झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही थी जो 'गृहे शाक्ता: बहिर्शैवा: सभामध्ये च वैष्णवा:' थे। इन सबके संघर्ष में अनेक जातियाँ और उपजातियाँ, जिनको शूद्र समझा जाता था, उन्नति की ओर अग्रसर हो रही थीं। व्यक्तिगत चरित्र का सुधार, घरेलू जीवन को अधिक शांत और सुखी बनाना तथा जातियों की श्रेणी में ऊँचा स्थान पाना-यह उस प्रगति की सहज आकांक्षा थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जनेऊ पहनते हैं-यह उनकी ऊँचाई की निशानी है, जो न पहनता हो वह नीचा। इसलिए उन जातियों के कुछ लोगों ने, जिनके हाथ का छुआ पानी और पूड़ी, मिष्ठान आम तौर पर ऊँची जाति के हिंद् ग्रहण कर सकते थे, जनेऊ पहनने आरंभ कर दिए। उनके इस काम में कुछ बुंदेलखंडी और महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों का समर्थन था। झाँसी नगर में ब्राह्मण काफी संख्या में थे। अकेले महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों के ही तीन सौ घर थे। इन सबका बहुत बड़ा भाग प्रगति के विरुद्ध था।
आंदोलन उठा। शूद्र जनेऊ के अधिकारी नहीं हैं, अधिकांश पंडित इस मत के थे। आंदोलन के पक्ष में एक विद्वान् तांत्रिक नारायण शास्त्री नाम का था। वह श्रृंगार शास्त्र का भी पारंगत समझा जाता था। उसने शिवाजी के प्रसिद्ध अमात्य बालाजी आवजी के पक्ष में दी हुई महापंडित विश्वेश्वर भट्ट (पूरा नाम-ब्राहमदेव विश्वेश्वर भट्ट कलियुग के व्यास। महाराष्ट्र के गंग के नाम से विख्यात) की व्यवस्था को जगह-जगह उद्धृत किया।
यह वाद-विवाद कुछ दिनों अपनी साधारण गति से चलता रहा।
गंगाधरराव के पास भी ख़बर पहुँची। वह तटस्थ से थे और कट्टरपंथियों के नायकों का उन्होंने मजाक भी उड़ाया। पर इससे कट्टरपंथ की धार को जरा और तेजी मिली। घर-घर वाद-विवाद होने लगा-अमुक वर्ग शूद्र है, अमुक सवर्ण। इस बात पर खूब ले-दे मची। घरों के बाहर के चबूतरों पर, बैठकों में, तैबोलियों की दूकानों पर, मंदिरों में, पाठशालाओं में, दावतों-जेवनारों में चर्चा का यही प्रधान विषय। उस समय झाँसी में दो अच्छे कवि थे। एक, हीरालाल व्यास, दूसरे, 'पजनेश'। हीरालाल ने अपना उपनाम 'हृदयेश' रखा था। हृदयेश वैसे उदार विचारों के थे; उस समय के लिहाज से राष्ट्रवादी ।
पजनेश श्रृंगार रस के कवि थे। अन्य जाति की एक सुंदरी रखे हुए थे और नारायण शास्त्री के मित्र थे। दोनों रसिक, इसलिए कट्टरपंथियों के प्रतिकूल थे। पजनेश ने इस विषय पर कुछ छंद भी बनाए, परंतु समय की हवा खिलाफ होने के कारण पजनेश के तर्क-वितर्कवाले थोड़े से छंद बिलकुल पिछड़ गए और हृदयेश का कट्टरपंथी पक्षपात छंदों की बाढ़ में बहने लगा।
दुर्गा लावनीवाली एक वेश्या थी। अच्छी गायिका और विलक्षण नर्तकी। उसने बहुमत का साथ दिया। हृदयेश के छंद गाती और कभी अपनी बनाई हुई लावनियों में उस पक्षपात को चमकाती। नारायण शास्त्री दाँत पीसते और सिरतोड़ परिश्रम अपने पक्ष की पुष्टि के लिए करते। पजनेश ने उस पक्ष के समर्थन में कविता करना बंद कर दिया। हृदयेश को गली-कूचे, हाट-बाजार और मंदिरों में इतना महत्त्व मिलते उन्हें अच्छा नहीं लगा। खासतौर पर दुर्गा सरीखी प्रसिद्ध नर्तकी और सुंदरी द्वारा हृदयेश के बनाए हुए छंदों का गायन। वह नारायण शास्त्री के घर अब और अधिक आने-जाने लगे और अधिक समय तक बैठने लगे। नारायण शास्त्री का शास्त्रोक्त समर्थन सीख-सीखकर वाद-विवाद में पूरी मुँहजोरी के साथ उद्धृत करने लगे। एक दिन उनके एक क्षुब्ध विरोधी ने सब दलीलों का एक जवाब देते हुए तड़ाक से कहा, नारायण शास्त्री, जिसकी तुम बार-बार दुहाई देते हो, ब्राह्मण ही नहीं है।'
पजनेश ने अधिकतम क्षुब्ध स्वर में पूछा, 'क्यों नहीं है?'
उत्तर मिला, 'वह एक भंगिन को रखे हुए है।'
यह अपवाद खुसफुस के रूप में फैला, परंत धीरे- धीरे। कुछ कट्टरपंथियों ने इसको अपना लिया और कुछ ने असंभव कहकर अस्वीकृत कर दिया। पजनेश ने सोचा, 'मैं स्वयं निर्धार करूँगा।'
नारायण शास्त्री ने भी बदनामी सुन ली।