तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा।
दीक्षित ने मन में कई वर टटोले। जिसको स्थिर करते उसी के लिए प्रश्न उठता, 'क्या पेशवा इसको पसंद कर लेंगे?' जी उचट जाता। सरदार श्रेणी के ब्राह्मणों में कुछ टीपनाएँ लाकर मिलाईं, पर मेल न खाया।
सोचा, श्रीमंत सरकार गंगाधरराव की जन्म-पत्री मिलाकर देखूँ, शायद टक्कर खा जाए।' टीपना प्राप्त हो गई। मिल गई। परंतु एक असमंजस हुआ, गंगाधरराव की पहली पत्नी का देहांत काफी दिन पहले हो चुका था। वह विधुर थे। विवाह करना चाहते थे। परंतु अपने कठोर स्वभाव के कारण बदनाम थे। भीड़-भगतियों, खसियों इत्यादि के हँसी-मजाक, आमोद-प्रमोद में उनका काफी समय जाता था। नाटकशाला में तो रात का अधिकांश प्रायः बीतता ही था। इसलिए जितना वह करते थे, उससे कहीं अधिक बदनामी फैल गई थी।
नाटकशाला में बहुत रुचि के कारण खास तौर पर वेश्याओं, गायिकाओं और नर्तीकियों के नाटकशाला में नौकर रखते हुए भी स्त्रियों की भूमिका में अभिनय करने की वजह से उनकी झूठी बदनामी बहुत कर दी गई थी। इस पर उनका कठोर बरताव। दीक्षित सोचते थे कि विवाह संबंध स्थापित करने में सफल हो जाऊँ तो सदा याद किया जाऊँगा। मोरोपंत तो हमेशा कृतज्ञ रहेंगे ही, बाजीराव भी मानते रहेंगे, झाँसी राज्य में कितना सम्मान होगा! मनूबाई सुंदर है, रानी बनने योग्य सब गुण उसमें हैं। चपल, चंचल और उद्धत है। मुँहजोर है। किसी और घर में जाएगी तो न खुद सुखी हो सकेगी और न अपने पति को सुखी बना सकेगी। गंगाधरराव की रानी बनने पर चपलता न रह सकेगी। जीवन में संयम आ जाएगा। वह १३-१४ साल की है और गंगाधरराव चालीस से कुछ ऊपर। परंतु उनका स्वास्थ्य अच्छा है। स्वभाव कठोर सही है, लेकिन ऐसी उग्र स्त्री के लिए तो ऐसा ही पति चाहिए। घोड़े की सवारी, तीर-तमंचा, मलखंब और क्या-क्या-यह झाँसी के राज्य में ही मिल सकेगा, और कहीं असंभव है। यह सब सोचकर दीक्षित ने झाँसी के राजा के साथ मनूबाई का विवाह संबंध कराने में किसी प्रकार की भी कसर न लगाने का निश्चय किया। गंगाधरराव के पास गए। एकांत पाकर बोले, 'महाराज से एक निवेदन करने आया हूँ।'
राजा ने कहा, 'कहिए दीक्षितजी।'
दीक्षित- महाराज, रनवास को सूना हुए काफी समय हो गया है। अब।'
राजा-'मैं क्या करूँ? जन्म -पत्री में मेरे इतने तेजस्वी ग्रह हैं कि किसी से मेल ही नहीं खाती। एकाध जगह मिली तो लड़की का भुखमरा पिता चाहता था कि मैं सब काम-धाम छोड़कर बाप-बेटी की पूजा-अर्चना में ही बाकी जीवन बिताऊँ। इससे तो मेरी नाटकशाला ही अच्छी। अप्सराओं के सुंदर अभिनय, सुखलाल के बनाए नए-नए परदे। सुरीला गायन-वादन और सुहावना नृत्य। आपने तो अनेक बार रंगशाला में अभिनय देखे हैं!
