26 जनवरी 2013,,, हां बिल्कुल ठीक 11 वर्ष पूर्व नौकरी के शुरुआती कुछ साल काटने के बाद, संडे और पब्लिक हॉलिडे के चक्कर से ऊब चुका मेरा विद्यार्थी जीवन फिर से एक बार उन दिनों में लौट जाना चाहता था, जहां हर त्यौहार को लेकर अति उत्साह हुआ करता था।
तब 15 अगस्त, 26 जनवरी या फिर स्कूल का वार्षिक उत्सव किसी त्यौहार से कम नहीं था। इन सब पर अगर घर से कुछ टिप मिल जाए तो, तब तो जैसे किसी राज्य का सिंहासन मिल जाने से कम नहीं!!!!
हर उत्सव के एक महीने पहले से वो परेड के बैंड की आवाज, वो रिदम तीन पर एक, वो भी बड़े ढोल के दो अंतराल में बिल्कुल सिस्टमैटिक,,,,,,! बजाने वाले से ज्यादा सुनने वाले के दिमाग में वह धुन बजती थी। जब परेड मार्च फास्ट करती, तो हर कोई अपने आप को उसी में शामिल समझता। यदि गलती से किसी के हाथ या पैर की चाल बदली हुई सी लगे, और ग्रुप से ना मिले तो ऐसा लगता जैसे वह हमारे सामने चल रहा हो। हम तब तक उसी को देखते रहते, जब तक वह अपनी चाल ठीक ना कर ले।
यह मेरा ही नहीं, उस भीड़ में उपस्थित सभी के दिल का हाल बता रहा हूं। स्वागत गान से लेकर शुरू शुरू के चार प्रोग्राम बड़े ध्यान से देखना। "किसी भाषण देने वाले वक्ता में खुद को निहारना और थोड़ा बोर हो जाने पर आसपास की दुकान में अपनी सियासत लूटाना एक आम बात थी"।
इसी में डूबा हुआ, रिजर्वेशन ना मिलने पर भी जनरल बोगी के दरवाजे पर बैठकर मैं सफर तय कर रहा था। पहुंचकर मैंने सभी दोस्तों को फोन लगाया कि हम सब मिल सकें। कुछ को घर जाकर भी बुलाना पड़ा। जैसे मेरे घर कोई काम हो। फिर अपने स्कूल गया, जबरन वयस्त शिक्षकों से मिला। जिसमें कुछ ने मुझे पहचान लिया, तो कुछ को अपना परिचय देना पड़ा।
शिष्टाचार में न चाहते हुए भी कुछ खडूस शिक्षकों के भी चरण छूने पड़े। लेकिन कमबख्त किसी ने भी एक बार पलटकर नहीं कहा कि प्रोग्राम में आना। मुझे पता था, 25 जनवरी को वार्षिक उत्सव होता है। काश की कोई एक बार मुझे आमंत्रित कर देता। बुझे मन से मैं लौट ही रहा था, कि तभी एक नौजवान ने बड़ी तेजी से बढ़कर मेरे कंधे पर हाथ रख और कहने लगा,,,,, "क्या जवान आज इधर कैसे"??
मैने पलटकर देखा तो आश्चर्यचकित रूप से मेरे मुंह से निकल पड़ा शुभम तुम???
हां भाई,,, सबसे मिल लिए क्या?? हमसे मिलना छोड़ दिया। हम भी यही के प्रध्यापक है। पैर ना छुओ। ऐसे ही मिल लो, कहते हुए वह हंसने लगा।
"यहां मैने चौंककर कहा,,,, तुरंत उसने पलटवार करते हुए जवाब दिया"!!
हां भाई,,,, यही पर!!! पिताजी के गुजरने के बाद उनकी जगह मुझे नियुक्ति मिली है। वास्तव में मैं आगे भी पढ़ना चाहता था, लेकिन परिवार की जिम्मेदारियां ने मुझे यहीं पर रोक लिया।
खैर ठीक है,,,कल वार्षिक उत्सव में जरूर आइये!!
