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(भाग 15)

16 मई 2022

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया।

विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर से उत्साह प्रदर्शन कर रहे थे।

कोठी कुआँवाले भवन में भाँवर पड़ने को थीं। बाहर गायन-वादन और नृत्य हो रहा था। सामनेवाले मकान में मोतीबाई, जूहीबाई, इत्यादि अभिनेत्रियाँ झरपों के पीछे वस्त्राभूषणों और पुष्पों से लदी बैठी थीं। बाहर दुर्गाबाई का नृत्य और उस काल के प्रसिद्ध धुरपदिए मुगलखाँ का गायन अभ्यंतर के साथ हो रहा था। मुगलखाँ के ध्रुवपद अलाप इत्यादि पर अनेक लोग 'वाह-वाह कर रहे थे; परंतु जनता दुर्गाबाई के नृत्य के लिए बार-बार अकुला उठती थी। इसलिए मुगल ने अपना तैंबूरा रख दिया और दुर्गाबाई को खड़े होने का इशारा किया। राजा विजय बहादुरसिंह महफिल में मसनद पर बैठे थे। उन्हें ऊँचे दर्जे के गायन और नृत्य दोनों का व्यसन था। दुर्गाबाई नृत्य करने को खड़ी होने को ही थी कि भीतर से इत्रपान का सामान आया। सोने के वर्कों से लिपटे पान और बढ़िया इत्र। पान लानेवाले एक सरदार थे। उन्होंने कहा कि भाँवर शुरू हो गईं। उसी समय भीतर एक घटना हुई।

प्रोहित ने मनूबाई की गाँठ गंगाधरराव से जोड़ने के लिए वर की चादर और वधू की साड़ी के छोर हाथ में पकड़े। वृद्धावस्था के कारण हाथ काँप रहा था। गाँठ लगने में जरा-सा विलंब हुआ। गाँठ अच्छी तरह नहीं लग पा रही थी। बार-बार हाथ काँप जाता था।

मनू ने सोचा, मैं ही क्‍यों न इसको बाँध दूँ?

परंतु उसने विचार को नियंत्रित कर लिया। गाँठ तो पुरोहित ने बाँध ली लेकिन वह काँपते हुए हाथों से गाँठ का फंदा कसने में कुछ क्षणों का विलंब कर रहे थे। मनू से न रहा गया। बिना मुसकराहट के और दृढ़ स्वर में बोली, 'ऐसी बाँधिए कि कभी छूटे नहीं।'

गंगाधरराव सिकुड़ गए। मोरोपंत मन-ही- मन क्षुब्ध हुए। होंठ सिकोड़ लिए। परंतु पुरोहित खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसके पास खड़े सब स्त्री-पुरुष हँस पड़े। कहकहे लग गए। मनू पुलकित हो गई। आँखें नीची करके उसने थोड़ा-सा मुसकरा-भर दिया। इस कहकहे की आवाज बाहर पहुँची और मनू की कही हुई बात भी। वहाँ भी कहकहे लगे। चारों ओर उस वाक्य की चर्चा हो उठी।

सामनेवाले मकान में भी समाचार पहुँचा। जूही ने, जो अब यौवनावस्था में लहराने को थी, कहा, 'मैं तो नाचना चाहती हूँ। ऐसे अवसर पर चुपचाप बैठे थक गई हूँ। इतनी खुशी के समय भी न नाचें तो कब नाचेंगे?'

मोतीबाई में बाहरी गंभीरता आ गई भी परंतु मन आहलाद में फ्दक रहा था। बोली, 'नाचो, कोई हर्ज नहीं। मैं भी नाचना चाहती हूँ परंतु घुंघर बाँधकर नहीं। बाहर बड़े-बड़े राजे-महाराजे बैठे हैं। शोर-गुल सुनेंगे तो क्या कहेंगे?'

