राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नहीं कर सकते थे, यह भी उनको मालूम था। जनता की स्त्रियाँ मुँह उघाड़े फिरें, चाहे घूँघट डाले फिरें, इस विषय में उनकी उपेक्षा थी। परंतु अपने महल में काफी परदा बरतने के दृढ़ पक्षपाती थे।
इसलिए लक्ष्मीबाई किले के बाहर घोड़े पर नहीं जा सकती थीं।
किले में भी उनकी स्वतंत्रता पर काफी बंधन था। तीर्थयात्रा से लौटने पर किले-भीतरवाले महल के मैदान के चारों ओर ऊँची-ऊँची कनातें लगवा दी गईं, जिससे उनको घोड़े की सवारी इत्यादि में बहुत अड़चन होने लगी। मलखंब और कुश्ती का प्रबंध उनको अपने कक्ष के भीतर ही मोटे और नरम कालीनों की पर्तों पर करना पड़ा। उन्होंने अभ्यास छोड़ा नहीं। गंगाधरराव ने उनकी सहेलियों को बदलने का प्रयत्न किया, परंतु सुंदर, मुंदर और काशीबाई को वे नहीं हटा सके।
अन्तर्द्वन्द्व के कारण गंगाधरराव के मन में क्रोध की मात्रा बढ़ गई और अपराधियों को दंड देने के लिए बिलकुल नए-नए साधन काम में लाने लगे।
मृच्छकटिक नाटक के खेल का दिन आया। मोतीबाई ने वसंतसेना का अभिनय किया और जूही ने उसकी सखी का। राजा ने उस दिन नाटकशाला को खूब सजवाया। कप्तान गार्डन भी निमंत्रित हुआ। खेल अच्छा हुआ। नृत्य, गायन, अभिनय सभी की गार्डन ने प्रशंसा की।
खेल की समाप्ति पर गार्डन के मुँह से निकल पड़ा, 'महाराजा साहब, एक बात समझ में नहीं आती। आपकी संस्कृति में वेश्याओं को इतने आदर का स्थान क्यों दिया गया है?'
राजा ने हँसकर उत्तर दिया, 'क्योंकि हमारे पुरखे बहुत समझदार थे।'
गार्डन को अपने देश के क्रामवैल के समय का कठमुल्लावाद (puritanism) और उसके तुरंत ही बाद का चार्ल्स द्वितीय के समय का मनमौज-वाद याद आ गया। बोला, 'नहीं महाराज, कुछ और बात है। असल में हिंदुस्थान कई बातों में बहुत गिरा हुआ है।'
गंगाधरराव ने कहा, 'फिर कभी बात करूँगा।'
गार्डन चलने को हुआ कि राजा ने एक कोने में खुदाबख्श को देख लिया। तूरंत अपने अंगरक्षक से पूछा, 'यह कौन है?'
उसने उत्तर दिया, 'खुदाबख्श।'
'यहाँ कैसे आया?' राजा ने प्रश्न किया।
अंगरक्षक उत्तर नहीं दे पाया। खुदाबख्श ने समझ लिया। और वह तुरंत भीड़ में विलीन होकर निकल गया।
गार्डन ने पूछा, 'क्या बात है महाराज साहब?'
राजा ने कहा, 'कुछ नहीं, यों ही। एक आदमी को आज बहुत दिनों के बाद नाटकशाला में देखा है।'
गार्डन चला गया। राजा ने नाटकशाला के प्रहरी को कैद में डलवा दिया और सवेरे पेश किए जाने की आज्ञा दी।
खुदाबख्श को बहतेरा ढुँढ़वाया, परंतु पता नहीं लगा।
दूसरे दिन मोतीबाई नाटकशाला से बरखास्त कर दी गई। नाटकशाला के पात्रों को कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। वे लोग आशा कर रहे थे कि इतना अच्छा अभिनय इत्यादि करने के उपलक्ष्य में बधाई और पुरस्कार मिलेंगे, परंतु हुआ उलटा। उनकी सबसे अच्छी अभिनेत्री निकाल दी गई। झाँसी में जिन लोगों ने मोतीबाई के नृत्य को देखा था अथवा उसका गायन सुना था, सब क्षुब्ध थे।
सवेरे नाटकशाला के प्रहरी की पेशी हुई। राजा ने स्वयं मुकद्दमा सुना।
राजा ने खिसियाकर पूछा, क्यों रे नमकहराम, यह खुदाबख्श नाटकशाला में कैसे आ गया?'
उसने घिघियाकर उत्तर दिया, 'श्रीमंत सरकार, मैं भूल गया। मुझको याद नहीं रहा।'
'तू यह भूल गया कि मैं उसको देश-निकाला दे चुका हूँ?' राजा ने कड़ककर कहा।
प्रहरी अत्यंत विनीत भाव से बोला, 'इस बात को श्रीमंत सरकार, बहुत दिन हो गए, इसलिए मुझको सुध नहीं रही और सरकार ने उस दिन तीर्थयात्रा से लौटने की खुशी में बहुत लोगों को माफी बख्शी, सो मैंने सोचा कि खुदाबख्श को माफी मिल गई होगी।'
इस उत्तर से राजा का क्रोध घटा नहीं, जरा और बढ़ गया। रोते हुए प्रहरी को सजा दी गई बिच्छू से डँसवाने की।
गंगाधरराव ने एक विशेष वर्ग के अपराधों के लिए बिच्छू से कटवाने का विधान कर रखा था। कट्ठे में पैरों का डालना-भाँजना एक साधारण बात थी। गहन अपराधों में हाथ-पाँव कटवा डालने की जनसम्मत प्रथा जारी थी। परंतु दबे-दबे और थोड़ी-थोड़ी। दहकते अंगारों से डाकुओं के अंग जलवाना इस विधान में शामिल था, परंतु बिच्छुओं से कटवाना जन-वृत्ति की सहन-शक्ति से बाहर हो गया था।
बिच्छू से कई जगह कटवाए जाने के कारण प्रहरी बेहद संतप्त हुआ। अंत में बेहोश हो गया। राजा समझे मर गया तब उनका क्रोध ठंडा पड़ा। प्रहरी वहाँ से हटवा दिया गया।