सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया।
विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर से उत्साह प्रदर्शन कर रहे थे।
कोठी कुआँवाले भवन में भाँवर पड़ने को थीं। बाहर गायन-वादन और नृत्य हो रहा था। सामनेवाले मकान में मोतीबाई, जूहीबाई, इत्यादि अभिनेत्रियाँ झरपों के पीछे वस्त्राभूषणों और पुष्पों से लदी बैठी थीं। बाहर दुर्गाबाई का नृत्य और उस काल के प्रसिद्ध धुरपदिए मुगलखाँ का गायन अभ्यंतर के साथ हो रहा था। मुगलखाँ के ध्रुवपद अलाप इत्यादि पर अनेक लोग 'वाह-वाह कर रहे थे; परंतु जनता दुर्गाबाई के नृत्य के लिए बार-बार अकुला उठती थी। इसलिए मुगल ने अपना तैंबूरा रख दिया और दुर्गाबाई को खड़े होने का इशारा किया। राजा विजय बहादुरसिंह महफिल में मसनद पर बैठे थे। उन्हें ऊँचे दर्जे के गायन और नृत्य दोनों का व्यसन था। दुर्गाबाई नृत्य करने को खड़ी होने को ही थी कि भीतर से इत्रपान का सामान आया। सोने के वर्कों से लिपटे पान और बढ़िया इत्र। पान लानेवाले एक सरदार थे। उन्होंने कहा कि भाँवर शुरू हो गईं। उसी समय भीतर एक घटना हुई।
प्रोहित ने मनूबाई की गाँठ गंगाधरराव से जोड़ने के लिए वर की चादर और वधू की साड़ी के छोर हाथ में पकड़े। वृद्धावस्था के कारण हाथ काँप रहा था। गाँठ लगने में जरा-सा विलंब हुआ। गाँठ अच्छी तरह नहीं लग पा रही थी। बार-बार हाथ काँप जाता था।
मनू ने सोचा, मैं ही क्यों न इसको बाँध दूँ?
परंतु उसने विचार को नियंत्रित कर लिया। गाँठ तो पुरोहित ने बाँध ली लेकिन वह काँपते हुए हाथों से गाँठ का फंदा कसने में कुछ क्षणों का विलंब कर रहे थे। मनू से न रहा गया। बिना मुसकराहट के और दृढ़ स्वर में बोली, 'ऐसी बाँधिए कि कभी छूटे नहीं।'
गंगाधरराव सिकुड़ गए। मोरोपंत मन-ही- मन क्षुब्ध हुए। होंठ सिकोड़ लिए। परंतु पुरोहित खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसके पास खड़े सब स्त्री-पुरुष हँस पड़े। कहकहे लग गए। मनू पुलकित हो गई। आँखें नीची करके उसने थोड़ा-सा मुसकरा-भर दिया। इस कहकहे की आवाज बाहर पहुँची और मनू की कही हुई बात भी। वहाँ भी कहकहे लगे। चारों ओर उस वाक्य की चर्चा हो उठी।
सामनेवाले मकान में भी समाचार पहुँचा। जूही ने, जो अब यौवनावस्था में लहराने को थी, कहा, 'मैं तो नाचना चाहती हूँ। ऐसे अवसर पर चुपचाप बैठे थक गई हूँ। इतनी खुशी के समय भी न नाचें तो कब नाचेंगे?'
मोतीबाई में बाहरी गंभीरता आ गई भी परंतु मन आहलाद में फ्दक रहा था। बोली, 'नाचो, कोई हर्ज नहीं। मैं भी नाचना चाहती हूँ परंतु घुंघर बाँधकर नहीं। बाहर बड़े-बड़े राजे-महाराजे बैठे हैं। शोर-गुल सुनेंगे तो क्या कहेंगे?'