जूही बोली, 'तबला-घुँघरू हमको कुछ नहीं चाहिए, शोर-गुल न होगा। इस पर भी महाराज अगर कुछ कहेंगे तो मैं भुगत लुँगी। आखिर नाटक होगा ही। हम लोग रंगशाला में नाचें और गावेंगे ही। राजे-महाराजे नाटकशाला में पास से सब कुछ देखेंगे ही। मैं नहीं मानूँगी।'

उन दोनों ने मनमाना नृत्य किया और नर्तकियों ने ताल दिया, परंतु मीठी थपकी से।

बाहर मुगलखां खड़ा हो गया। बोला, 'वाह! जैसा राज्य है, वैसी ही महारानी हमको मिली। दिल चाहता है कि मैं नाचूँ, परंतु कभी सीखा नहीं, इसलिए मजबूर हूँ!' और उसकी आँखों में आँसू आ गए। बैठ गया।

दुर्गाबाई खड़ी हो गई। बोली, 'उस्ताद, यह काम मेरा है। मैं दिल और पैर दोनों से नाचूँगी। आप अकेले दिल से, खेलिए या नाचिए।' और उसने सिर नीचा कर लिया।

विजय बहादुर प्रसन्‍न हुए। स्वभाव से ही जरा सनकी थे। इस समय सनक कुछ तीव्रतर हो गई। बोले, 'दुर्गा, खूब अच्छी तरह नाचो, इनाम मिलेगा।'

'बहुत अच्छा सरकार। ' कहकर दुर्गा पुरे उत्साह के साथ गाने और नाचने लगी। मुगलखाँ को इसका गाना खटक रहा था। परंतु उसके मन की इस चोट को दुर्गा का नृत्य सँभाल ले गया।

थोड़ी देर में भाँवर की रस्म पूरी हो गई। अन्य रस्मों के पूरा होने पर गंगाधरराव वर की सजधज में पाँवड़ों पर, फलों और चावलों की बरसा में, बाहर आए! सबने ताजीम दी। गाना-बजाना थोड़ी देर के लिए बंद हो गया। गंगाधरराव एक ऊँची मसनद पर जा बैठे और इधर-उधर बारीकी के साथ देखने लगे कि मनू के उस वाक्य का असर भद्देपन की किस हद तक हुआ है। उनकी आँख कहीं जम नहीं रही थी। आँखों के लाल डोरों में, रौब की जगह संकोच ने पकड़ ली थी।

वहाँ के उपस्थित लोगों के जी में वही वाक्य बार-बार और जोर-जोर के साथ चक्कर काट रहा था। आँखें सबकी गंगाधरराव के दूल्हा वेश पर जा रही थीं और मन के मना करने पर आँखें उसी वाक्य को दुहरा रही थीं।

उस मकान की झरप के भीतर का नृत्य बंद हो गया था। उन अभिनेत्रियों की आँखों पर भी वही वाक्य सवार था।

जूही ने धीरे से मोतीबाई से कहा, 'असली राजा तो झाँसी को अब मिला, बाईजी।'

मोतीबाई ने आँखें तरेरकर जूही का हाथ दबाया, राजा सुनेंगे तो गरदन काटकर फिकवा देंगे। खबरदार!'

'मैंने तो आपसे कहा,'जूही बोली, आपके हाथ जोड़ती हूँ, किसी को मेरी बात मालूम न होने पावे।'

फिर ये सब झरपों के पास खड़ी होकर, जो कुछ दूसरी ओर हो रहा था, देखने-सुनने लगीं।

गंगाधरराव विजय बहादुर से बोले, 'आपने मुगलखाँ का ध्रुवपद सुना ?'

