*इस धराधाम पर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति बनकर आई मनुष्य | मनुष्य की रचना परमात्मा ने इतनी सूक्ष्मता एवं तल्लीनता से की है कि समस्त भूमण्डल पर उसका कोई जोड़ ही नहीं है | सुंदर मुखमंडल , कार्य करने के लिए हाथ ,
यात्रा करने के लिए पैर , भोजन करने के लिए मुख , देखने के लिए आँखें , सुनने के लिए कान , एवं अफनी अभिव्यक्ति प्रकट करने के जिह्वा तो मनुष्य के साथ प्राय: सभी स्थलीय प्राणियों में है , परंतु मनुष्य को विशेषता प्रदान करने के लिए उस परमपिता ने मनुष्य को "मन" नामक इन्द्रिय का उपहार दे दिया जो कि शायद अन्य प्राणियों में नहीं है और यजि है तो वे व्यक्त नहीं कर पाते हैं | वैसे तो मनुष्य के मन की वृहद व्याख्या प्राचीन से लेकर वर्तमान ग्रंथों , कवियों की कविताओं आदि में की गयी है परंतु मन आखिर है क्या ?? मनुष्य के शरीर में दो हाथ , दो पैर , दो आँखें , दो कान एवं एक मुख है परंतु अकेले मन के पास हजार आँखें , हजार हाथ एवं हजारों पैर होते हैं ! मन के पैरों का आभास मनुष्य को तब होता है जब वह अपने आवास पर बैठे - बैठे ही पूरी दुनिया (मन से) भ्रमण कर लेता है | मनुष्य का कैसा है यह उसकी मानसिकता से परिलक्षित होता है | यदि मनुष्य का मन सात्विक गुणों वाला है तो उसे सब सुंदर ही दिखाई पड़ता है परंतु मनुष्य के मन में तामसी प्रवृत्ति है तो उसे सम्पूर्ण संसार तामसी ही लगेगा | मनुष्य की मानसिकता यदि गंदी हो जाती है तो उसे शुद्ध करने का एक ही साधन है ज्ञानियों का सतसंग | सतसंग के माध्यम से ही मन को मैला करने वाले काम , क्रोधादिक कषायों को तिलांजलि दी जा सकती है |* *आज प्राय: मनुष्य शिकायत करता रहता है कि उसने तीर्थ यात्रायें की , नदियों में स्नान किये , मंदिरों में पूजा की , घर में अनुष्ठान किये परंतु उसका प्रतिफल नहीं प्राप्त हो रहा है | और प्रतिफल प्राप्त होने के अन्य उपायों की खोज में मनुष्य एक नये सद्गुरु की शरण ढूंढने लगता है | ऐसे लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ज्यादा कुछ नहीं बस इतना ही पूंछना चाहूँगा कि हे भैया ! आपने तीर्थ किये , नदियों में मल मलकर शरीर धुले , मंदिरों में जाकर दर्शन करके घरों में अनुष्ठान भी कराये परंतु क्या आपने कभी अपने मन से तीर्थों के दर्शन किये ?? मन के मल को धोने के प्रयास किया ?? क्या कभी मन से किसी सतसंग में गये ?? शायद नहीं ! जिसने भी उपरोक्त कर्म शरीर से न करके मन से किये हैं वह आज के युग में भी सुखी है | आज प्राय: लोग तीर्थ करने कम और
मनोरंजन करने ज्यादा जाते हैं ! मंदिरों में दान देकर ख्याति प्राप्त करना और घरों में अनुष्ठान करवा के स्वयं को धार्मिक दिखाने वाले मनुष्य के मन का मैल नहीं धुल पाया है | मन दर्पण की तरह होता है ! जैसे दर्पण पर धूल जम जाने पर अपना चेहरा नहीं दिखता ठीक उसी प्रकार मन पर काम , क्रोध , मद , लोभ अहंकार रूपी धूल चढ जाती है तो मनुष्य को अपना मूल अस्तित्व भी दिखना बन्द हो जाता है | दर्पण की धूल साफ करने के लिए जिस प्रकार वस्त्र की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार मन की धूल साफ करने के लिए सतसंग रूपी वस्त्र की आवश्यकता होती है |* *आज मनुष्य की गंदी मानसिकता का कारण आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी मूल
संस्कृति को भूल जाना ही प्रमुख है |*