जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे, परंतु जिनका भीतरी जीवन बाहरी छल से भिन्ने था-जो जीवन के काँटों पर, गूलाब की सेजों पर, अंगूरी की या महुए की-मोझक सिंचाई से मीठा बना-बनाकर हर घड़ी को मौजों में बाँट-बाँटकर चल रहे थे-उन्होंने नारायण शास्त्री की सबसे ज्यादा बुराई की। पाखंडी है, पाजी है, धर्मद्रोही, राक्षस है, इत्यादि और उसको कम-से-कम प्राणदंड मिलना चाहिए। और छोटी को? उसके टुकड़े -टुकड़े करके सियारों को खिला देना चाहिए, क्योंकि उसी ने तो एक विद्वान् ब्राह्मण को पतित किया! इतनी बड़ी बात विलंब से राजा के पास पहुँचे, यह असंभव था। राजा ने जब सुना, कभी हँसी आती थी और कभी उनको क्षोभ-संताप होता था।
छोटी और नारायण शास्त्री बुलाए गए। मालूम होता था जैसे शास्त्री कुछ घंटों में ही बूढ़े हो गए हों। छोटी चिंतित थी परंतु उसके पैर जम-जमकर किले की ओर गए थे। जब वह गंगाधरराव के सामने पहुँची, तब उसको पसीना जरूर आ गया था।
इस मामले का निर्धार सुनने के लिए भी तात्या टोपे गया।
नारायण शास्त्री को उस वीभत्स में डूबा देखकर राजा को बड़े जोर की हँसी आने को हुई। उन्होंने कठोरता के साथ अपना दुस्सह संयम किया। पूछताछ शुरू की।
राजा-'यह क्या हुआ शास्त्री?'
शास्त्री-'जो होना था हो गया सरकार।'
राजा-'कैसे हुआ?'
शास्त्री- 'क्या कहूँ श्रीमंत।'
राजा-'बतलाना तो पड़ेगा। न बतलाने से ज्यादा नुकसान होगा।'
शास्त्री-'क्या बतलाऊँ महाराज?'
राजा-'यह कैसे हुआ?'
शास्त्री-'तप और संयम के अतिरेक से। जब शरीर ने ताड़ना न सह पाई तब जो- जो कुछ उसके सामने आया, ग्रहण कर लिया।'
राजा-'तुमको तो लोग बहुत दिन से शृंगार शास्त्री कहते हैं।'
शास्त्री-'वह तो उपकरण मात्र था।'
राजा-'सुनता हूँ, कोकशास्त्र का भी अध्ययन किया है।'
शास्त्री-'हाँ सरकार।'
राजा-'क्यों?'
शास्त्री-'उस शास्त्र में अपने संबंध के प्रसंग ढुँढ़ने के लिए और यह जानने के लिए कि इसमें ऐसा क्या है, जिसने महर्षि वात्स्यायन से कामसूत्र की रचना करवाई।'
राजा-'क्या पाया?'
शास्त्री-'प्रकृति के साथ जीवन की टक्कर।'
राजा-'आगे क्या पाओगे?'
शास्त्री-'यह मेरे हाथ में नहीं है, सरकार।'
राजा-'तब किसके हाथ में है?'
शास्त्री-'सरकार के।'
राजा ने थोड़ी देर सोचा। उपस्थित लोगों पर दृष्टि घुमाई। छोटी की विनम्र आँखों को देखा। बड़े पलक और बड़ी बरौनियाँ। फिर अपने ब्राह्मणत्व का ध्यान किया। बोले, 'इस लड़की को तुरंत झाँसी का राज्य छोड़ना पड़ेगा। इसके लिए देश-निकाले का दंड काफी है। तुमको...'
छोटी ने तुरंत दृढ़ स्वर में टोका, 'श्रीमंत सरकार, शास्त्री महाराज का कोई कसूर नहीं है। मैं इनके पीछे पड़ गई, इसलिए इनका पतन हुआ। मेरे दंड को बढ़ाकर इनके दंड की कमी को पूरा कर लीजिए। मैं सिर कटवाने के लिए तैयार हूँ।'
राजा को रत्नावली नाटक का एक दृश्य प्रासंगिक न होने पर भी याद आ गया, रत्नावली को भगवान् ने आत्मवध से बचाया था।
राजा बोले, ठहर जा लड़की। शास्त्री! तुमको विधिवत् प्रायश्चित करना पड़ेगा। पंचगव्य इत्यादि। '
शास्त्री-'और इसको देश-निकाला होगा?'