विजय बहादुर ने कहा, 'पहले भी सुना है। इनकी होरी भी सुनी है। परंतु दुर्गा का नाच मुझको बहुत भाया।

मुगलखां की आँख बदल पड़ी परंतु उसने सिर नीचा कर लिया। गंगाधरराव ने देख लिया। वे बोले, मुगलखाँ ताव खाने पर बहुत अच्छा गाता है। अब सुनिएगा! इसके धुवपद का मुकाबला कहीं है ही नहीं। नृत्य अपनी जगह अच्छा है परंतु मुगलखाँ का ध्रुवपद राजा है और दुर्गा का नाच उसका चाकर।'

मुगल हर्ष के मारे फूल गया। आँखों में आँसू छलक आए। उनको जल्दी पोंछकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला, 'श्रीमंत सरकार का हुक्म हो तो लखनऊवाली बात सुना दूँ।'

मनू के उस वाक्य से गंगाधरराव को छुटकारा नहीं मिल रहा था। उनको विश्वास था कि उपस्थित लोग भी उसमें उसी प्रकार उलझे होंगे। प्रतिघात से उमंग की एक लहर उठी और उन्होंने मुगलखाँ से कहा, 'महाराज साहब को जरूर सुनाओ और फिर गाओ। बैठकर सुनाओ।

मुगलखाँ की बात सुनने के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया।

मुगलखाँ ने कहा, 'सरकार, मैं गाने के लिए लखनऊ गया। वहाँ के गवैयों ने सलाह कर ली कि मैं नवाब साहब के सामने पहुँच ही न पाऊँ। इसलिए उन्होंने कहा, पहले हमको सुनाओ। समझेंगे कि उस्ताद हो, तो नवाब साहब के सामने पेश कर देंगे। वरना अपने वनखंड को वापस जाना। मैं अपने देश के कपड़े पहने था। पहले तो उनका मजाक उड़ाया गया, बुंदेलखंडी है। क्या ऊल-जलूल साफा बाँधे है! जूते आपके माशेअल्लाह। दाढ़ी बुंदेलखंड के रीछों जैसी! बातचीत जंगलियों-सी! बरताव ठीक भेड़ियों का! इत्यादि सुनते-सुनते कलेजा पक गया। फिर मैंने गाया। जो कुछ गाने के बाद हुआ, उसको मैं कह नहीं सकता।'

गंगाधरराव उत्साह के साथ बोले, 'मैं बतलाता हूँ महाराज साहब। जब उस्ताद ने आठों अंग सहित ध्रुवपद सुनाया तब सच्चे स्वरों की वर्षा हो उठी, निंदा करनेवाले उसमें बह गए। उस्ताद के उन लोगों ने पैर छुए और इनको नवाब साहब के सामने पेश किया। नवाज साहब स्वयं संगीत के जड़े जानकार हैं। उस्ताद को काफी इनाम दिया। बुंदेलखंड को उन्होंने जी खोलकर सराहा।'

फिर मुगलखाँ ने तल्लीन होकर गाया। लगभग सारी जनता मुग्ध हो गई। राजा विजय बहादुर इस अवसर पर पुरस्कार बाँटने के लिए अपने साथ काफी रुपया लाए थे। सनक तो सवार थी ही, बख्शी से बोले, 'मुगलखाँ के साफे में जितने रुपए आवें, दे दो, तबलेवाले के तबलों में चाहे फोड़कर चाहे वैसे ही भर दो। सारंगीवालों की सारंगी में रुपया ठूँस दो। दुर्गा जितना बोझ बाँध ले उतना बाँध लेने दो।'

इस आज्ञा के सुनते ही अनेक वाद्यवाले खड़े हो गए। इनमें से एक शहनाईवाला भी था। उसकी शहनाई में बहुत थोड़े रुपए जा सकते थे। इसलिए गुस्से में आकर उसने शहनाई तोड़ डाली। बोला, 'सरकार, ऐसा बाजा किस काम का जो रुपए का मेल न खा सके।'

राजा विजय बहादुर ने उसकी शहनाई को सोने से भरने का आदेश किया।

उस युग की प्रथा के अनुसार उस दिन सबको कुछ-न-कुछ दिया गया। रात को नाटक हुआ। बहुत अच्छा। विजय बहादुर ने नाटकशाला से संबंध रखनेवाले सब लोगों को काफी इनाम दिया।