जूही बोली, 'तबला-घुँघरू हमको कुछ नहीं चाहिए, शोर-गुल न होगा। इस पर भी महाराज अगर कुछ कहेंगे तो मैं भुगत लुँगी। आखिर नाटक होगा ही। हम लोग रंगशाला में नाचें और गावेंगे ही। राजे-महाराजे नाटकशाला में पास से सब कुछ देखेंगे ही। मैं नहीं मानूँगी।'
उन दोनों ने मनमाना नृत्य किया और नर्तकियों ने ताल दिया, परंतु मीठी थपकी से।
बाहर मुगलखां खड़ा हो गया। बोला, 'वाह! जैसा राज्य है, वैसी ही महारानी हमको मिली। दिल चाहता है कि मैं नाचूँ, परंतु कभी सीखा नहीं, इसलिए मजबूर हूँ!' और उसकी आँखों में आँसू आ गए। बैठ गया।
दुर्गाबाई खड़ी हो गई। बोली, 'उस्ताद, यह काम मेरा है। मैं दिल और पैर दोनों से नाचूँगी। आप अकेले दिल से, खेलिए या नाचिए।' और उसने सिर नीचा कर लिया।
विजय बहादुर प्रसन्न हुए। स्वभाव से ही जरा सनकी थे। इस समय सनक कुछ तीव्रतर हो गई। बोले, 'दुर्गा, खूब अच्छी तरह नाचो, इनाम मिलेगा।'
'बहुत अच्छा सरकार। ' कहकर दुर्गा पुरे उत्साह के साथ गाने और नाचने लगी। मुगलखाँ को इसका गाना खटक रहा था। परंतु उसके मन की इस चोट को दुर्गा का नृत्य सँभाल ले गया।
थोड़ी देर में भाँवर की रस्म पूरी हो गई। अन्य रस्मों के पूरा होने पर गंगाधरराव वर की सजधज में पाँवड़ों पर, फलों और चावलों की बरसा में, बाहर आए! सबने ताजीम दी। गाना-बजाना थोड़ी देर के लिए बंद हो गया। गंगाधरराव एक ऊँची मसनद पर जा बैठे और इधर-उधर बारीकी के साथ देखने लगे कि मनू के उस वाक्य का असर भद्देपन की किस हद तक हुआ है। उनकी आँख कहीं जम नहीं रही थी। आँखों के लाल डोरों में, रौब की जगह संकोच ने पकड़ ली थी।
वहाँ के उपस्थित लोगों के जी में वही वाक्य बार-बार और जोर-जोर के साथ चक्कर काट रहा था। आँखें सबकी गंगाधरराव के दूल्हा वेश पर जा रही थीं और मन के मना करने पर आँखें उसी वाक्य को दुहरा रही थीं।
उस मकान की झरप के भीतर का नृत्य बंद हो गया था। उन अभिनेत्रियों की आँखों पर भी वही वाक्य सवार था।
जूही ने धीरे से मोतीबाई से कहा, 'असली राजा तो झाँसी को अब मिला, बाईजी।'
मोतीबाई ने आँखें तरेरकर जूही का हाथ दबाया, राजा सुनेंगे तो गरदन काटकर फिकवा देंगे। खबरदार!'
'मैंने तो आपसे कहा,'जूही बोली, आपके हाथ जोड़ती हूँ, किसी को मेरी बात मालूम न होने पावे।'
फिर ये सब झरपों के पास खड़ी होकर, जो कुछ दूसरी ओर हो रहा था, देखने-सुनने लगीं।
गंगाधरराव विजय बहादुर से बोले, 'आपने मुगलखाँ का ध्रुवपद सुना ?'
