सूर्य की प्रथम रश्मि ने धरती के आँचल को छू लिया था। ऐसे में धरती खिलखिला उठी थी.....!....मंद-मंद मुस्करा उठी थी। तो फिर शहर की गलियां भी खिलखिला उठे,.... लाजिमी ही था। तभी तो "भाव्या बिला" की सुंदरता सूर्य की प्रथम किरणों के आगमन के साथ ही निखर आई थी। परन्तु राजीव सिंघला का चेहरा कुछ गंभीर था, कुछ गंभीर से मतलब कि मुरझाया हुआ। राजीव सिंघला इन दिनों अपने "बेटी सान्या सिंघला" की हरकतों को समझ नहीं पा रहे थे।
वैसे तो उन्होंने "सान्या" के परवरिश में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं की थी। उसे जो चाहिए, पल भर में हाजिर हो जाता था, उसकी सेवा में नौकरों की फौज लगी हुई थी और उसे जितनी आजादी चाहिए थी, उसको मिली हुई थी। फिर भी पता नहीं क्यों?......वह उनसे कटी-कटी सी रहती थी। यह बात उनके अंतर्मन को चुभता था, उनके हृदय को कचोटता था।....परन्तु वे कभी हिम्मत नहीं जुटा पाते थे कि सामने से "सान्या" से पुछे कि आखिर बात क्या है?.....वैसे ही वे अच्छी तरह से जानते थे कि सान्या बिन मां के पली-बढी है। भले ही उन्होंने कितनी ही कोशिशें की हो, परन्तु एक "मां" का प्यार और "मां" के समान देख-रेख तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वो मां नहीं बन सकते थे।
उनके मन की उलझन भी तो यही थी कि वे संभवतः एक दूरी सी अनुभव करते थे "सान्या" के साथ। भले ही वो कितनी ही कोशिशें कर लेते, परन्तु फिर भी समीपता लाने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। शायद यह "सान्या" के स्वभाव के कारण था, अथवा तो उनके बिजनेस में तल्लीन दिमाग के कारण। लेकिन कमी तो थी ही, जो उनको उलझाए हुए थी।....राजीव सिंघला, सूर्य के उदित होते किरणों के साथ ही जग गए थे और अब हाँल में बैठकर सान्या के आने का इंतजार कर रहे थे, या तो गरमागरम काँफी के आने का इंतजार कर रहे थे। उनका यह विशाल बंगला, यह विशाल हाँल उनके अकेले पन की गवाही देता था और कभी-कभी तो उन्हें काट खाने को दौड़ता था।
सर!.....आपका गरमागरम काँफी। हाँल में कदम रखते ही उनका चालीस वर्षीय नौकर सुंदर बोला और उनके करीब पहुंच कर टेबुल पर काँफी का कप टिका दिया और उलटे पांव लौट गया।
हूं....शब्द निकला उनके कंठ से और होंठों पर आकर फंसकर रह गया। शायद वे नौकरों से बात नहीं करना चाहते थे.....अथवा तो उनका हृदय इस बात की गवाही नहीं दे रहा था।....लेकिन कब तक, कब तक इंसान किसी से बिना बात किए रह सकता है?....आँफिस में तो उनका दिल बहल जाता था, क्योंकि वहां तो उनसे बात करने बालों की पूरी फौज थी। परन्तु जब वो बंगले पर आते थे, सान्या कहीं निकल जाती थी और रह जाता था उनका वीराना पन। शायद यह उनकी ही कमी थी कि उन्होंने इस संदर्भ में सान्या से कभी बात ही नहीं की थी। कभी उससे पुछा ही नहीं था कि एक वर्ष हो गए उसे, वो अपने रात कहां बिताती है, रात के अंधकार में वह आखिर किस प्रकार के गुल खिलाती है?
