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(भाग 19)

16 मई 2022

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदेश-प्रेमी और भारतवर्ष को घृणा या अवहेलना की वृत्ति से देखनेवाला! परंतु भारतवर्ष के राजाओं को सहलाने-फुसलाने की क्रिया का अभ्यासी-अपने कर्तव्य के पालन में दृढ़।

राजा से मिलने गार्डन कभी घोड़े पर और कभी तामझाम में बैठकर आता था। . नवाबों को दबाते-दबाते थोड़ी नवाबी भी अंग्रेजों में आ गई थी। हुकका, सुरा, रंडियों का नाच, होली-फाग, दशहरा, दीवाली, ईद, उत्सव इत्यादि नवाबों, राजाओं और जनता में हेलमेल बनाए रखने के लिए बरते जाते थे। परंतु वे उनमें दूध-पानी नहीं हुए थे-उनकी सतर्क दृष्टि इंग्लैंड की ओर बराबर मुड़ी रहती थी।

राजा ने और मनोरंजन समक्ष न देखकर, एक दिन गार्डन को बुलवाया। वह तामझाम में नगरवाले महल पर आया। वहाँ से राजा उसको किलेवाले महल पर ले गए। राजा अपने तामझाम में बैठे। उत्तरी फाटक से जाना चाहते थे। बड़ी हथसार (इसी हथसार की जगह अब सदर अस्पताल है।) के नीचे से मार्ग था। एक हाथी पागल हो गया। इन तामझामों की ओर दौड़ा! वाहकों ने तामझाम कंधों पर से उतार दिए। परंतु भागे नहीं। उनकी कमर में तलवारें थीं। म्यानों से बाहर निकाल लीं। गार्डन के पास कोई हथियार न था। वह हक्का-बक्का-सा इन मजदूरों के पास आ गया। राजा के पास तलवार थी। उन्होंने नहीं छुई। तामझाम से बाहर निकलकर, दौड़ते हुए प्रमत्त हाथी को, अपनी ओर आती हुई गति को देखने लगे।

गार्डन ने कहा, 'बचो।'

मजदूरों ने कहा, 'बचो।'

राजा के मूँह से भी निकला, 'बचो।'

परंतु तलवारें उस मस्त हाथी की गति का विरोध नहीं कर सकती थीं।

इतने में एक ओर से बरछा लिए एक सिपाही हाथी पर दौड़ पड़ा और उसने बरछे के प्रहार से हाथी की प्रगति को लौटा दिया।

राजा को उस सिपाही ने प्रणाम किया।

राजा ने नाम पूछा।

उसने बतलाया, 'इमामअली। काजी हूँ सरकार, और साँटमारी भी करता हूँ।'

राजा ने कहा, 'शाबाश काजी। इनाम मिलेगा।'

इमामअली बोला, 'सरकार के चरणों में बना रहूँ और बाल-बच्चों का पालन-पोषण होता जावे, यही सेवक के लिए गनीमत है।'

राजा ने पारितोषक में कुछ जमीन लगाने की घोषणा की और वह गार्डन के साथ किले के महल में चले गए।

जब दोनों दीवानखाने में बैठ गए तब भी गार्डन के मन में वह हाथीवाली घटना झूल रही थी।

वह बोला, सरकार, इनाम रुपए की शकल में दिया जाना चाहिए। इस तरह भूमि लगाते चले जाने से राज्य में चप्पा-भर भी न बचेगी!'

राजा ने कहा 'तब झाँसी राज्य में बहादुर ही बहादुर नजर आवेंगे।'

गार्डन को इस असंगत उत्तर से संतोष नहीं हुआ। बोला, इस देश में जो देखता हूँ सब अति के दर्जे पर। थोड़े-से बहुत धनवान और बहुत-से निर्धन। बिरला ही अत्यंत धर्मनिष्ठ, और बहुत से कीड़ों-मकोड़ों से ज्यादा सड़ी जिदगी बितानेवाले! किसी को जमीनें और जागीरें छोटे-बड़े सब तरह के कामों के लिए, और बहुतेरों को हलके-से-हलके अपराधों के लिए अंगहीन करने की सजा! बिच्छुओं से कटवाने का दंड!

