*इस धरा धाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने जीवन में पग पग पर सावधानी के साथ कदम बढ़ाता है | संसार में किससे अपना हित होना है और किससे अहित होना है इस विषय में मनुष्य बहुत ही सावधान रहता है , परंतु जिससे उसे सावधान रहना चाहिए वह उससे सावधान नहीं रह पाता | मनुष्य को किस से सावधान रहना चाहिए ? इसके विषय में हमारे महर्षियों ने बताया है कि मनुष्य का सबसे ज्यादा अहित यदि कोई करता है तो वह उसकी स्वयं की इंद्रियां होती है | मनुष्य अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर उसके प्रलोभन में इस प्रकार डूब जाता है कि फिर उससे बाहर निकल पाना उसके लिए संभव नहीं हो पाता , इसलिए सर्वप्रथम मनुष्य को अपने इंद्रिय प्रलोभनों से सावधान रहने की आवश्यकता है | इंद्रिय प्रलोभनों का स्वरूप ही कुछ ऐसा होता है यह व्यक्ति को पहले तो लुभाते हैं और जब व्यक्ति उसके समीप आ जाता है तो उसे अपने नागपाश में बांध कर विषय भोगों में लिप्त कर देते हैं | विषय भोगों से निकल पाना साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं होती क्योंकि इसके लिए सतत जागरूकता की आवश्यकता है | इंद्रिय लोलुपता में फस कर मनुष्य अपने प्राण तक खो देता है | क्षणिक सुख की कामना के लिए मनुष्य कुछ भी करने को तैयार हो जाता है परंतु अंत में वह स्वयं को ठगा हुआ ही महसूस करता है | मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है की इंद्रिय भोग पूर्णतया गलत है यदि अपनी मर्यादा एवं सीमा में रहकर इनका उपभोग किया जाय तो यह जीवन के आवश्यक अंग है परंतु यह घातक तब हो जाती है जब मनुष्य अपने इंद्रिय सुख को प्राप्त करने के लिए पागल बन जाता है | इंद्रिय प्रलोभन से मनुष्य सुख भोग तो प्राप्त कर लेता है परंतु उसकी जीवन शक्ति क्षीण होती चली जाती है | गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! इंद्रिय विषयों का चिंतन करते - करते मनुष्य इंद्रिय विषयों के वशीभूत हो जाता है | आसक्ति से काम और इससे क्रोध प्रकट होता है , क्रोध से मोह व मोह से स्मृति का लोप हो जाता है जो बुद्धि के विनाश का कारण बनता है | अंत में यही मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को यदि सावधान रहने की आवश्यकता है तो वह स्वयं के इंद्रिय सुखों के प्रति अधिकता से सावधान रहने की आवश्यकता है |*
*आज संसार में यदि पापाचार , कदाचार , अत्याचार बढ़ा है तो उसका कारण सिर्फ मनुष्य की इंद्रिय लोलुपता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | मनुष्य अपने इंद्रिय सुख की कामना में इतना अधिक आसक्त हो गया है कि उसे उचित - अनुचित का विचार करने का विवेक ही नहीं रह गया है | यही कारण है कि मनुष्य ना चाहते हुए भी ऐसे कृत्य कर रहा है जिसका बाद में उसको पश्चाताप तो होता है परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि सांसारिक विषय भोगों से कोई भी बच नहीं पाया है परंतु प्रत्येक मनुष्य को प्रणहंता सौंदर्य एवं सुख साधनों से सजग - सावधान रहने की आवश्यकता है जो व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमित करते हैं और घातक आकर्षण बनकर उपभोक्ता के प्राण , जीवन शक्ति , मनोयोग , एकाग्रता एवं भावनात्मक संतुलन को डांवाडोल कर व्यक्ति को निश्चित संतप्त अवस्था में ला छोड़ते हैं | आवश्यकता से अधिक इंद्रिय सुख की कामना करने वाला मनुष्य अपने जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकता और ना ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है क्योंकि इंद्रिय प्रलोभन मनुष्य को भ्रमित कर देते हैं और मनुष्य अपने लक्ष्य से भटक जाता है | इसीलिए सांसारिक शत्रुओं से सावधान रहते हुए मनुष्य को अपने आंतरिक शत्रुओं अर्थात अपनी इंद्रियों से भी सावधान रहने की परम आवश्यकता है क्योंकि यही इंद्रियां मनुष्य से अनेकों प्रकार के पाप कर्म कराती हैं | क्षणिक सुख की कामना में मनुष्य मानवता के विरुद्ध कार्य भी करने में संकोच नहीं करता है यही कारण है कि आज संसार में त्राहि-त्राहि मची हुई है | सब कुछ अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने की कामना में ही मनुष्य लगा हुआ है यही मनुष्य के पतन का मुख्य कारण है | आज यदि मानवता का ह्रास हो रहा है तो उसका मुख्य कारण मनुष्य की इन्द्रिय लोलुपता ही है | जब तक मनुष्य अपनी इंद्रियों के अधीन रहकर कार्य करेगा तब तक संसार में ऐसे ही त्राहि-त्राहि मची रहेगी इसलिए इससे सावधान रहते हुए संयम के साथ ही ही जीवन यापन करना चाहिए |*
*जिस प्रकार मनुष्य सांसारिक शत्रुओं के प्रति प्रतिपल सजग एवं सावधान रहता है कि शत्रु हम पर आक्रमण न करने पायें उसी प्रकार आंतरिक शत्रु अर्थात अपनी इंद्रियों से भी प्रतिपल सजग एवं सावधान रहने की आवश्यकता है |*