*संसार में पाप और पुण्य दोनों बराबर की संख्या में हैं | इनकी विस्तृत व्याख्या हमारे शास्त्रों - पुराणों में की गई है | यूं तो पाप अनेकों की संख्या में हैं | जुआ, चोरी, झूठ, छल, व्यभिचार, हिंसा आदि सभी पाप हैं | पर सबसे बड़ा पाप कृतघ्नता हैं जिसे सब पापों की जननी कहा जा सकता हैं | इसी के कारण मनुष्य स्वार्थी निष्ठुर, पतित और कुकर्मी बनता हैं | इसलिए आत्मसुधार के इच्छुकों को सर्वप्रथम कृतघ्नता के पाप से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए | दूसरों के अनेकों उपकार हमारे ऊपर हैं। ईमानदारी और सहृदयता के साथ जिधर भी दृष्टि उठाकर देखा जाय उधर से अपने ऊपर उपकारों की वर्षा ही होती रही हैं ऐसा प्रतीत होता हैं | मनुष्य इतना दुर्बल प्राणी है कि वह दूसरों की सेवा सहायता और उदारता प्राप्त किये बिना समुन्नत होना तो दूर जीवित भी नहीं रह सकता | अन्य जीव-जन्तुओं के बच्चे जन्म लेने के बाद बहुत थोड़े समय तक माता-पिता की सेवा लेते हैं और जल्दी की आत्मनिर्भर हो जाते हैं | कीड़े-मकोड़ों को तो जन्मने के बाद माता की कोई सहायता अपेक्षित ही नहीं रहती, पशु-पक्षियों के बच्चे भी माता से दूध या आहार प्राप्त करने की बुद्धि स्वयं ही धारण किये रहते हैं | बछड़ा जन्मते ही अपने आप गया के थन ढूँढ़ लेता हैं और अपने आप दूध पीने लगता हैं | पर मनुष्य के बच्चे में इतनी भी समझ नहीं होती | माता यदि नवजात शिशु के मुख में स्वयं ही स्तन न दे तो उसके लिए दूध पीना भी संभव न हो सकेगा | मनुष्य का बालक बहुत वर्षों तक अपनी जीवन रक्षा और उन्नति के लिए अभिभावकों पर निर्भर रहता हैं | यदि वे उसे भोजन, वस्त्र, शिक्षा, सफाई, चिकित्सा आदि की असुविधा प्रदान न करें तो शायद ही कोई बालक अपना जीवन धारण और विकास कर सकने में समर्थ हो सके |* *आज मनुष्य समय बदलने पर स्वयं के ऊपर किये उपकारों एवं उपकारियों को तो भूल ही जाता है साथ ही आज की आधुनिकता में रंग करके सबकुछ धन के बल पर प्राप्त करना चाहता है | परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य जहाँ सृष्टि का सर्वोच्च प्राणी हैं, वहाँ इस दृष्टि से सबसे पिछड़ा हुआ भी हैं कि वह बिना दूसरों की सहायता के अपना कुछ भी विकास करने और कुछ भी सुख सुविधाएँ उपार्जित कर सकने में असमर्थ हैं | उन्नति और सुविधा के जितने भी साधन हमें प्राप्त होते हैं उसमें अगणित लोगों का योगदान जुड़ा रहता हैं | नाना प्रकार के सुन्दर भोजन जो हम नित्य खाते हैं क्या यह सब हमारे स्वयं के द्वारा उपार्जित किये हुए हैं? माना कि उन्हें पैसे देकर खरीदा गया है पर यदि उत्पादक लोग उन्हें अपना श्रम और बुद्धिबल लगाकर उत्पन्न न करें तो पैसे के बल पर क्या उन्हें प्राप्त किया जा सकेगा? आज टेलीफोन की, रेल की हवाई जहाज की सुविधाएँ प्राप्त हैं, यह सब आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व कोई हजारों रुपया पास होने पर भी प्राप्त नहीं कर सकता था | पैसा नहीं, लोगों का श्रम सहयोग ही प्रधान है | पैसे के बल पर माता का वात्सल्य,पिता का स्नेह,पत्नी का आत्म-समर्पण पुत्र की श्रद्धा, मित्र का सौहार्द्र भला कौन प्राप्त कर सका हैं ? स्वास्थ्य, शिक्षा, सद्गुण, सम्मान आदि भी पैसे के बल पर कहाँ प्राप्त होते हैं?* *पैसे में कुछ शक्ति है तो अवश्य, उससे सुविधा भी मिलती हैं पर वह शक्ति है सीमित ही | मनुष्य केवल उसी के बल पर अपने जीवन को सुसम्पन्न और शान्ति मय नहीं बना सकता ।*