राजा का चेहरा तमतमा गया। परंतु उन्होंने अपने को संयत करके कहा, 'जब जैसा अपराध और अपराधी सामने आवे, वैसा उसको दंड देना चाहिए।'

गार्डन ने भाँप लिया कि राजा ने अपने उठे हुए क्रोध को भीतर-का-भीतर ही धसा दिया है। बोला, 'सरकार को शायद मालूम होगा, हमारे यहाँ के एक बहुत बड़े विद्वान्‌ ने हिंदुस्थान-भर के लिए एक ही दंड-विधान (लार्ड मैकाले का इंडियन पीनल कोड (भारतीय दंड विधान)।) प्रस्तुत कर दिया है। वह बहुत विशद्‌ और न्यायपूर्ण है। जितने दंड रखे गए हैं, कोई भी अमानुषिक नहीं।

'क्या रियासतों में भी उस विधान को जारी किया जावेगा?'

गार्डन ने तत्काल उत्तर दिया, 'नहीं सरकार। रियासतों को अपना निज का प्रबंध अपनी व्यवस्था के अनुसार करने का अधिकार है।'

राजा एक क्षण सोचकर बोले, 'हमारी संधियों में यह अधिकार सुरक्षित है।'

संधि के शब्द पर गार्डन के मन में तुरंत खटपटी उठी, परंतु उसने खुशामद के ढंग को अधिक अच्छा समझकर कहा, परंतु सरकार, हमारे सम्राट और भारत के गर्वनर-जनरल को उस दिन बहुत अचछा लगेगा, जब सब रियासतों में एक ही प्रकार का न्याय, एक ही कानून और एक ही तरह की अदालतों की स्थापना हो जाए। इसमें सरकार का कोई हर्ज भी नहीं है, नरेशों का बोझ भी बहुत हलका हो जाएगा। और जनता ज्यादा चैन की साँस लेने लग जाएगी।'

राजा ने प्रश्न किया, 'आपके राजाधिराज को भी बहुत अधिकार होंगे?'

गार्डन असमंजस में पड़ गया। परंतु उससे अपने को उबारकर बोला, 'हमारे राजाधिराज ने अपना अधिकार पंचायत को दे दिया है। वह पंचायत कानून बनाती है। शासन करती है।'

राजा-'पंचायतें तो हमारे यहाँ गाँव-गाँव में हैं। इन पंचायतों के फैसले को रद्द करने की कोई भी राजा बात नहीं सोचता। ये पंचायतें अपने-अपने गाँव का सभी तरह का प्रबंध भी करती हैं। हमारे कर्मचारी उसमें कोई दखल नहीं देते। केवल बड़े-बड़े मामले मुकद्दमे मेरे सामने आते हैं। उनको नाना भोपटकर शास्त्री की सलाह से निबटाता हूँ।'

गार्डन-'इसमें, सरकार, सहूलियत होने पर भी तरतीब, नियम-संयम जाब्ते-कायदे की कमी है और अन्याय होने की ज्यादा गुंजाइश है।'

राजा- 'आपके देश में क्या पंचायत नहीं है?'

गार्डन-'युग बीत गए, जब थीं। उनका रूप बदल गया है। न्यायाधीश को सम्मति देने और मामले का निर्धार न्याय कराने में पंचायत सहयोग देती हैं। इस पंचायत के सहयोग के बिना मुकद्दमा नहीं होता।'

राजा-'हमारे देश की पंचायतें तो इससे भी बढ़कर समर्थ हैं। राज्य लौट-पौट जाते हैं; परंत्‌ पंचायतें रहती हैं।'

गार्डन को हिंदुस्थानी पंचायतों का यह वर्णन बहुत खटका।

अपने क्षोभ को थोड़ा दबाकर उसने कहा, 'अपढ़-कुपढ़ लोगों की पंचायतों के ढंग मैले-कुचैले ही हो सकते हैं, सरकार। अदालतों की सफाई और निखार को पंचायतें कैसे पा सकती हैं?'

'बंगाल, मदरास में आपकी अदालतें पंचायतों के सहयोग से न्याय-निर्णय करती हैं या यों ही?' राजा ने प्रश्न किया।

गार्डन का मन जरा सिटपिटाया। परंतु उसने बेधड़की से हठ के साथ उत्तर दिया, 'पंचायतों की मदद तो नहीं ली जाती है, परंतु हिंदू-मुसलमानों के दीवानी झगड़ों को सुलझाने के लिए पंडितों और मौलवियों की सलाह ली जाती है। अपराधों के मामले अदालत के अफसर स्वयं ही निर्धार करते हैं।'

'स्वयं!' राजा ने आश्चर्य के साथ कहा, 'स्वयं! सो कैसे ?'