विजय बहादुर ने कहा, 'पहले भी सुना है। इनकी होरी भी सुनी है। परंतु दुर्गा का नाच मुझको बहुत भाया।
मुगलखां की आँख बदल पड़ी परंतु उसने सिर नीचा कर लिया। गंगाधरराव ने देख लिया। वे बोले, मुगलखाँ ताव खाने पर बहुत अच्छा गाता है। अब सुनिएगा! इसके धुवपद का मुकाबला कहीं है ही नहीं। नृत्य अपनी जगह अच्छा है परंतु मुगलखाँ का ध्रुवपद राजा है और दुर्गा का नाच उसका चाकर।'
मुगल हर्ष के मारे फूल गया। आँखों में आँसू छलक आए। उनको जल्दी पोंछकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला, 'श्रीमंत सरकार का हुक्म हो तो लखनऊवाली बात सुना दूँ।'
मनू के उस वाक्य से गंगाधरराव को छुटकारा नहीं मिल रहा था। उनको विश्वास था कि उपस्थित लोग भी उसमें उसी प्रकार उलझे होंगे। प्रतिघात से उमंग की एक लहर उठी और उन्होंने मुगलखाँ से कहा, 'महाराज साहब को जरूर सुनाओ और फिर गाओ। बैठकर सुनाओ।
मुगलखाँ की बात सुनने के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया।
मुगलखाँ ने कहा, 'सरकार, मैं गाने के लिए लखनऊ गया। वहाँ के गवैयों ने सलाह कर ली कि मैं नवाब साहब के सामने पहुँच ही न पाऊँ। इसलिए उन्होंने कहा, पहले हमको सुनाओ। समझेंगे कि उस्ताद हो, तो नवाब साहब के सामने पेश कर देंगे। वरना अपने वनखंड को वापस जाना। मैं अपने देश के कपड़े पहने था। पहले तो उनका मजाक उड़ाया गया, बुंदेलखंडी है। क्या ऊल-जलूल साफा बाँधे है! जूते आपके माशेअल्लाह। दाढ़ी बुंदेलखंड के रीछों जैसी! बातचीत जंगलियों-सी! बरताव ठीक भेड़ियों का! इत्यादि सुनते-सुनते कलेजा पक गया। फिर मैंने गाया। जो कुछ गाने के बाद हुआ, उसको मैं कह नहीं सकता।'
गंगाधरराव उत्साह के साथ बोले, 'मैं बतलाता हूँ महाराज साहब। जब उस्ताद ने आठों अंग सहित ध्रुवपद सुनाया तब सच्चे स्वरों की वर्षा हो उठी, निंदा करनेवाले उसमें बह गए। उस्ताद के उन लोगों ने पैर छुए और इनको नवाब साहब के सामने पेश किया। नवाज साहब स्वयं संगीत के जड़े जानकार हैं। उस्ताद को काफी इनाम दिया। बुंदेलखंड को उन्होंने जी खोलकर सराहा।'
फिर मुगलखाँ ने तल्लीन होकर गाया। लगभग सारी जनता मुग्ध हो गई। राजा विजय बहादुर इस अवसर पर पुरस्कार बाँटने के लिए अपने साथ काफी रुपया लाए थे। सनक तो सवार थी ही, बख्शी से बोले, 'मुगलखाँ के साफे में जितने रुपए आवें, दे दो, तबलेवाले के तबलों में चाहे फोड़कर चाहे वैसे ही भर दो। सारंगीवालों की सारंगी में रुपया ठूँस दो। दुर्गा जितना बोझ बाँध ले उतना बाँध लेने दो।'
इस आज्ञा के सुनते ही अनेक वाद्यवाले खड़े हो गए। इनमें से एक शहनाईवाला भी था। उसकी शहनाई में बहुत थोड़े रुपए जा सकते थे। इसलिए गुस्से में आकर उसने शहनाई तोड़ डाली। बोला, 'सरकार, ऐसा बाजा किस काम का जो रुपए का मेल न खा सके।'
