झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री नरसिंहराव वहाँ रह गए। निकट ही परदे के पीछे रानी लक्ष्मीबाई बैठी हुई थीं। राजा ने एक खरीता कंपनी सरकार के नाम लिखवाया। उसका सार यह है-
'बुंदेलखंड में कंपनी सरकार का राज्य स्थापित होने के पहले से हमारे पूर्वज उनकी हर तरह की सहायता करते आए हैं और मैंने स्वयं जीवन-भर उनकी सहायता की है। मेरे घराने के साथ कंपनी सरकार की जो संधियाँ समय-समय पर हुई हैं उनसे हमारा हक बराबर पुष्ट होता चला आया है। मैं इस समय रोगग्रस्त हूँ। अच्छे होने की आशा है और यह भी आशा है कि स्वस्थ होने पर मेरे संतान हो, परंतु यह सोचकर कि कदाचित् मेरा देहांत हो जाए और बिना उत्तराधिकारी के यह राज्य नष्ट हो जाए, अपने कुटुंब के एक पंचवर्षीय बालक आनंदराव को हिंदू-धर्म शास्त्र के अनुसार गोद लिया है। वह नाते में मेरा पौत्र लगता है। यदि मैं स्वस्थ न हो सका और मेरा देहांत हो गया तो यही बालक, जिसका नाम गोद के उपरांत दामोदरराव रखा गया है, झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी होगा। जब तक मेरी पत्नी जीवित रहे, तब तक वह इस राज्य की स्वामिनी और इस बालक की माता समझी जाए और राज्य की व्यवस्था उसी के अधीन रहे। मैं चाहता हूँ कि उसको किसी प्रकार का कष्ट न हो।'
राजा ने खरीता अपने हाथ से एलिस के हाथ में दिया। राजा का गला रुद्ध हो गया और आँखों में आँसू भर आए। परदे के पीछे रानी की सिसक सुनाई पड़ी मानो उस खरीते पर इस सिसक की मुहर लगी हो। गले को किसी तरह काबू में करके राजा ने एलिस से कहा, 'आपको मैं अपना मित्र मानता हूँ। बड़े साहब मालकम भी मेरे मित्र हैं। गार्डन जैसे मेरा छोटा भाई हो...'
राजा के हृदय में पीड़ा हुई। वे रुक गए। एलिस ध्यानपूर्वक राजा की बातें सुनने लगा।
राजा बोले, 'इस समय गार्डन मेरे पास होता तो मुझको बड़ी खुशी होती।' और मुसकराए।
पीड़ा-कंपित होंठों पर वह अर्द्धस्मित किसी असह्य कष्ट को जोर के साथ दबा गया।
'गार्डन का हुक्का दीवाने-खास में रखा हुआ है, पिओ तो मँगवाऊँ।'
'नहीं सरकार।'
'देखो मेजर साहब, दामोदरराव कितना सुंदर है। यह बड़ा होनहार है। मेरी रानीसी माता को पाकर झाँसी को चमका देगा। मेरी झाँसी को ये दोनों बड़ा भारी नाम देंगे।"
परदे के पीछे फिर सिसकी सुनाई दी। एलिस ने आँख के एक कोने से उस ओर देखकर मुँह फेर लिया।
राजा ने परदे की ओर मुँह फेरकर रुद्ध स्वर में मुश्किल से कहा, 'यह क्या है? रोती हो? मैं अच्छा हो रहा हूँ। पर मुझे अपनी बात तो कह लेने दो।'
रानी ने धीरे से खाँसकर कंठ संयत किया।
राजा स्थिर होकर बोले,'मेजर साहब, हमारी रानी स्त्री जरूर है परंतु इसमें ऐसे गुण हैं कि संसार के बड़े-बड़े मर्द इसके पैरों की धूल अपने माथे पर चढ़ाएँगे।'