नहीं-नहीं, इस प्रकार से अक्खड़ बन कर पुछना शायद ठीक नहीं होगा, नहीं तो इसके परिणाम भयावह भी हो सकते है।....आखिरकार "सान्या " जवान हो चुकी है और उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार करना उचित होगा। सोचकर राजीव सिंघला ने काँफी का मग उठाया और होंठों से लगाकर घूंट भरने लगे। परन्तु कहते है न कि जब मानव मन किसी उलझन में हो, उसका विचार उसे छोड़ता ही नहीं। यह विचार ही तो है, जो मानव मन को "आंदोलित" किए रहता है। इस विचार की ही महिला है कि या तो "मानव को नैतिकता के श्रेष्ठ शिखर पर ले जाती है, नहीं तो फिर उसको पतन के गहरे गर्त में डूबा देती है।
विचारों के श्रृंखला में डूबे-डूबे ही राजीव सिंघला ने अपनी काँफी खतम की और जैसे ही उन्होंने खाली मग को टेबुल पर रखा, उनकी नजर हाँल में कदम रख रही सान्या पर टिक गई।...."गुलाब के पंखुड़ी सी सान्या”, लेकिन इस समय उसके चेहरे पर थकावट के भाव परिलक्षित हो रहे थे।....ऐसे में राजीव सिंघला की इच्छा हुई कि वो सान्या को रोक ले और पुछे कि "पूरी रात "बीता कर कहां से आ रही है। ....परन्तु उनकी यह इच्छा, उनका यह प्रश्न उनके हृदय में ही रह गया। क्योंकि सान्या ने हाँल में कदम रखा और फिर तेजी से चलती हुई किचन की ओर बढ गई।
आज तो बात करना ही होगा, अन्यथा कहीं देर न हो जाए।....राजीव सिंघला के अंतरात्मा की आवाज उभड़ी। परन्तु कैसे?....वो किस प्रकार से बातों की शुरुआत करें?....जो अब तक नहीं लगाया था, उन बंदिशों को "सान्या" पर किस तरह से लागू करें। सोचने लगे राजीव सिंघला, लेकिन उन्हें "वह राह" नजर नहीं आ रहा था, जिसपर वे ढृढता से कदम बढाते। ऐसे में वो अपने हृदय के उलझन से दो-दो हाथ करने लगे, तभी सान्या हाथ में काँफी का मग थामे किचन से निकली और उनके सामने बाले सोफे पर आकर बैठ गई।....उसे करीब आया देखकर राजीव सिंघला "ममत्व" से उसके चेहरे को निहारने लगे। लगा कि उनके हृदय सागर में प्रेम का ज्वार -भांटा उमड़ आया हो और अब वे उस प्रेम के उफान को सान्या पर लुटा देना चाहते हो।
पापा!....लगता है कि आप किसी विचार में डूबे हुए है। सान्या काँफी के घूंट भरती हुई बोली। जबकि सान्या की बातें सुनकर राजीव सिंघला की इच्छा " बलवती" होने लगी कि अपने मन की दुविधा को सान्या के साथ साझा करें।.....परन्तु हृदय के किसी कोने में भय ने भी डंख मारा कि कही सान्या उनके बातों का बुरा मान गई तो?... ऐसे में उन्होंने शांत होकर कहा।
नहीं!....ऐसी कोई बात नहीं है बेटा।....वैसे मैं थोड़ा उलझन में हूं....वह भी तुम्हारे कारण।
वह किसलिये पापा? सान्या चौंक कर बोली, जबकि उसके प्रश्न सुनकर राजीव सिंघला थोड़ी देर के लिए मौन हो गए, फिर बोले।
सान्या बेटा!.....!यह जीवन बहुत कठिन है और इसका कोई भरोसा नहीं। बोलने के बाद राजीव सिंघला थोड़ी देर के लिए चुप हो गए, फिर बोले।....बेटा, जीवन में बहुत सी जिम्मेवारी होती है, इसलिये अब चाहता हूं कि तुम्हारे हाथ पीले करके फ्री हो जाऊँ और फिर तो मेरे विशाल एंपायर को आखिर में संभालना तो तुम्हें ही है।
पापा!.....आप छोड़ो भी न, अभी तो मेरी उम्र ही क्या है। "शादी" ही तो है, समय आने पर कर लूंगी।
राजीव सिंघला की बातें खतम होते ही सान्या ने तुनक कर जबाव दिया। जबकि उसके जबाव सुनकर फिर राजीव की हिम्मत ही नहीं हुई कि बात को आगे बढा सके। इसलिये वे उठे और अपने रूम की ओर बढे।.....आखिर उन्हें तैयार होकर आँफिस के लिये भी तो निकलना था।.....फिर तो आज उनको "यंग लाइफ" सेमिनार को संबोधित भी करना था। वैसे तो यह उनके बिजनेस स्ट्रैटजी का हिस्सा था और इसलिये उनकी कंपनी इस प्रकार के प्रोग्राम का आयोजन करती थी।.....बस इस कारण से ही वे ज्यादातर बीजी ही रहते थे। परन्तु अब कभी-कभी उनका ये "अपना लाइफ स्टाइल" खुद उनको ही चुभने लगता था।....उन्हें कभी-कभी तो प्रतीत होने लगता था कि "दौलत के प्रति उनकी यह हवस" कहीं उनको डूबो न दे।
परन्तु मानव मन का लालच और श्रेष्ठ बनने की इच्छा, मानव के अंतरात्मा की आवाज को दबा देती है। यही तो राजीव सिंघला के साथ था। उसके मन की इच्छा ही इतनी विशाल थी कि कभी-कभी उन्हें ऐसा प्रतीत होता था कि उनकी "बलवती इच्छा" ही न कभी उनका दम घोंट दे। बात गलत भी तो नहीं था, उन्होंने जमाने के रहन-सहन को करीब से देखा था और उनकी आशंका ऐसे में गलत तो नहीं हो सकती। सोचते हुए वे तैयार हुए और बंगले के बिल्डिंग से बाहर निकले" अपने विचारों के जाले को झटक कर।....परन्तु इंसान इतना समर्थ कहां कि अपने विचारों से मुक्ति पा सके? उसमें न तो ऐसी योग्यता विकसित हुई है और न कभी हो सकती है। बस अपने मन के भार उठाते हुए "राजीव सिंघला" अपने कार के करीब पहुंचे, कार में बैठे और कार श्टार्ट होकर आगे बढ गई।
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क्रमशः-