बोलो तो "वी.आई.पी" कार्ड दे दूं, क्योंकि यहां बैठने के लिए तो जगह बचेगी नहीं,,, कहते वह उसने अपने जेब से कार्ड निकाला और धीरे से मेरे हाथों में थमा दिया।
उस समय मुझे ऐसे लगा, जैसे किसी ने मेरे हाथ में स्वर्ण पदक दे दिया हो,,,,क्योंकि वाकई उस स्कूल का "वी.आई.पी" कार्ड मिलना किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं था।
बड़े अरमान थे हमारे, विद्यार्थी जीवन में की हम भी कभी अपने स्कूल के "वी.आई.पी" कोटे में आकर बैठे। शुभम ने तो जैसे मेरी उजड़ी हुई आस पूरी कर दी। ठीक वैसे ही जैसे पानी को तरसते व्यक्ति को नदी के पास लाकर खड़ा कर दिया हो। मैं आनंदित हो उठा और अवश्य कहकर तुरंत लौट आया।
उस पास को मैने मुट्ठी में ऐसे पकड़ रखा था, जैसे किसी बच्चे के हाथ में सिक्का,,,,,!! पूरी रात मैं उस कार्यक्रम के बारे में सोचता रहा। दूसरे दिन सांझ ढलने से पूर्व होने वाले कार्यक्रम में शामिल हो गया। अति उत्साह के साथ मैं कार्यक्रम में भाग लिया और बचपन याद करते हुए थोड़ी देर के लिए उठकर बाहर आया, तो चाट वाली दुकान याद आई आ गई। जिसके सामने "वी.आई.पी" कॉरिडोर में पेश किए जाने वाले टिफिन पैक का अरेंजमेंट भी फेल था।
"जाकर बूढ़ी अम्मा के पास जबरन अपना परिचय देते हुए, हमारे जमाने की 25 पैसे की चाट को दो रूपये में खरीद कर खाया। एक पूरा बचपन मैने उस स्कूल में बिताया था। चाट खाते हुए अनेकों यादें मन में आती जाती रही। और मैंने उन कमबख्त दोस्तों को भी याद किया, जो अनेकों बार बुलाने पर भी नहीं आए, अंत में लौटकर मैं चले आया"।
तड़के सुबह उठकर जबरन स्कूल की और निकल पड़ा। देखा तो रात की थकावट के कारण कोई सफाई वाला भी नहीं आया था। बूढ़ी अम्मा पूरी धुंआर की सुबह में हाथ में झाड़ू लिए, स्कूल के गेट से अपने दुकान और उसके आसपास की जगह साफ करते नजर आई।
मैं लगभग दो राउंड लगाने तक उन्हें बड़े गौर से देख रहा था। जी चाहा उनके हाथ से झाड़ू लेकर उनकी मदद कर दूं, लेकिन नौकरी का अहंकार रोक दे रहा था।
हां, यह कहना गलत नहीं होगा, कि वाकई मुझे उस समय अपने आप के लिए "वी.आई.पी" होने पर गर्व था, क्योंकि एक बड़े पद पर मैं पहुंच चुका था। जहां तक पहुंचना उस स्कूल के विद्यार्थियों का सपना होता हैं।
लेकिन तभी दो तीन रोपदार नौजवानों ने आकर उस बूढ़ी अम्मा को डांटना शुरू कर दिया। मैंने पास आकर कारण पूछा, तो पता चला कि कल रात उनमें से किसी एक के हाथ की अंगूठी वहां गिर गई थी। वह जबरन ही उस बूढ़ी अम्मा को दोषी ठहरा रहे थे।
उनका यहां मानना था, कि वह बूढ़ी अम्मा जानबूझकर सुबह झाड़ू लगा रही थी, कि कोई भी सामग्री मिल जाए। मैंने उन्हें बहुत समझाने का प्रयास किया। लेकिन वे कहां मेरी मानने वाले थे। उल्टा मुझसे ही भिड़ पड़े।
तभी एक रोबदार आवाज़ ने हस्तक्षेप किया और उस धुंधली तस्वीर के नजदीक आने से पहले एक जोरदार पट की आवाज से सामने खड़े लड़के का माथा घुमा दिया। इतना जोरदार तमाचा मुझे खुशी भी हुई और थोड़ा डरा भी।।।
तभी देखा तो सामने विधायक सूरज सिंह दो जवानों के साथ खड़े थे।
कहने लगे,,,,,नौजवान आज 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) है। आज ही के दिन संविधान लागू हुआ। जहां किसी गरीब और अमीर के अधिकार बिना किसी भेदभाव के एक ही तरह निर्धारित किए गए थे।
दोबारा किसी को इस तरह प्रताड़ित मत करना। अंगूठी तुमने घुमाई अपनी अय्याशी में ,,,और इल्जाम बूढ़ी अम्मा पर लगा रहे हो । जो मेहनत करके पैसा कमा रही हैं। भागों यहां से, नहीं तो दो चपात और लगाऊंगा। दोबारा इधर दिखे तो सोच लेना। इतना सुनते ही वह तीनों जैसे हवा की तरह गायब हो गए।
उन्होंने बूढ़ी अम्मा को कुछ पैसे देकर फिर से दुकान पर जाकर बैठने को कहा। बताया कि आज ही ओस से बचने के लिए छोटी लकड़ी की दुकान उनको मिल जाएगी।
"मैने और बूढ़ी अम्मा बड़ी कृतज्ञता से उनकी ओर देखा। तब उन्होंने मुझ से कहा, आश्चर्यचकित मत हो जवान। मेरा व्यवहार बिल्कुल संविधान की तरह है। अम्मा जी के लिए लचीला और बिगड़े नवाबों के लिए कठोर"!!कहते हुए वे चल दिए।
मैं बहुत कुछ सोचते हुए घर चला आया। तैयार होकर पुनः स्कूल गया। देखा तो वाकई बूढ़ी अम्मा को एक नई दुकान मिल चुकी थी। विधायक जी झंडा पहरा रहे थे, और मैं तिरंगे के साथ हमारे संविधान को सलाम कर रहा था। सच में यदि ऐसा संविधान सारे देश में हो और ऐसी सोच हर नेता के मन में पनपे तो हर तरफ अमन और शांति के साथ सही मायने में गणतंत्र दिवस मनाना सफल होगा।
आसमान में लहराएं तिरंगा, बिखेरे अपनी शान,
दिखे छवि भगत सिंह की, नेता वल्लभ और कलाम।
अंबेडकर ने संविधान रचा, सबको दे समानता का अधिकार,
नही किसी में भेदभाव हो, नही जुल्म किसी पर हो स्वीकार,
रह दायरे में सब, करे अपना और देश का विकास,
न मुफ्त में बटे खाना, ना हो दूसरे की आस ।
सबको रोजगार मिले, नही चाहिए मुफ्त की चीजे,
देना हो हक दो हमको, फिर चाहे जितना "कर" लीजिए।
🇮🇳🇮🇳जय हिंद,जय भारत🇮🇳🇮🇳
(काल्पनिक कहानी)
मीनाक्षी ✍️