रात के करीब एक बजने को थे।
अमूमन तो इस समय तक दिल्ली की सड़क की रफ्तार बहुत धीमी हो जाती थी। परन्तु कमर्शियल वाहन की बाढ सी आ जाती थी। जिसमें से अधिकतर बड़ी गाड़ियां होती थी। आज भी सड़क पर बड़ी- बड़ी गाड़ियां दौड़ रही थी। परन्तु ऐसा भी नहीं था कि छोटी गाड़ियां नगण्य थी। अभी छोटी गाड़ियां भी इक्का-दुक्का गुजर जाती थी और उसी में वो ब्लैक कलर की इनोवा थी, जो सरपट आगे की ओर भागी जा रही थी।
इसका मतलब ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि कार की रफ्तार ज्यादा थी। कार धीमे-धीमे आगे की ओर बढ रही थी, जिसका कारण भी था" ड्राइविंग शीट पर बैठी लड़की" जो कि जान बुझ कर कार की रफ्तार धीमी किए हुए थी। लड़की, जिसका नाम सान्या सिंघला था, पोशाक से ही माँडर्ण लगती थी। गोल चेहरा, रस भरे होंठ, भरे-भरे गोरे गाल और कजरारे कारे नैन। उसपर रेशमी घने बाल, वह सुंदरता की मूरत ही तो थी। सान्या सिंघला, लाखों में भी नहीं छिपने बाली। इस समय वो एक हाथ से कार की स्टेयरिंग थामे हुए थी और दूसरे हाथ में स्काँच की बोतल।......जिसे होंठों से लगाकर वो धीमे- धीमे शराब घुटक रही थी।
स्वाभाविक ही था कि वो अगर रात के इस समय शराब घुटक रही थी, तो बेवजह तो सड़क पर कार नहीं दौड़ा रही थी।.....हां, उसे शिकार की तलाश थी। "खुले विचारों की सान्या सिंघला" ,जो कि अभी थी तो काँलेज में ही, परन्तु उसके शौक ऊँचे थे। वो अमीर घराने से ताल्लुकात रखती थी और इसलिये उसके आदत बिगड़ गए थे। वो अपने स्वभाव से इस कदर बिगड़ गई थी कि उसे रोज ही एक नौजवान बेड पर चाहिए था। परन्तु आज उसके मन माफिक कोई नहीं मिला था शाम से, इसलिये वो बेवजह ही भटक रही थी और कार को सड़क पर दौड़ाए जा रही थी।
कहते है न कि मानव मन अति चंचल होता है और यह अपने स्वभाव में ही जीता है। वह तो मानव को इसपर अंकुश लगाना पड़ता है, "अन्यथा उसे यह मन जीवन में तिगनी का नाच-नचा दे।.....परन्तु हर एक मानव की न तो इतनी सामर्थ्य होती है और न ही हर एक इंसान चाहता ही-है कि अपने मन को नियंत्रित करें। परिणाम उसका मन इतनी गति से बहकता जाता है कि " उसे पतन के गड्ढे में गिराकर ही छोड़ता है"। सान्या सिंघला भी अपने मन के हाथों मजबूर थी और परिणाम वो पतन के गड्ढे में गिर चुकी थी।
वह अपने मन के हाथों इतनी मजबूर थी कि उसे हर रोज एक नया जिस्म चाहिए था। वो अपने शौक पूरे करने के लिए किसी हद तक गुजर सकती थी और अभी भी वही कर रही थी। उसको शिकार चाहिए था और उसकी ही तलाश में भटक रही थी। लेकिन बीतते समय के साथ ही उसके चेहरे पर बेचैनी बढती जा रही थी। वो शाम से ही अपने लिए शिकार की तलाश में निकली थी, परन्तु अभी तक उसे मन मुताबिक कोई नौजवान नहीं मिला था।.....बस इसी बेचैनी में अब तक वो दो बोतल स्काँच की गटक चुकी थी।
कहते है न कि मानव जिस चीज का अभ्यस्त हो जाता है, उसे वह चीज समय पर नहीं मिले, वो बेचैन हो जाता है।....फिर उसे कहीं शांति नहीं मिलता और वो अपने मन मुताबिक वस्तु को पाने के लिए हद से भी गुजर जाने को उद्धत हो जाता है।.....मन की लालसा बहुत ही बुरी है, वो मानव से वो भी करवा देती है, जिसकी मानव ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। "वो जो नहीं करना चाहता" उसी काम को करने के लिए लालायित होने लगता है।....फिर तो न तो उसे सामाजिक मान- मर्यादा की चिन्ता रहती है और न ही अनुशासन का भय। वो तो वही करता है "जिसकी उसको जरूरत होती है और जिसकी गवाही उसका मन देता है।
