*मानव जीवन सहज जिज्ञासु होता है ! मानव के विकास में उसकी जिज्ञासाओं का बहुत बड़ा योगदान है | यदि मनुष्य के हृदय में जिज्ञासायें न होतीं तो वह शायद स्वयं एवं संसार के विषय में जान ही नहीं पाता | सनातन धर्म के जितने भी ग्रन्थ हैं सब किसी न किसी की जिज्ञासा के समाधान के रूप में ही हैं | पूर्वकाल में हमारे पूर्वजों की जिज्ञासा होती थी कि हम कौन हैं ? हमारा जन्म क्यों हुआ ? ब्रह्म / माया क्या है ? संसार क्या है ? जीवन का रहस्य क्या है आदि आदि ! इन्हीं गूढ़ जिज्ञासाओं के समाधान में हमारे अनेक ग्रन्थ रचे गये और सम्पूर्ण संसार को स्वयं , ईश्वर एवं संसार के विषय में एक नवीन ज्ञान प्रदान किया ! नचिकेता की जिज्ञासा ने तो सबकुछ स्पष्ट कर दिया ! महाराज परीक्षित की जिज्ञासा में श्रींमद्द्भागवत का प्रसार हुआ ! नैमिषारण्य में शौनक इत्यादि अट्ठासी हजार ऋषियों की अनेकानेक जिज्ञासाओं के समाधान में सूतजी ने सृष्टि के अनेकानेक रहस्यों को उजागर कर दिया | किसी भी जिज्ञासा के समाधान का माध्यम सतसंग ही रहा है | सतसंग की दिव्यता का आंकलन करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है ! बिना सतसंग किये किसी भी जिज्ञासा का समाधान कदापि नहीं प्राप्त हो सकता | यह संसार एवं इसमें पलने वाला जीवन अनेक रहस्यों से भरा पड़ा है इन रहस्यों के विषय में सतसंग के माध्यम से ही जाना जा सकता है , सतसंग के माध्यम से भी वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है जिसकी उस विषय में श्रद्धा हो और समाधानकर्ता के ऊपर विश्वास हो ! बिना श्रद्धा / विश्वास के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है | मानव का परम लक्ष्य होता है स्वयं के विषय में जानकरके स्वयं को आत्मा मानकरके परमात्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त कर उन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना ! यही हमारे पूर्वजों ने किया भी है परंतु हम शायद अपने उद्देश्य / लक्ष्य को भूल गये हैं | स्वयं एवं ब्रह्म के विषय में आज हमारे में जिज्ञासा ही नहीं प्रकट होती , यदि प्रकट भी होती है तो हम उसका समाधान प्राप्त करके भूल जाते हैं क्योंकि आज श्रद्धा एवं विश्वास की कमी स्पष्ट दिखाई पड़ रही है ! यह स्थिति कभी भी कल्याणकारक नहीं हो सकती |*
*आज जिस प्रकार मनुष्य एवं उसकी जीवनशैली परिवर्तित हो गयी है उसी प्रकार उसकी मानसिकता में भी परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है | यह आधुनिक मानसिकता का ही प्रभाव है कि आज मनुष्य की अधिकतर जिज्ञासायें भी व्यर्थ की ही प्रतीत होती हैं | आज मनुष्य अपने विषय में , ईश्वर के विषय में , इस अपार भवसागर के पार जाने के विषय में न जानकरके लोगों के विषय में जानने हेतु कुछ अधिक ही जिज्ञासु दिखाई पड़ रहा है | आज की जिज्ञासाओं को देखकर बरबस ही मन हंस उठता है ! सतसंग को लोगों ने मनोरंजन मानकर समय व्यतीत करने का साधन बना लिया है | श्रीराम जी अपनी ससुराल कितनी बार गये ? सुदामा की ससुराल कहाँ थी ? अमुक पूर्वजन्म में कौन था और उसका अगला जन्म कहाँ हुआ ? आज इस प्रकार की ही जिज्ञासायें देखने को मिल रही हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे जिज्ञासुओं से पूंछना चाहता हूँ कि :- क्या वे यह बता सकते हैं कि विवाहोपरान्त वे स्वयं कितनी बार अपनी ससुराल गये ? उनके स्वयं के परदादा की ससुराल कहाँ थी क्या वे बता सकते हैं ? वह स्वयं पूर्वजन्म में कौन था और अगले जन्म में क्या होगा ? क्या इसका आंकलन कर सकता है ? शायद नहीं ! परंतु आज लोग सतसंग में ऐसी जिज्ञासायें रखकर समय व्यतीत करते हुए विद्वानों की परीक्षा भी लेते हैं ! समाधान प्राप्त हो जाने के बाद उसे कुछ दिन बाद भूल भी जाते हैं क्योंकि आज के जिज्ञासुओं के हृदय में उस विषय के प्रति न तो श्रद्धा है और न ही विश्वास ! विचार कीजिए कि ऐसी जिज्ञासाओं से हमें क्या प्राप्त हो रहा है ? जीवन का एक एक क्षण मूल्यवान है इसका सदुपयोग करते हुए हमें सर्वप्रथम स्वयं के विषय में , फिर संसार में आने के विषय में तथा यहाँ क्या करना हमारा उद्देश्य है इसके विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही सार्थक जिज्ञासायें कही जा सकती हैं ! इन्हीं के माध्यम से हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं |*
*मानव जीवन जटिलताओं से भरा है जिसको सुलझाने में पूरा जीवन निकल जाता है ! इसी में मनुष्य जीवन भर व्यस्त रहता है परंतु इन्हीं व्यस्तताओं में से कुछ समय सार्थक सतसंग के लिए निकालना ही चाहिए |*