दीक्षित-'श्रीमंत सरकार, वंश-परंपरा बनाए रखने के लिए शास्त्रों का विधान अनिवार्य है। प्रजा अपने राजा की बगल में अपना राजकुमार देखने की लालसा रखती है। सरकार का आमोद-प्रमोद भी चलता रह सकता है।'
'हाँ, ठीक है।' कहकर गंगाधरराव सोचने लगे। क॒छ क्षण बाद बोले, 'दीक्षितजी, आप तो काव्य-रसिक हैं। श्रीहर्षदेव रचित रत्नावली नाटिका कितनी कोमल, मधुर, मंजु कल्पना है और मोतीबाई अब भी कितना सुंदर, कितना मनोहर अभिनय करती है।'
दीक्षित ने सोचा, अब खतरे में पड़े। मोतीबाई के प्रति राजा का ऐसा उत्साह देखकर दीक्षित क़ुंठित हुए। धीरज पकड़कर दीक्षित कह गए, 'परंतु सरकार, महल सूना है। उसमें तो दीवाली कोई सजातीय कन्या ही जगमगा सकती है।'
गंगाधरराव की आँखें बड़ी थीं और डोरे लाल। दीक्षित ने डरते-डरते देखा। डोरे कुछ और रक्तिम हो गए।
राजा ने कहा, 'मैं क्या करूँ? सजातीय कन्या को जबरदस्ती पकड़ लूँ?'
दीक्षित ने तुरंत उत्तर दिया, 'नहीं महाराज, मैंने जन्म-पत्रियों की परीक्षा कर ली है, बिलकुल मिल गई हैं। कन्या भी देख आया हूँ। बहुत सुंदर और कुशाग्र बुद्धि है। उसमें रानी होने योग्य समस्त गुण हैं। '
'कहाँ पर?' राजा ने जरा मुसकराकर पूछा।
दीक्षित का साहस बढ़ा। उत्तर दिया, महाराज, वह इस समय बिठूर में है। श्रीमंत पंत प्रधान पेशवा का काम-काज देखने पर कन्या का पिता मोरोपंत तांबे नियुक्त है। पढ़ी-लिखी है और समयोचित सभी गुण उसमें हैं।'
राजा ने प्रश्न किया, 'तांबे कुलीन होते हैं, यह मैं जानता हूँ; लेकिन मोरोपंत भट्ट भिक्षुक तो नहीं हैं?'
दीक्षित ने जवाब दिया, श्रीमंत पेशवा की यज्ञशाला पर एक रामभट्ट गोडसे है। वह मोरोपंत का मित्र है। उसने मोरोपंत की पुत्री को विद्याभ्यास-भर कराया है, इसके सिवाय मोरोपंत का रामभट्ट या किसी भट्ट से कोई संबंध नहीं है।'
गंगाधरराव ने जरा तीखेपन से कहा, 'मैं पूछता हूँ, मोरोपंत भिक्षुक है या नहीं!'
दीक्षित ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'कदापि नहीं सरकार।'
गंगाधरराव ने दूसरा प्रश्न किया, पेशवा और मोरोपंत में कैसा संबंध है?'
दीक्षित- बहुत घनिष्ठ। मित्रों जैसा। कोई नहीं कह सकता कि पेशवा मालिक है और मोरोपंत नौकर। कन्या को पेशवा ने बिलकुल अपनी पुत्री की तरह मान रखा है। मैं स्वयं देख आया हूँ।'
राजा-'वे लोग संबंध को स्वीकार कर रहे हैं?'
दीक्षित-'कर लेंगे। मुझको विश्वास है।'
राजा-'तब सगाई-मँगनी इत्यादि के लिए आपको ही बिठूर जाना पड़ेगा।'
हर्ष के मारे दीक्षित का दिमाग चक्कर खा गया। बोले, 'अवश्य जाऊँगा, सरकार।'
फिर गला भर आया। आँख में एक आँसू।
'यह क्या, दीक्षितजी?' राजा ने मिठास के साथ कहा।
दीक्षित गला संयत करके बोले, 'झाँसी की जनता को यह समाचार बहुत हर्ष देगा, श्रीमंत!'