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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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