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(भाग 14)

16 मई 2022

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गईं। राजा गंगाधरराव घोड़े पर बैठकर गणेश मंदिर गए। उस दिन मनूबाई ने पहले-पहल गंगाघरराव को देखा। गंगाधरराव का मुख-सौंदर्य अब भी वैसा ही था। आँखों का तेज लाल डोरों के कारण आकर्षक कम, भयानक ज्यादा मालूम होता था। पेट कुछ बढ़ा हुआ परंतु भद्दा नहीं लगता था। रंग साँवलापन लिए हुए। सारी देह एक बलवान पुरुष की।

मनू का ध्यान शरीर के इन अंगों पर एकाध क्षण ठहरकर उनके सवारी के ढंग पर जा अटका। वह मुसकराई। अपनी सम्मति प्रकट करने के लिए आस-पास लड़कियों में किसी उपयुक्त पात्र को मन-ही-मन ढूँढ़ने लगी। उस समय मनू ने सोचा, यदि इस घड़ी नाना या राव यहाँ होते तो उनको सब बातें सुनाती-समझाती।

राजा गंगाधरराव धीरे-धीरे, रुकते-रुकते गणेश मंदिर को जा रहे थे। नगर के निवासी प्रणाम करते जाते थे और वे मुसकरा-मुसकराकर प्रणाम का जवाब देते जाते थे।

यकायक मनू के सामने एक मराठा-कन्या आई। आयु १५ से कुछ ऊपर। शरीर छरहरा, रंग हलका-साँवला, चेहरा जरा लंबा, आँखें बड़ी, नाक सीधी, ललाट प्रशस्त और उजला। जैसे ही वह मनू के पास आई, उसने आँखें नीची करके आदरपूर्ण प्रणाम किया। मनू को ऐसा लगा मानो पहले से परिचित हो। उससे बात करने की तुरंत इच्छा उमड़ी।

बोली, 'तुम कौन हो?'

उसने उत्तर दिया, 'आपकी दासी, सुंदर मेरा नाम है।'

मनू-'मेरी दासी! कैसी?'

सुंदर-'आप हमारी महारानी हैं। मैं सेवा में रहँगी। आपकी दासी होकर अपना भाग्य बढ़ाऊँगी।'

मनू-'मेरी दासी कोई न हो सकेगी। मेरी सहेली होकर रहोगी।' मनू ने उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। वह झिझकी। मनू ने उसका हाथ ढीला करके पूछा, तुम क्या सचमुच सदा मेरे पास रहोगी?'

'सदा, सरकार। सुंदर ने उत्तर दिया, 'हम सोलह दासियाँ आपकी सेवा में रहा करेंगी।'

मनू को हँसी आई परंतु उसने रोक ली। गंगाधरराव की सवारी अब भी सामने थी। मनू ने धीरे से सुंदर से कहा, 'तुम घोड़े पर चढ़ना जानती हो?'

सुंदर बोली, 'थोड़ा-सा। दौड़ना खूब जानती हूँ। कोस-भर दौड़ जाऊँगी और हाँफ न आएगी।'

'धीरे-धीरे जानेवाले घोड़े को भी यह जाँघ से कसे जा रहे हैं!' गंगाधरराव की ओर संकेत करके मनू ने कहा।

सुंदर ने चकित होकर पूछा, 'आपने कैसे जाना सरकार?'

मनू हँसी। दाँतों की सफेदी चेहरे के निखरे गोरे रंग से होड़ लगाने लगी।

मनू ने कहा, 'तुम हथियार चलाना जानती हो, सुंदर?'

'नहीं सीखा, सरकार।' सुंदर ने जवाब दिया।

इतने में गंगाधरराव की सवारी आगे बढ़ गई। दो लड़कियाँ और मनू के निकट आईं। सुंदर की ही उम्र की एक, दूसरी लगभग चौदह वर्ष की। उन्होंने भी सिर झुकाया, प्रणाम किया।

सुंदर ने परिचय दिया, 'इसका नाम मुंदर है और इसका काशी। मेरी तरह ये भी आपकी दासियाँ हैं।'

मनू ने बिना किसी प्रयत्न के कहा, 'मेरी सहेलियाँ बनकर रहोगी। दासी मेरी कोई भी न होगी।'

वे दोनों हर्ष के मारे फूल गईं। काशी जरा छोटे कद की और सुगठित शरीरवाली। मुंदर छरहरे शरीर की और जरा लंबी। मुंदर और काशी दोनों गौर वर्ण की। मुंदर का चेहरा बिलकुल गोल, आँखें सुंदर से कुछ ही छोटी परंतु चंचल और तेज। काशी की कुछ बड़ी और स्थिर।

मनू ने तीनों से अलग-अलग प्रश्न किए।

'तुम लोग कौन हो?'