गार्डन ने जवाब दिया, 'गवाही और वकीलों की मदद से।'

राजा ने पूछा, 'हर अदालत में एक-एक वकील रहता होगा?'

गार्डन को राजा की सिधाई पर मन में हँसी आई। उत्तर दिया, 'नहीं तो सरकार। वादी-प्रतिवादी अपने-अपने गवाह वकीलों द्वारा पेश करते हैं। वकील लोग कानून जानते हैं। वे अपने कानूनी ज्ञान द्वारा अदालत की सहायता, ठीक निर्णय पर पहुँचने में, करते हैं! यह हमारे देश की संस्था है।'

राजा को हँसी आ रही थी। होंठों तक आई परंतु उन्होंने उसको प्रकट नहीं होने दिया। बोले, 'वकील क्‍या गवाहों को पेश करने का काम मुफ्त में करते हैं?'

गार्डन ने अभिमान के साथ कहा, 'हमारे देश में पहले वकील लोग मुफ्त में यह काम करते थे, परंतु अब पारिश्रमिक लेने लगे हैं। और इस देश में तो वे लोग करारी रकमें लेते हैं।'

'तब कहीं लोग न्याय प्राप्त करने की आशा कर पाते हैं,' राजा खूब हँसकर बोले, 'भाड़े के लोगों को बढ़ाने की यह संस्था आप लोग इस देश में किस प्रयोजन से ले आए?'

हिंदुस्थान के प्रति गार्डन के भीतरी मन में दबी हुई घृणा उभर पड़ी । बोला, 'आपके देश की न्याय-प्रणाली की विषमता मुझको भी मालूम है। उसी अपराध के लिए ब्राह्मण पर एक रुपया दंड, ठाकुर पर पचास, बनिए पर पाँच सौ और गरीब शूद्र का हाथ-पैर कट! सरकार, कानून सबके लिए एक-सा होना चाहिए।'

राजा को इस तर्क ने जरा जोर दिया। परंतु उनको एक व्यंग्य सुझा। बोले, 'इस कानून जाब्ते के द्वारा आपके इलाकों में जनता को न्याय कितने समय में मिल जाता है?'

गार्डन ने शीघ्र उत्तर दिया, 'अपराधवाले मामलों में दो-एक महीने लग जाते हैं और दीवानी मामलों में एकाध साल।'

राजा फिर हँसे। कहा, 'हमारे यहाँ तो तुरंत न्याय होता है। मैं तो दो-एक दिन से ज्यादा नहीं लगाता। दीवानी और अपराधी मामलों का कोई भेद नहीं करता। पंचायतों के निर्णय को सर्वमान्य मानता हूँ। आपके इलाकों में यदि पुलिस की गफलत या लापरवाही से चोरी इत्यादि हो जावे तो आप पुलिस को कोई दंड देते हैं?'

'हाँ सरकार, गार्डन ने उत्तर दिया, 'बरखास्त कर देते हैं, तनज्जुल कर देते हैं।'

राजा ने उत्तेजित होकर कहा, 'इससे जनता का क्या लाभ होता होगा? मैं तो ऐसे मामलों में गफलत करनेवाली पुलिस से चोरी का नुकसान भरवाता हूँ।'

गार्डन बोला, 'तब जनता पर पुलिस की धाक नहीं रह सकती। लोग उसकी बिलकुल परवाह नहीं करते होंगे। ऐसा शासन बहुत दिनों नहीं टिक सकता, सरकार।'

राजा और भी उत्तेजित हुए। उन्होंने कहा, 'साहब, जनता पर मेरी धाक होनी चाहिए, न कि मेरे अफसरों की। वह राज्य भी बहुत समय तक नहीं टिक सकता जो कर्मचारियों और पुलिस की धाक पर आश्रित हो। मैं तो अपने अपराधी कर्मचारियों को लोहे की मछली के कोड़े से ठोकता हूँ।'

गार्डन खिसिया गया। बोला, 'सरकार, अनियमित सत्ता बहुत बुरी चीज है। इस परिपाटी के माननेवाले चाहे जो कुछ मनमाना कर बैठते हैं। आपने बनारस में एक बिचारे राजेंद्र बाबू को अकारण पिटवा दिया। हमारे पॉलिटिकल विभाग को जवाब देते मुसीबत आई।'

राजा को बनारसवाली घटना की स्मृति के साथ-साथ यह भी याद आ गया कि इसी पॉलिटिकल विभाग की इजाजत मिलने पर झाँसी राज्य के बाहर कदम रख पाया था।

