मेरी आँखों से गुजरी जो
बीते लम्हों की परछाईं
न फिर रोके रुकी ये
आँखें झट से भर आयीं
वो बचपन गुजरा था
जो घर के आंगन में
लुढ़कता सा मैं भीगा करती थी
जिसमें वो सावन बरसता सा
याद आई मुझे माँ ने थी
जों कभी लोरियां गाई
न फिर रोके रुकी ये आँखें
झट से भर आयीं
उम्र छोटी थी पर सपने बड़े
हम देखा करते थे
ये दुनिया प्यारी न थी
हम तो बस खिलौनों पे मरते थे
जब देखा मैंने वो
बचपन का खजाना
किताब, कलम और स्याही
न फिर रोके रुकी ये आँखें
झट से भर आयीं
याद आया मुझे भाइयों के संग
झगड़ना शैतानियाँ कर के
माँ के दामन से जा लिपटना
साथ ही याद आई वो बातें
जो माँ ने थी समझाई
न फिर रोके रुकी ये आँखें
झट से भर आयीं
आज तन्हाई में जब वो
मासूम बचपन नजर आया है
ऐसा लगता है जैसे
खुशियों ने कोई गीत गुनगुनाया है
पर जब दिखा सच्चाई का आइना
तो फिर हुयी रुसवाई
न फिर रोके रुकी ये आँखें
झट से भर आयीं......