अरे यह क्या, भला यह कैसे संभव है, ऐसा तो नहीं हो सकता। लेकिन मंडल साहब माता बंगलामुखी के अनन्य भक्त होने के साथ-साथ अदृश्य शक्तियों को बहुत मानते थे। लेकिन आज तो जैसे उन्होंने अपने खुली आंखों से चमत्कार देखा । हुआ यूं कुछ था कि मंडल साहब तकनीक कार्यालय में सीनियर पद पर ऑफिसर थे, और उनका बाबू विवेक जैसे उनका साया था।
वह कहने को ही मात्र बाबू था, लेकिन बचपन से ही मंडल जी और विवेक साथ साथ बड़े हुए, दोनों अच्छे दोस्त थे। मंडल बाबू उम्र में विवेक से थोड़े बड़े थे, इसलिए विवेक मंडल बाबू की सारी बात भी माना करते थे। विवेक के पास पढ़ने के लिए पैसे नहीं थे तो, मंडल बाबू के परिवार ने पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाया की वह अपनी मेहनत पर ही पहली बार में ही बोर्ड में चयनित होकर उच्च श्रेणी लिपिक के पद पर उसी कार्यालय में पदस्थ हुआ, जहां मंडल बाबू एक सीनियर ऑफिसर थे।
पूरे कार्यालय में उनकी जोड़ी राम-भरत सी लगती थी। वह खुद कहते थे कि यह मेरा बाबू नहीं ,मां का आशीर्वाद है, और मेरा छोटा भाई है। इसे मां ने मेरे जीवन के खालीपन को भरने के लिए भेजा है। उनकी जोड़ी को देखकर बहुत से लोग ईर्ष्या भी करते थे, और कहते भी थे कि आखिर कब तक तुम्हारा साथ रहेगा। आज नहीं तो कल ट्रांसफर हो ही जाएगा।
लेकिन विवेक भी बड़ा जिद्दी था। वह भी मंडल जी की सेवा में ऐसा डूबा था कि उसने अपने 3-3 प्रमोशन ठुकरा दिए थे। वह कहता था दादा, अगर मर भी जाऊं तो भी अपने आपको अकेला मत समझना । इस ऑफिस की एक-एक फ़ाइल को अच्छे से जानता हूं।
तब किसे पता था कि उसे उसके यह कथन बहुत जल्द सही होने वाले हैं। नियति ने ऐसा खेल खेला कि एक दिन ऑफिस से लौटते समय मंडल दा का स्कूटर अचानक अनबैलेंस हुआ। तभी विवेक जो गाड़ी में पीछे बैठा था, अचानक दादा को अपने ऊपर ले कर लिया। जिसके कारण रोड के किनारे पर लगा हुआ साइन बोर्ड विवेक के सिर से जा टकराया और वह वहीं घायल होकर गिर पड़ा।
मात्र 2 दिन के समय में ही डॉक्टरों ने उसे पहले कोमा फिर मृत घोषित कर दिया। मंडल बाबू पूरे 15 दिनों तक एकांत कमरे में माता बंगलामुखी के सामने बेसुध से पड़े रहते, उनका विवेक के लिए वास्तविक प्यार तब सामने आया जब उन्होंने अपने त्यागपत्र कि घोषणा कर दी कि भाई के बिना ऑफिस में मन नहीं लगेगा, क्योंकि मंडल दा बहुत ही ईमानदार और न्याय प्रिय व्यक्ति थे।
अफसरों ने समझा-बुझाकर पुनः काम पर उन्हें बुला लिया। आज अचानक एक जलगांव की फाइल जो महत्वपूर्ण विवाद का विषय हुआ करता था, को न्यायालय में पेश करना था। इसलिए मंडल दा को वापस बुलाया। वह बुझे मन से ऑफिस तो आए लेकिन आते ही विवेक कि कुर्सी को देख कर फफक-फफक कर रोने लगे, फिर काम में लगे।
फिर ऐसा भी क्या काम वो लगातार दोपहर तक हर पन्नों को अपने हाथों से लिखकर डिस्पैच के लिए देने गए और थकावट में वही कुर्सी पर बैठ गए। सभी ऑफिस के लोग लंच के लिए चले गए। तभी अचानक मंडल दा को ऐसा महसूस हुआ कि कंप्यूटर स्क्रीन चमक रही है।
थोड़े ही देर पहले अपने ऑफिस में लगी मां की तस्वीर को देखकर विवेक को खोने का शोक मना रहे थे, इस बीच कंप्यूटर स्क्रीन की चमक ने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और उन्हें अपने पास विवेक के होने का एहसास होने लगा, और कंप्यूटर अपने आप ही चल पड़ा। कंप्यूटर की स्क्रीन पर अचानक वह तस्वीर जिसे विवेक अक्सर देखा करता था, जिसमें एक ओर माता की और एक ओर मंडल दा नजर आए, और देखते ही देखते कंप्यूटर अपने आप चलने लगा।
सारे पेपर जिसे मंडल बाबू ढूंढना चाहते थे, अपने आप ही प्रिंट होने लगा है। ऐसे लगा जैसे विवेक हमेशा से ही जानता था कि इन फाइलों की आवश्यकता होगी। सेंट्रल प्रिंटर की आवाज सुनकर चपरासी दौड़कर आया और बोला बाबू कुछ प्रिंट दिए हो। मंडल दा, कुछ नहीं बोले। उनका ध्यान उस कीबोर्ड की ओर था, जिसमें एक अंतिम खत लिखा जा रहा था।
मेरे दादा, मेरे दोस्त आप अपने को कभी अकेले मत समझना, मैं मां के आशीर्वाद से हमेशा आपके साथ ही रहूंगा।
"आपका दोस्त विवेक"
समाचार पूरे ऑफिस में आग की तरह फैल गया। कुछ लोग इसे अफवाह बोल रहे थे, तो कुछ लोग सही समझ रहे थे।अब तो उनके जीवन में जो उनसे ईर्ष्या करने वाले भी नतमस्तक थे कि वाकई जन्म और मृत्यु से परे भी एक दुनिया है,जो उन दोनों दोस्त को भी अलग ना कर पाए।
आज भी ना जाने मंडल दा उनके ऑफिस में आकर पुनः प्रफुल्लित हो उठते हैं और मां को भोग लगाने के बाद अनजाने में ही एक बार विवेक को जरूर पुकारते हैं....
समाप्त
🙏🏻काल्पनिक रचना🙏🏻
Dr. Meenakshi Suryavanshi ✍️