'अशिष्टता को दंडित करने में मैं कभी नहीं चूकता,' राजा ने कहा, 'फिर चाहे मैं कहीं होऊँ- अपने राज्य में होऊँ चाहे राज्य के बाहर।' उसी समय उनको खुदाबख्श और उसके संबंधवाला प्रसंग याद आ गया।

गार्डन को भी वही प्रसंग याद आया। बोला, 'यह नहीं हो सकता, चाहे कोई भी राजा या नवाब हो, गवर्नर जनरल साहब किसी को इस तरह का उद्दंड व्यवहार नहीं करने देंगे। आपका गौरव रखने के लिए ही बनारसवाले उस पीड़ित को वैसा जवाब दिया गया था, आगे ऐसा न हो सकेगा।'

गंगाधरराव के हृदय में शिवराव भाऊ का खून खलबला उठा। कुछ क्षण चुप रहे। बिजली की कौंध के समान दो-एक उत्तर मन में उठे, परंतु उनको वे क्रोध के कारण प्रकट न कर सके।

अंत में वे केवल यह कह पाए, 'साहब, मैं तो एक छोटा-सा संस्थापक हूँ। तो भी चाहूँ तो बहुत कुछ कर सकता हूँ। लेकिन सभी राजाओं ने चूड़ियाँ पहन रखी हैं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि अपने ही देश में हम कैद हैं। सवा सौ वर्ष पहले की बात याद कीजिए। आप लोगों की क्या शान थी, जब दिल्ली के बादशाह और पूना के पंत प्रधान के दरबार में साष्टांग प्रणाम कर-करके अर्जियाँ पेश करते थे।'

राजा थर्राहट के मारे कांप उठे। गार्डन की व्यापार-कुशल बुद्धि तुरंत सजग हुई।

उसने मिन्नत-सी करते हुए कहा, 'सरकार बुरा न मानें। मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। मैंने जो कुछ निवेदन किया, वह गवर्नर जनरल और कंपनी सरकार की नीति का आभास मात्र है। पंचायतों के बनाए रखने के ही विषय को लीजिए। अनेक अंग्रेज अफसर उनको सुरक्षित रखना चाहते हैं, परंतु अधिकांश मत कानून और जाब्ते के बेलन द्वारा हिदुस्थान की सारी समतल और ऊबड़-खाबड़ संस्थाओं को चौरस कर डालने के पक्ष में हैं। मेरे ऊपर सरकार की वही कृपा बनी रहे जो सदा से चली आई है।'

गार्डन का यह भी खयाल था कि यदि राजा ने इस विवाद की सूचना कुछ बढ़ाकर गवर्नर जनरल के पास भेज दी तो अवश्य और नाहक डाँट-फटकार पड़ेगी।

राजा ठंडे पड़ गए। गार्डन के तामझाम से उसका हुक्‍का मँगवाया गया। उसने पिया। फिर राजा ने उसको पान दिया। वह पान खाकर चला गया।

रानी के पास इस विवाद का सारांश पहुँच गया।

बड़ी प्रसन्‍न हुई।

अपनी सब सहेलियों के सामने कहा, 'आज मैं जितनी खुश हूँ उतनी कदाचित्‌ ही पहले कभी हुई होऊँ। मुझको शिवराव भाऊ की बहू होने का बहुत घमंड है। मुझको अपने राजा का, अपनी झाँसी का अभिमान है। मन को केवल एक कसर खटक रही है-मुझसे और उस गार्डन से बात हुई होती तो मैं ऐसी करकरी सुनाती कि उसको अपने पुरखे याद आ जाते। मुझको दादा पेशवा ने बतलाया है कि सौ-सवा सौ वर्ष पहले इस अंग्रेज कौम ने हमारे देश में किन-किन उपायों से क्या-क्या किया । मेरा बस चले तो...।'

रानी ने दाँत पीसे और विशाल नेत्र तरेरे।

काशीबाई ने धीरे से कहा, 'सरकार ने कहा था कि बिठूर से बाला गुरु को कुश्ती सीखने के लिए बुलाया जावेगा।'

रानी ने तत्क्षण अपनी सहज मुसकराहट पा ली। बोलीं, 'हाँ री, उनको शीघ्र बुलाऊँगी।'

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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(भाग 22)

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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(भाग 23)

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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(भाग 24)

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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(भाग 27)

16 मई 2022
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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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(भाग 28)

16 मई 2022
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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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