*इस सृष्टि का निर्माण प्रकृति से हुआ है | प्रकृति में मुख्य रूप से पंचतत्व एवं उसके अनेकों अंग विद्यमान है जिसके कारण इस सृष्टि में जीवन संभव हुआ है | इसी सृष्टि में अनेक जीवो के मध्य मनुष्य का जन्म हुआ अन्य सभी प्राणियों के अपेक्षा सुख-दुख की अनुभूति मनुष्य को ही होती है जो कि वह समय-समय पर प्रदर्शित भी करता रहता है | दुखी मनुष्य को सदैव प्रकृति से शिक्षा लेने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि मनुष्य को दुख तभी होता है जब उसकी कोई कामना पूरी नहीं होती | सर्वप्रथम तो यह.जान लेना चाहिए परमात्मा समदर्शी है वह कि के भी साथ भेदभाव नहीं करता | उसके बाद यह भी देखें रि प्रकृति के समस्त अंग कुछ लेने की अपेक्षा सदैव देने का प्रयास करते हैं | सूर्य सदैव चमकता रहता है , उससे हमें प्रकाश मिलता रहता है | सदैव प्रकाश देने वाला सूर्य हमसे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखता और ना ही हम उसको कुछ दे पाते हैं फिर भी वह चमकता रहता है | जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं अनेक प्रकार से इसका उपयोग करते हैं यहां तक कि मल मूत्र का त्याग भी इसी पृथ्वी पर करते हैं परंतु पृथ्वी का धैर्य कभी भी समाप्त नहीं होता है | बादल समय-समय पर बरसते रहते हैं , उनके बरसने से ही पृथ्वी हरी भरी होती है तथा जीवो को जीवन प्राप्त होता है परंतु विचार कीजिए क्या हमने उनको कभी कुछ दिया है या उन्होंने हमसे कुछ अपेक्षा की है | सबको समान रूप से सब कुछ बांटने वाले वृक्ष सदैव छाया एवं मीठे फल प्रदान करते रहते हैं उन्होंने कभी मनुष्य से या अन्य जीवो से कोई अपेक्षा नहीं की इसलिए सदैव लहराते रहते हैं | वहीं मनुष्य एक दूसरे के प्रति कुछ ना कुछ पाने की अपेक्षा किया करता है इसीलिए उसको दुख प्राप्त होता रहता है | जिस दिन हम प्रकृति की भांति सिर्फ देना सीख लेंगे उसी दिन हमारी यह दुख स्वत' समाप्त हो जायेंगे | जब देने की प्रवृत्ति हृदय में जागृत हो जाएगी तो किसी से कुछ मांगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी क्योंकि तब बिना मांगे सब कुछ मिलने लगेगा |*
*आज प्रत्येक मनुष्य दुखी दिखाई पड़ता था क्योंकि वह अपनी कामनाओं पर विराम नहीं लगा पा रहा है , देने की अपेक्षा पाने की कामना कुछ अधिक ही जागृत हो रही है | आज मनुष्य ने प्रकृति से शिक्षा लेना ही बंद कर दिया है | ऐसा प्रतीत होता है जैसे मनुष्य के हृदय में देने की भावना ही समाप्त हो गई है | यदि किसी को कुछ दे भी दिया है तो इस भावना से दिया जाता है कि हमें यह वापस मिलेगा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यही कहना चाहता हूं कि मनुष्य को देने की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए और किसी को कुछ देने के बाद उसे पाने की अपेक्षा कदापि न की जाए क्योंकि यदि आपके देने का भाव सकारात्मक है तो आपको आप का दिया हुआ वापस अवश्य मिलेगा | जहाँ पाने की अपेक्षा की जाती है और वह पूरी नहीं होती तो मनुष्य दुखी हो जाता है | परंतु आज मनुष्य अपना धैर्य खो चुका है , सब कुछ तुरंत प्राप्त कर लेने की इच्छा रखने वाला मनुष्य जब कुछ भी नहीं प्राप्त कर पाता तो वह दुखी हो जाता है | जिस प्रकार प्रकृति के समस्त अंग निष्काम भाव से एक समान रूप से समस्त सृष्टि के लिए कार्य करते हैं उसी प्रकार निष्काम भावना से जिस दिन मनुष्य अपने सभी कार्य संपादित करने लगेगा उसी दिन उसके दुख समाप्त हो जायेंगे , परंतु जिस प्रकार का वातावरण इस समय दिखाई पड़ रहा है उस वातावरण में ऐसा होना कदापि संभव नहीं दिख रहा है | इस वातावरण को बदलने की आवश्यकता है और इसे बदलने के लिए मनुष्य को सत्संग की परम आवश्यकता है क्योंकि बिना सत्संग की यह प्राप्त हो पाना असंभव है |*
*सूर्य , चंद्रमा , पृथ्वी , बादल , नदियां आदि अनेक उदाहरण हमको अपने आसपास देखने को मिल सकते हैं जो सदैव सृष्टि को देते रहते हैं और उसके बदले में कुछ भी पाने की अपेक्षा नहीं रखते | इसी प्रकार हमें भी अपनी मानसिकता बनानी पड़ेगी तभी दुख समाप्त हो सकता है |*