*परमपिता परमेश्वर जिन्हें ब्रह्म कहा जाता है उन्होंने अपनी माया से इस सृष्टि की रचना की | सृष्टि का कण-कण माया से परिपूर्ण रहे बिना माया की / ब्रह्म की शक्तियां काम नहीं कर पाती , अर्थात ब्रह्म एवं माया से मिलकर ही यह सृष्टि बनी है और इस सृष्टि का प्रत्येक जीव माया से अभिभूत होकर ही कार्य करता है | सनातन धर्म में ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए माया का त्याग करने का दिशा निर्देश दिया गया है क्योंकि ब्रह्म एवं माया एक दूसरे के पूरक होते हुए भी एक दूसरे से विपरीत है | यद्यपि माया से कोई भी नहीं बच पाता भगवान की माया से ब्रह्मा एवं शिव भी मोहित हो जाते हैं परंतु फिर भी वही अनेकों महापुरुषों ने माया को परास्त करके ब्रह्म को प्राप्त किया है | माया के सैनिक इतने प्रबल है कि मनुष्य को सम्मोहित करने में सक्षम है परंतु जो अपने इंद्रियों पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए उसे अपने वश में कर लेता है माया उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती | माया को जीतना इतना सरल नहीं है परंतु असंभव भी नहीं है | माया के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी स्पष्ट कर देते हैं कि :- गो गोचर जहँ लगि मन जाई ! सो सब माया जानेहु भाई !! अर्थात जहां तक दृष्टि पहुंचती है / जहां तक मनुष्य का मन पहुँचता है वह सब माया ही है | माया के इस प्रबल प्रपंच से बाहर निकलते हुये ही ब्रह्म को पाया जा सकता है | मानव जीवन का उद्देश्य ब्रह्म की प्राप्ति / भगवत्प्राप्ति ही कहा गया है परंतु मनुष्य इस संसार में आने के बाद माया के चक्रव्यूह में इस प्रकार फंस जाता है कि वह ब्रह्म को भूल जाता है और यही माया में रहते हुए भी जो माया से ऊपर निकल जाता है वही ब्रह्म को प्राप्त होता है | ऐसा हमारे महापुरुषों ने करके दिखाया भी है हमें आवश्यकता है महापुरुषों के आदर्शो पर चलकर उनके बताए गए दिशा-निर्देशों का पालन करने की | फिर हमारे लिए भी कुछ भी असंभव नहीं रह सकता |*
*आज जिस प्रकार आधुनिकता ने हमको जकड़ रखा है , ऐसे परिवेश में ब्रह्म की ओर ध्यान ही नहीं जाता | माया के वशीभूत मनुष्य इंद्रिय जनित सुखों के लिए स्वान की भांति इधर-उधर दौड़ता रहता है | और जब वह कहीं सत्संग एवं कथा - प्रवचन में माया से बचकर ब्रह्म की ओर उन्मुख होने की कथा श्रवण करता है तो वह कहने लगता है कि माया में जन्म लेने के बाद माया से कैसे बचा जा सकता है | ऐसे सभी लोगों को मैं "अाचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि माया में रहकर माया से बचने का यदि उदाहरण देखना है तो कमल के पुष्प को देखा जाय जिसका जन्म माया में होता है अर्थात जल में होता है परंतु वह खिलता है जल के ऊपर जाकर | यही नहीं कमल के पत्तों पर भी जल की एक बूंद भी नहीं ठहर सकती है अर्थात कमल के पत्तों पर जल की बूंदों का कोई प्रभाव नहीं होता है | उसी प्रकार मनुष्य की माया में जन्म लेकर माया से बच सकता है परंतु उसके लिए उसे ब्रह्म की ओर ऊपर उठना पड़ेगा | ऐसा नहीं है कि आज ऐसे पुरुष है ही नहीं जो माया में रहकर भी माया से लिप्त नहीं हुये है | इस संसार में कोई भी कार्य असंभव नहीं है आवश्यकता है उस कार्य को समझ कर उस पर अग्रसर होने की , परंतु आज मनुष्य किसी भी महापुरुष का दिशानिर्देश उनके आदर्शों का अध्ययन तो करता है परंतु उनकी तरह आचरण नहीं कर पा रहा है | यही कारण है कि आज अनेकों प्रकार के सत्संग उपदेश आदि सुनने के बाद भी मनुष्य के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह सारा दोष माया एवं ब्रह्म पर लगाकर स्वयं बचना चाहता है | जिस दिन मनुष्य स्वयं को जानने का प्रयास करके स्वयं को जान लेता है उसी दिन से उसके ऊपर माया का प्रभाव कम होने लगता है , क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं को नहीं जानेगा तब तक वह माया एवं ब्रह्म को भी नहीं जा सकता इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम स्वयं को जानने का प्रयास करना चाहिए |*
*माया भगवान की दासी है | माया के पीछे दौड़ने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि माया को पकड़ने में माया भागती रहती है परंतु यदि भगवान को पकड़ लिया जाय तो माया उसकी दासी हो जाएगी इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ब्रह्म को पकड़ने का प्रयास करना चाहिए |*