तीनों ने उत्तर दिया, 'कुणबी।'

'झाँसी में कब आईं?'

'पुरखे आए थे।'

'झाँसी के आस-पास घूमी हो?'

'बहुत कम।'

'घोड़े पर चढ़ना जानती हो?'

'थोड़ा-थोड़ा।'

'हथियार चलाना?'

सुंदर तो पहले ही बतला चुकी थी। मुंदर ने तलवार चलाना सीखा था और काशी ने बंदूक। मनू को जानकर अच्छा लगा।

बोली, 'मैं तुम लोगों को घोड़े पर चढ़ना सिखाऊँगी। हथियार चलाना भी। मलखंब जानती हो?'

वे तीनों सिर नीचा करके मुसकराईं। सिर हिला दिए-नहीं जानतीं।

'गाना-बजाना जानती हो?' मनू ने बहुत सूक्ष्म चुटकी लेते हुए कहा।

सुंदर बोली, 'वह तो हम तीनों जानती हैं। हम लोग, जब सरकार की मर्जी होगी, सुनावेंगी।'

मनू ने कहा, 'जब इच्छा होगी, सुनुँगी; परंतु मुझको उसका शौक कुछ कम है। वह अच्छा है किंतु घुड़सवारी, हथियार चलाना, मलखंब, कुश्ती, प्राचीन गाथाओं का श्रवण-ये सब-मुझको बहुत अधिक भाते हैं।'

'कुश्ती!' सुंदर ने अपने बड़े नेत्रों को जरा घुमाकर आश्चर्य प्रकट किया।

मनू के होंठों पर सहज मुसकराहट आई। बोली, 'हाँ, कुश्ती भी। यह बहुत आवश्यक है। पर किसी समय बतलाऊँगी। अभी अवसर नहीं है।'

इतने में कुछ और स्त्रियाँ पास आने को हुईं परंत्‌ कुछ दूर ठिठक गईं। मनू ने उनको उस समय अपने पास बुला लेने की जरूरत नहीं समझी।

मनू कहती गई, 'पुरुषों को पुरुषार्थ सिखलाने के लिए स्त्रियों को मलखंब, कुश्ती, इत्यादि सीखना ही चाहिए। खूब तेज दौड़ना भी। नाचने-गाने से भी स्त्रियों का स्वास्थ्य सुधरता है, परंतु अपने को मोहक बना लेना ही तो स्त्री का समस्त कर्तव्य नहीं है।'

चौहद वर्ष की मनू अपने से अधिक वयवाली लड़कियों से जो कह गई, वह पास ठिठकी हुई उन स्त्रियों ने भी सुन लिया।

मुंदर, सुंदर और काशी यह सब सुनकर जरा झेंपीं। उनकी मुसकराहट चली गई। परंतु मनू अब भी मुसकरा रही थी। वह मुसकराहट उन लड़कियों को, उन स्त्रियों को जीवन के कोष में से कुछ दे-सा रही थी। उन लड़कियों का सहमा हुआ जी शीघ्र ही लहलहा गया। अन्य लड़कियों तथा स्त्रियों को भी मनू ने अपने निकट बुला लिया। ये स्त्रियाँ उन तीन लड़कियों की अपेक्षा अधिक सहमी हुई थीं।

मनू ने उनको अपना मन खोलने के लिए उत्साहित किया। स्त्रियों की ओर से प्रस्ताव, गायन इत्यादि द्वारा अपने हर्ष को प्रदर्शित करने का हुआ। उसने बिना किसी विशेष उत्साह के स्वीकार किया।