राजा विजय बहादुर ने उसकी शहनाई को सोने से भरने का आदेश किया।
उस युग की प्रथा के अनुसार उस दिन सबको कुछ-न-कुछ दिया गया। रात को नाटक हुआ। बहुत अच्छा। विजय बहादुर ने नाटकशाला से संबंध रखनेवाले सब लोगों को काफी इनाम दिया।
विवाह की समाप्ति पर दरबार हुआ। नजर-न्योछावरें हुईं। पुरस्कार बाँटे गए। बड़े-बड़े सरदारों की नजर-न्योछावरों के उपरांत छोटे जागीरदारों की बारी आई। मऊ का एक जागीरदार अपने को आनंदराय कहते हुए आगे बढ़ा। राजा थकावट के मारे खीझ उठे थे। आनंदराय ने अपने कुटुंब और अपनी सेवा का बखान करते हुए रामचंद्रराववाली घटना का वर्णन भी शुरू कर दिया।
राजा खिसिया उठे। बोले, 'मैं भी स्मरण किए हूँ। तुम्हारी दास्तान पर यहाँ कोई काव्य या रायसा नहीं लिखा जानेवाला है। नजर करने के बाद अपनी जगह जा बैठो। तुमको जो मिलना होगा, मिल जावेगा।'
आनंदराय नजर-न्योछावर करके एक कोने में सिमट गया। अवस्था अधेड़ हो गई थी परंतु शरीर अब भी बलिष्ठ था। अपने को अपमानित हुआ समझकर बार-बार उसाँस ले रहा था और छाती फुला रहा था। वह एक निश्चय पर पहुँचा। जैसे ही राजा के सामने जरा भीड़-भाड़ देखी, वहाँ से खिसक गया।
राजा के कर्मचारी नजर-न्योछावरों का ब्योरा भेंट करनेवालों के नाम-पते सहित लिखते जा रहे थे। भेंट करनेवालों को पलटे में पुरस्कार भी बाँटने थे, इसलिए; और, हिसाब रखने के लिए भी।
जब पुरस्कार बाँटते-बाँटते आनंदराय की बारी आई तब वह गैरहाजिर था। दरबार के निकट ही रनवास के लिए झरपें लगी थीं। रानी भी वहाँ बैठी थीं।
'कहाँ चला गया आनंदराय?' राजा ने पूछा।
थोड़ी-सी तलाश करने के बाद वह नहीं मिला। फिर और लोगों की हाजिरी होती रही।
इस रस्म की समाप्ति पर वहाँ के सब लोगों ने जयजयकार किया।
'महाराजा गंगाधरराव की जय।'
'महारानी लक्ष्मीबाई की जय।'
विवाह के उपरांत ससुराल में आने पर मनू का नाम उसी दिन महाराष्ट्र और बुंदेलखंड की प्रथा के अनुसार लक्ष्मीबाई रखा गया था।
दरबार की समाप्ति के कुछ समय उपरांत रानी लक्ष्मीबाई (अब मनू नहीं कहा जावेगा) किले के महल के अपने कक्ष में सुंदर, मुंदर और काशी के साथ थीं। उनको अपनी सब सहचरियों में ये तीन सबसे अधिक प्यारी लग उठी थीं।
रानी ने कहा, 'आज एक बात अच्छी नहीं हुई। आनंदराय नाम के उस जागीरदार की अवहेलना की गई।'
मुंदर बोली, 'सरकार को कैसे नाम याद रह गया? और इतने हल्ले-गुल्ले और भीड़-भाड़ की ध्वनियों में यह घटना कैसे स्मरण रही?'
रानी ने कहा, 'मैंने देख लिया है कि बुंदेलबंड पानीदार देश है। इस पानी को बनाए रखने की हमको जरूरत है। उस आदमी का पानी उतारा गया-यह बुरा हुआ।'
काशी बोली, 'छोटे-छोटे से आदमियों का महाराज कहाँ तक लिहाज करें? थक भी तो बहुत गए आज। सुना है, नाटकशाला भी नहीं जाएँगे।'
रानी ने कहा, 'जिन्हें तुम छोटा आदमी कहती हो, आधार तो हमारे वे ही हैं।'