सान्या सिंघला भी तो उसी में से थी, जो मन के आधीन होते है। उसे भी रात का आनंद उठाने के लिए बांका नौजवान चाहिए था।....परन्तु आज सुबह उठकर उसने न जाने किसका चेहरा देख लिया था कि उसके मन को भाए, "ऐसा नौजवान उसको मिला नहीं था"। उसपर वो शाम से भूखी थी, इस कारण से उसके पेट में अब चूहे भी दौड़ने लगे थे। एक तो शिकार नहीं मिलने की खीज, उसपर बढता हुआ भूख, "वो अब कुछ -कुछ परेशान भी नजर आने लगी थी। ऐसे में उसने समय बिताने के लिए म्यूजिक प्लेयर आँन कर दिया।....कार में हिमेश रेशमिया के मदमस्त गाने गूंज उठे। अब वो थोड़ा नार्मल हुई, तभी उसे सड़क किनारे खुला हुआ पंजाबी ढाबा मिला।
वैसे ही उसे जोड़ो की भूख लगी थी, इसलिये उसने शिकार करने का इरादा त्याग दिया और कार को ढाबा के ग्राऊण्ड की ओर मोड़ दिया। कार खड़ी करने के बाद वह बाहर निकली और ढाबा के अंदर बढ गई। वैसे तो ढाबा की बनावट साधारण ही थी, परन्तु भोजन की खुशबू आ रही थी। खुशबू के नथुने से टकराने भर की देर थी, वह झट खाली टेबुल पर बैठ गई। वैसे भी पूरा ढाबा खाली था और ग्राहकों का वहां नामों-निशान नहीं था। कुर्सी पर बैठने के साथ ही सान्या ने समय देखा, रात के दो बजने बाले थे और जैसे ही उसने नजर उठाया। सामने हट्टा- कट्ठा गबरू नौजवान खड़ा था। गोरा रंग और सलीके से पहना हुआ लिबास, वो नौजवान आकर्षक लग रहा था। उसे देखते ही सान्या की जिस्मानी भूख जागृत हो गई, फिर भी वो अपने पर नियंत्रण रख के बोली।
अभी भोजन में क्या मिल सकता है?
कुछ भी! वो नौजवान विनम्र स्वर में बोला।
कुछ भी से मतलब? परन्तु उसके जबाव सुनकर सान्या चौंक कर बोली। जिसका जबाव उस युवक ने बहुत ही शालीनता से दिया।
कुछ भी से मैडम! आपको जी भी खाने में चाहिए, यहां वही भोजन परोसा जाता है।
तो फिर ठीक है, दो प्लेट पनीर भुजी, पनीर कबाब एवं रुमाली रोटी लेकर आओ। सान्या ने आँडर दिया और अभी उसकी बात भी खतम नहीं हुई थी कि नौजवान वहां से जा चुका था।
सान्या उसे जाते हुए देखकर बस आह भर कर रह गई। वैसे तो वो नौजवान उसके मानदंड के अनुरूप नहीं था, परन्तु उसमें कोई कमी भी तो नहीं थी। वह इस लायक तो था ही कि उसकी भूख मिटा सकता था और फिर कभी-कभी अपने स्वाद को बदल-बदल कर भी तो देखना चाहिए। सोचकर वह इस निर्णय पर पहुंच गई कि आज इसी नौजवान से काम चला लेना है। तब तक वो नौजवान, जो कि उस ढाबे पर नौकरी करता था, उसके आँडर लेकर आ गया।.....फिर क्या था, सान्या ने उसे भी साथ में खाने के लिए बिठा लिया। नौजवान भी तो खुले विचारो का था, हाथ आए मौका को नहीं जाने देने बालो में से। फिर तो खाने के दौरान दोनों ही खुल गए, उनके दरमियान छिपाने लायक कुछ नहीं बचा।
कहते है न कि दो विपरीत लिंग में आकर्षण जल्द ही होता है। उसमें भी जब निमंत्रण खुला मिले, तो इस आकर्षण को हवा मिलने लगती है।" बस उन दोनों के बीच भी यही हुआ", सान्या के खुले आमंत्रण को उस युवक ने स्वीकार कर लिया। साथ ही सान्या के पुछने पर उसने अपना नाम "आलोक" बतलाया। बातें तो खतम नहीं होनी थी, सो नहीं हुई, परन्तु भोजन खतम हो गया। इसके बाद सान्या ने बिल चुकाए और उस युवक को साथ लेकर ढाबे से बाहर निकली। सान्या के साथ बाहर निकलता हुआ वो नौजवान अच्छा-खासा उत्साहित था। क्योंकि वो जानता था कि ऐसी हुस्न की मलिका बड़े भाग्य से मिलती है और आज "बिल्ली के भाग्य से ही छिका टूटा था। ऐसे में वो हाथ आए हुए इस अवसर को बेजा नहीं जाने देना चाहता था।
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क्रमशः-