता था कि वो पढऩे में रुची रखती हो। उसके सुंदर चेहरे पर अभी थकावट के भाव थे, जिसकी चुगली उसकी आँखें कर रही थी।....हां वो शाम से ही कार को बेवजह ही दिल्ली की सड़क पर दौड़ाती रही थी और अब वह कार को कुंज बिहार की ओर लिए जा रही थी।.....वह जानती थी कि उसके पिता निंद से जग गए होंगे और अब उसको ही ढूंढ रहे होंगे। वैसे भी तो एक वही अकेली थी, जो पिता का ध्यान रख सकती थी और शायद इसलिये ही सुबह होने के साथ ही वो अपने आश्रय यानी निवास स्थान को लौट रही थी। आँखों में निराशा का भाव लिए।
आखिर आज की रात भी तो उसके हाथ निराशा ही लगी।....कहां तो वो घर से सोचकर निकली थी कि आज उसे जरूर ढूंढ लेगी। परन्तु शाम से रात ढली और रात से सुबह हो गई, फिर भी वह उसको नहीं ढूंढ सकी। उफ! जीवन भी कितना अजीब है कि मानव मन को भ्रमित किए रहता है।...उसे जिसकी तलाश होती है, "उसका साया भी उसे दूर-दूर तर नजर नहीं आता"। उसके साथ भी तो ऐसा ही हो रहा था, उसे जिसकी तलाश थी, गर्वित सक्सेना, वह मिल नहीं रहा था। लवण्या करीब एक वर्ष से बिना किसी दिन नागा किए उसकी तलाश में शाम को निकल जाती थी और सुबह निराश होकर लौटती थी।
परन्तु पता नहीं कि गर्वित को आकाश निगल गया था, या जमीन खा गई थी, उसका साया भी नजर नहीं आया था।.....लवण्या जानती थी कि उसके लिए गर्वित का मिलना कितना महत्वपूर्ण था....परन्तु वो उसे ढूंढ नहीं सकी थी।....लेकिन उसने अभी तक हार नहीं माना था और नियमित रुप से निकल जाती थी। उफ! रात की थकावट अब उसपर हावी होने लगा था, इसलिये उसने म्यूजिक प्लेयर आँन किया। कार में भगवान का सुमधुर भजन गुंजने लगा और उसने विचारों को झटक कर अपना ध्यान ड्राइविंग में पिरोया।.....परन्तु मानव का मन उसके नियंत्रण में नहीं होता, तभी तो खाली नहीं बैठता। "मन" मानव को कभी तो अच्छे विचार या तो बूरे विचार में उलझाए रहता है और लाचार मानव अपने मन के इशारे पर नाचता रहता है।
"लवण्या आर" की स्थिति भी तो इससे जुदा न थी, क्योंकि उसके पास भी" मन" था, जो कि अनियंत्रित हो रहा था। वह चाहती थी कि अब वो विचारों के भंवर जाल से बाहर निकले और जितनी जल्दी हो सके, घर पहुंचे।.....परन्तु ऐसा कब हुआ है? जो अब होगा। वो न चाहते हुए भी फिर से विचारों की माला में गूंथ गई। उसका काँलेज का द्वितीय वर्ष था, तभी गर्वित सक्सेना उस काँलेज में आया था। "स्वभाव से मिलनसार गर्वित एवं लवण्या", दोनों ही थे। ऐसे में दोनों के बीच करीबियां बढ रही थी। मामला इतना करीब का हो चुका था कि दोनों को एक दूसरे के बिना रहा ही नहीं जाता था।...हां यह बात जरूर थी कि उनके बीच चाहत का इजहार नहीं हुआ था।....परन्तु अचानक से ही गर्वित लवण्या से दूरियाँ बनाने लगा। पहले तो लवण्या समझ ही नहीं पाई, पर जब समझी, बहुत देर हो चुका था।
वह समझ भी नहीं सकी थी और गर्वित उससे दूर हो गया था। इस घटना ने लवण्या को काफी प्रभावित किया और वो टूटने सी लगी थी।...वो टूट कर बिखर ही जाती...अगर उसके पिता ने उसको संभाला नहीं होता। फिर भी एक कसक तो थी ही उसके हृदय में कि गर्वित उसे आखिर छोड़ कर क्यों गया? उसमें आखिर किस चीज की कमी थी कि गर्वित अचानक ही उससे दूर हो गया?.....बस वो गर्वित से मिलकर सिर्फ उस कारण को जानना चाहती थी, जिसके लिए वो उससे अलग हो गया था।....परन्तु यह समय का चक्र कहा जाए या उसकी बदकिस्मती, एक वर्ष हो चुके थे, परन्तु अब तक गर्वित का साया भी उसे नहीं मिला था।
सहसा ही लवण्या के पैर ब्रेक पर तेजी से कसे, क्योंकि उसकी कार उसके घर के आगे निकल चुकी थी। लवण्या ने कार रोकी, रिवर्स किया और फिर "आनंद बिला" के गेट से कार को अंदर ले लिया और पार्किंग में खड़ी करके बाहर निकली और बिल्डिंग की ओर बढी। आनंद बिला, काफी क्षेत्रफल में फैला हुआ और हर एक सुविधा से परिपूर्ण एवं सुंदर। लवण्या ने गेट खोला और हाँल में कदम रखा और हाँल में कदम रखते ही उसकी नजर अपने पिता जगपति आर पर गई। जगपति आर हाँल में रखे सोफे पर बैठे लैपटाँप चला रहे थे।...जगपति आर, आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी.....परन्तु उनके चेहरे पर बुढ़ापा का असर दिखाई देने लगा था।
आ गई बेटा! जगपति आर ने बिना सिर उठाए ही कहा और फिर अपने काम को करते रहे। जबकि लवण्या ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
जी पापा! इतना बोलने के बाद वो किचन की ओर बढ गई। जबकि जगपति आर अपने काम में ही उलझे रहे। जबकि बाहर सूर्य क्षितिज पर आ चुके थे और उनकी प्रखर रोशनी चारों ओर फैल चुकी थी।
करीब दस मिनट बाद ही लवण्या किचन से दो कप काँफी लेकर लौटी और एक जगपति आर को थमाया और दूसरा खुद थामे उनके सामने बाले सोफे पर बैठ गई। जगपति आर, काँफी का कप हाथ में आते ही उन्होंने लैपटाँप साइड में रखा और काँफी की चुस्की लेने लगे। ऐसे, जैसे कि वे बिल्कुल शांत हो और उनको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं हो।....परन्तु लवण्या अच्छी तरह से जानती थी कि यह सिर्फ बाहरी आवरण है। बाकी तो उसके पिता अंदर ही अंदर घुटते है।....लवण्या काँफी पीना भूलकर उनके ही चेहरे को देख रही थी और सोच रही थी कि "वह कैसी बेटी है, जो अपने पिता को खुशी देने के बदले चिन्ता के सागर में डुबाये हुए है"। परन्तु वह भी तो दिल के हाथों मजबूर थी, अन्यथा ऐसी तो वो नहीं थी।...खट! हल्की सी आवाज हुई और लवण्या संभल गई, फिर काँफी के घूंट भरने लगी।
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क्रमशः-