*प्राचीन
भारत की मान्यतायें , मर्यादायें , एवं संस्कृति इतनी सभ्य एवं वृहद थीं कि सम्पूर्ण विश्व भारतीयता के आगे नतमस्तक होता था | हमारे यहाँ एक दूसरे को सम्मान देना एवं अपने बड़ों की बातें सुनकर उस पर मनन करना आदिकाल से चला आया है | जिसने भी इसको न मानने का प्रयास किया है वह संकट में आया अवश्य है | रावण ने हनुमान , अंगद , विभीषण एवं मन्दोदरी का असम्मान करके उनकी बात को अनसुना कर दिया तो परिणाम हुआ उसका विनाश | वहीं दुर्योधन ने विदुर एवं श्री कृष्ण आदि की बात न मानकर कुल संहार का कारक बना | पहले मनुष्य माता - पिता एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए उनके आदर्शों / आदेशों का पालन किया करते थे और नित्य नई सफलताओं की सीढियां चढते जाते थे | नारियां सदैव से हमारे
देश का गौरव रही हैं | वीर नारियों ने युद्धभूमि में रण किया है तो विदुषी नारियों ने शास्त्रार्थादि में विजय पताका फहराती रही हैं | अनेकानेक आभूषणों के होते हुए भी "लज्जा" ही उनका मुख्य आभूषण होता था | लोगों में जितना
ज्ञान व धन बढता जाता था वे उतने ही विनयी बनते जाते थे | "फलदार वृक्ष सदैव झुके हुए ही होते हैं" इस नीति के अनुसार लोगों की सज्जनता झलकती थी | घर के मुखिया का निर्णय सर्वमान्य एवं आदेश अकाट्य होते थे | जिनका पालन करते हुए भारतीय परिवार एवं
समाज उन्नतिशील होकर सम्पूर्ण विश्व में संस्कृति एवं मर्यादा के नित्य नये उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है |* *आज भारत बदल रहा है | हमारी मान्यतायें मर्यादायें एवं संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति के आगे गौण होती जा रही है | आज के लोग सम्मान करना भूलते जा रहे हैं , स्वयं के लिए सम्मान की भूख सबकी आँखों में दिखाई पड़ रही है | लोग स्वयं को ही बुद्धिमान एवं अन्य सभी को मूर्ख ही समझने लगे हैं | माता - पिता एवं गुरुओं का सम्मान मात्र दिखावा बनकर रह गया है | आज के लोग बड़ों की बात मानना ही नहीं चाहते जिसके कारण नित्य नये संकट में पड़ते रहते हैं | आज की नारियां पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सुशिक्षित एवं जागरूक हुई हैं परंतु उन्होने अपने मुख्य आभूषण (लज्जा) को जैसे उतारकर रख दिया है | मैं आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूँ कि गाँव तो अभी कुछ ठीक हैं परंतु महानगरों में ऐसा प्रचलन हो गया है कि जिस नारी के शरीर पर जितने कम कपड़े हों वही सबसे धनाढ्य मानी जाती है | आज मनुष्य का मुख्य लक्ष्य धनार्जन रह गया है , यह धन लोगों के व्यवहार का कारक बनता जा रहा है | मनुष्य के पास जैसे - जैसे धन आता जाता वह झुकना भूलकर अकड़ने लगा है | एक मध्यमवर्गीय जब धनाढ्य हो जाता है तो उसके व्यवहार में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलता है | आज लगभग घरों में मुखिया ही नहीं रह गये हैं , पूरा परिवार मनमाने ढंग से जीवन यापन करने को आतुर है | यही कारण है कि हम विश्वपूज्य नहीं रह गये हैं |* *विचार कीजिए कि हम कहाँ थे और कहाँ आ गये हैं | इन सभी विकृतियों का कीरण कहीं न सहीं से हम स्वयं हैं |*