बहुत प्रयत्न करने पर भी राजा अपने आँसुओं को न रोक सके।
एलिस ने कहा, 'महाराज, थोड़ी बात करें, नहीं तो तबीयत देर में अच्छी हो पाएगी।'
रानी ने जरा जोर से खाँसा, मानो राजा को निवारण कर रही हों।
दुर्बल हाथों से राजा ने आँसू पोंछे। गले को नियंत्रित किया।
बोले, 'रानी बहुत अच्छी व्यवस्था करेगी। आप लोग दामोदरराव की नाबालिगी के कारण परेशान मत होना।'
राजा के हृदय में पीड़ा बढ़ी।
किसी प्रकार उसको काबू में करके उन्होंने कहा, 'मुझे झाँसी के लोग बहुत प्यारे हैं। मैं चाहता हूँ, मेरी जनता सुखी रहे। मैंने जिसको जो कुछ दिया है, वह सब उसके पास बना रहना चाहिए। मुगलखाँ बहुत बड़ा गवैया है, मेजर साहब।'
एलिस ने सोचा, गंगाधरराव का दिमाग फिरने को है। जरा चिंतित हुआ।
राजा बोले, 'उसको मैंने इनाम में हाथी दिया है। वह उसी के पास रहेगा, और हाथी के व्यय के लिए मैंने जो कुछ लगा दिया है, वह भी उसी के पास रहना चाहिए।'
इसके उपरांत राजा को खाँसी आई और साथ ही रक्त। प्रतापसाह वैद्य बाहर मौजूद था। बुला लिया गया। दवा दी गई। राजा को कुछ चैन मिला। पर वे जान गए कि यह क्षणिक है।
बोले, 'एलिस साहब, ये हमारे वैद्यजी बड़े हठी हैं। अपना एक अलग नगर बसा रहे हैं। मैंने अनुमति दे दी है। इनके हठ को कोई तोड़े नहीं।'
वैद्य की आँखों में भी एक आँसू आ गया। उसको वैद्य ने किसी बहाने पोंछ डाला। वैद्य बाहर चला गया।
राजा के होंठों पर एक क्षीण मुसकराहट फिर आई।
'मैं चाहता हूँ कि मेरी नाटकशाला में चाहे खेल हों या न हों, परंतु पात्रों के लिए जो वेतन खजाने से दिया जाता है, वह उनको मिलता रहे।'
राजा फिर खाँसे। अब की बार ज्यादा खून आया। वैद्य फिर भीतर आया। उसने आज्ञा के स्वर में प्रतिवाद किया, 'महाराज, अब बिलकुल न बोलें।'
राजा ने तुरंत कहा, 'थोड़ा-सा और, फिर बस। तुम्हारी और तुम्हारी दवा की कोई जरूरत न रहेगी।'
राजा की आकृति बिगड़ी। सब लोग चिंतित और भयभीत हुए। राजा बहुत कष्ट के साथ बोले, 'मेजर साहब, एक अंतिम प्रार्थना-बस एक-झाँसी अनाथ न होने पावे।'
कराहने लगे, आँखें फिरने लगीं।
कप्तान मार्टिन एक ओर चुप बैठा हुआ था। उसने एलिस को चल देने का संकेत किया। एलिस उठना ही चाहता था कि राजा बोले, 'चित्रकार सुखलाल, हृदयेश कवि...'
एलिस उठा। उसने प्रणाम करके राजा से कहा, 'सरकार, हम लोग जाते हैं। समाचार मिलते ही तुरंत हाजिर होंगे।'
राजा ने आँखें स्थिर की। कहा, 'मेजर साहब, भूलना मत। हमको आपका भरोसा है। हमारी प्रार्थना को ध्यान में रखना। लाट साहब को मेरी विनती...'
इसके बाद वे नहीं बोल सके और बेसुध हो गए।
एलिस और मार्टिन चले गए।
लक्ष्मीबाई तुरंत परदे से बाहर निकल आई। पति की उस दशा को देखकर चीत्कार कर उठीं। मोरोपंत ने दामोदरराव को बुलवा लिया। नाना भोपटकर लेकर आए। रानी को सांत्वना मिली।