विवाह की समाप्ति पर दरबार हुआ। नजर-न्योछावरें हुईं। पुरस्कार बाँटे गए। बड़े-बड़े सरदारों की नजर-न्योछावरों के उपरांत छोटे जागीरदारों की बारी आई। मऊ का एक जागीरदार अपने को आनंदराय कहते हुए आगे बढ़ा। राजा थकावट के मारे खीझ उठे थे। आनंदराय ने अपने कुटुंब और अपनी सेवा का बखान करते हुए रामचंद्रराववाली घटना का वर्णन भी शुरू कर दिया।

राजा खिसिया उठे। बोले, 'मैं भी स्मरण किए हूँ। तुम्हारी दास्तान पर यहाँ कोई काव्य या रायसा नहीं लिखा जानेवाला है। नजर करने के बाद अपनी जगह जा बैठो। तुमको जो मिलना होगा, मिल जावेगा।'

आनंदराय नजर-न्योछावर करके एक कोने में सिमट गया। अवस्था अधेड़ हो गई थी परंतु शरीर अब भी बलिष्ठ था। अपने को अपमानित हुआ समझकर बार-बार उसाँस ले रहा था और छाती फुला रहा था। वह एक निश्चय पर पहुँचा। जैसे ही राजा के सामने जरा भीड़-भाड़ देखी, वहाँ से खिसक गया।

राजा के कर्मचारी नजर-न्योछावरों का ब्योरा भेंट करनेवालों के नाम-पते सहित लिखते जा रहे थे। भेंट करनेवालों को पलटे में पुरस्कार भी बाँटने थे, इसलिए; और, हिसाब रखने के लिए भी।

जब पुरस्कार बाँटते-बाँटते आनंदराय की बारी आई तब वह गैरहाजिर था। दरबार के निकट ही रनवास के लिए झरपें लगी थीं। रानी भी वहाँ बैठी थीं।

'कहाँ चला गया आनंदराय?' राजा ने पूछा।

थोड़ी-सी तलाश करने के बाद वह नहीं मिला। फिर और लोगों की हाजिरी होती रही।

इस रस्म की समाप्ति पर वहाँ के सब लोगों ने जयजयकार किया।

'महाराजा गंगाधरराव की जय।'

'महारानी लक्ष्मीबाई की जय।'

विवाह के उपरांत ससुराल में आने पर मनू का नाम उसी दिन महाराष्ट्र और बुंदेलखंड की प्रथा के अनुसार लक्ष्मीबाई रखा गया था।

दरबार की समाप्ति के कुछ समय उपरांत रानी लक्ष्मीबाई (अब मनू नहीं कहा जावेगा) किले के महल के अपने कक्ष में सुंदर, मुंदर और काशी के साथ थीं। उनको अपनी सब सहचरियों में ये तीन सबसे अधिक प्यारी लग उठी थीं।

रानी ने कहा, 'आज एक बात अच्छी नहीं हुई। आनंदराय नाम के उस जागीरदार की अवहेलना की गई।'

मुंदर बोली, 'सरकार को कैसे नाम याद रह गया? और इतने हल्ले-गुल्ले और भीड़-भाड़ की ध्वनियों में यह घटना कैसे स्मरण रही?'

रानी ने कहा, 'मैंने देख लिया है कि बुंदेलबंड पानीदार देश है। इस पानी को बनाए रखने की हमको जरूरत है। उस आदमी का पानी उतारा गया-यह बुरा हुआ।'

काशी बोली, 'छोटे-छोटे से आदमियों का महाराज कहाँ तक लिहाज करें? थक भी तो बहुत गए आज। सुना है, नाटकशाला भी नहीं जाएँगे।'

रानी ने कहा, 'जिन्हें तुम छोटा आदमी कहती हो, आधार तो हमारे वे ही हैं।'

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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