राजा-'हाँ।'
नतमस्तक अपराधी का सिर ऊँचा हुआ। जैसे कीचड़ में से कमल फूट पड़ा हो। बोला, सरकार, मैं प्रायश्चित नहीं करूँगा। मैंने कोई पाप नहीं किया है। यदि मुझको प्रायश्चित की आज्ञा दी जाती है तो पहले लगभग आधे शहर को पंचगव्य लेना पड़ेगा।'
'क्यों?' राजा ने विस्मय के साथ पूछा।
शास्त्री ने छोटी से आग्रह किया, 'बतला दे सरकार को।'
छोटी ने अपने वस्त्रों में से मिट्टी की दो डबुलियाँ निकालीं और उनमें से जनेऊ।
राजा ने उत्सुक होकर प्रश्न किया, 'यह क्या है छोकरी?'
नीची गरदन किए, बिना आँख मिलाए छोटी ने उत्तर दिया, 'बड़ी जातों के जिन-जिन लोगों ने मुझको फाँसने की कोशिश की, उन सबके मैंने जनेऊ उतरवाए और इन डबुलियों में इकट्ठे किए।'
सुननेवाले सन्नाटे में आ गए। राजा जरा असमंजस में पड़े। फिर यकायक हँसकर शास्त्री से बोले, 'तुमने इस स्त्री को केवल अपना तन ही दिया या मन भी ?'
शास्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। छोटी कुछ कहना चाहती थी परंतु राजा ने उसको हाथ के संकेत से वर्जित करके शास्त्री से फिर प्रश्न किया, 'तुम इस स्त्री को भ्रष्ट समझते हो या नहीं?'
शास्त्री के मुँह से यकायक निकला, 'नहीं सरकार।'
गंगाधरराव कुछ क्षण विचार-विमरन रहे। फिर गंभीर स्वर में बोले, 'इस स्त्री के साथ और किसी का भी संसर्ग नहीं है, मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ। इन यज्ञोपवीतों की कहानी तुम्हारी ही गढ़ंत जान पड़ती है। मैं सूत के इन डोरों को छूना नहीं चाहता। यदि परीक्षा करूँ तो पुरानों में ब्रह्मगाँठ लगी होगी और नए बिना किसी गाँठ के होंगे। ये सब तुम्हीं ने इसको दिए होंगे।'
शास्त्री पसीने में तर हो गए।
राजा कहते गए, 'तुम समझते होगे कि तुम्हारे सिवाय सब मूर्ख हैं। तुमको अवश्य कठोर दंड देता, परंतु तुमको दंड देने से इस अभागिन का दंडभार बढ़ जाएगा।'
छोटी रोने लगी। 'मैं भुगतने को तैयार हूँ।'
राजा ने रुखे स्वर में शास्त्री से कहा, तुम प्रायश्चित पंचगव्य के लिए तैयार नहीं हो, इसलिए तुमको भी झाँसी तुरंत छोड़नी पड़ेगी।'
शास्त्री प्रसन्न हुए। बोले 'बड़ा अनुग्रह हुआ। मैं इसी के साथ झाँसी छोड़ देने को तैयार हूँ।'
वे दोनों चले गए।
राजा ने तात्या टोपे की ओर देखा। वह बिलकल संतुष्ट जान पड़ता था।
राजा ने सोचा, बहुत सस्ता छूटा यह। वह लड़की छोटी जाति की होने पर भी इस ब्राह्मण से बड़ी है। देश-निकाला दे दिया, काफी है। बिठूर के लोग भी इसी निर्धार से संतुष्ट होंगे। अधिक कड़ा दंड देने से झाँसी के बाहर बदनामी ज्यादा होती। फिर अंग्रेज-अंग्रेज-।
फिर और आगे उन्होंने नहीं सोच पाया।
छोटी और शास्त्री दूसरे दिन झाँसी छोड़कर चले गए।