जो और लड़कियाँ उन स्त्रियों के साथ थीं, उनके विषय में मनू ने प्रश्न किए। वे सब दासियों के रूप में मनू के पास रहने के लिए नियुक्त कर दी गई थीं, क्योंकि विवाह का मुहूर्त आ रहा था। उसके बाद भी उनको मनू के पास ही रहना था।

ये लड़कियाँ अब्राह्मण जातियों में से रूप, रस इत्यादि के पैमाने से तौलकर चुनी जाती थीं और उनको आजन्म अपनी रानी के साथ कुमारी होकर रहना पड़ता था। यदि वे विवाह कर लेतीं तो उनको महल की नौकरी छोड़नी पड़ती थी। दहेज में दासियों और दासों का देना महाराष्ट्र में नहीं था, शायद राजपूताने के कुछ रजवाड़ों से वहाँ पहुँचा हो! शायद इसका प्रारंभ भिक्षुणी और देवदासी प्रथा से निसृत हुआ हो। इन दासियों के जीवन कितने कुतूहलों और कितने कोलाहलों से भरे रहते होंगे और इनके जीवन कितने दुखांत होते होंगे, उसकी कल्पना की जा सकती है। इनको जन्म देनेवाले लगभग इसी प्रकार के माता-पिता, केवल धनलोभ से इनको महलों के सपुर्द कर देते थे। फिर, या तो वे अपने सौंदर्य के जमाने में राजा के विलास की सामग्री बनी रहती थीं या जीवन के स्वाभाविक मार्ग पर जाकर महल से अलग हो जाती थीं।

मनू ने दासियों के इस चित्र की कुछ कल्पना की।

उसने अपनी उसी सहज मुसकराहट से कहा, 'मैं तुमको दासियाँ बनाकर नहीं रखूँगी। तुम मेरी सखी-सहेली बनोगी। केवल एक शर्त है।'

मनू ने अपने विशाल नेत्रों की दृष्टि को उन पर बिखेरा। बोली, 'जानती हो क्या?'

उन सबने नाहीं के सिर हिलाए।

मनू ने कहा, 'मेरे साथ जो रहना चाहे - उसको घोड़े की सवारी अच्छी तरह आनी चाहिए। तलवार, बंदूक, बरछी, छुरी-कटार, तीर-तमंचा इत्यादि का चलाना- अच्छी तरह चलाना सीखना पड़ेगा। दोनों हाथों से हथियार एक से चलाना सीख जावें तो और भी अच्छा।'

पुरुषों जैसे काम सीखने की बात सुनते ही स्त्रियों के चेहरों पर लाज की हलकी लाली दौड़ गई। परंतु मन के हर्ष और उत्साह ने लाज को दबा लिया।

काशी ने स्थिर दृष्टि और स्थिर स्वर में कहा, 'हम लोगों को जो कुछ सिखलाया गया है, उतना ही हम जानती हैं। अब जो कुछ सरकार की आज्ञा होगी, उसको हम लोग जी लगाकर और दृढ़ता के साथ सीखेंगे। परंतु कुश्ती और मलखंब कौन सिखलावेगा?'

मनू ने तुरंत बताया, 'जितना मैं जानती हूँ, मैं सिखलाऊँगी। बाकी बिठूर के प्रसिद्ध आचार्य बाला गुरु। उनको यहाँ बुला दूँगी।'

बाला गुरु का नाम सुनते ही लड़कियाँ शरमा गईं और उनसे बड़ी उम्र की स्त्रियाँ हँस पड़ीं। उस हँसी पर मनू के मन में क्षोभ उठा परंतु मनू ने उसको नियंत्रित कर लिया।

फिर उसी मुसकराहट के साथ बोली, 'बाला गुरु देवता हैं, और न भी हों तो तुमको क्या डर? स्त्रियाँ दृढ़ता का कवच पहनें तो फिर संसार में ऐसा पुरुष कोई हो ही नहीं सकता जो उनको लूट ले। बाला गुरु के साथ लड़कर कुश्ती सीखने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह बतलाया-भर करेंगे। अखाड़े में उतरकर मैं सिखलाऊँगी।'

गणेश मंदिर पास ही था। वाद्य बज रहे थे। उनमें होकर कभी-कभी मीठी शहनाई की चहक भी सुनाई पड़ जाती थी। स्त्रियाँ मनू से श्रृंगार रस की बात करने आई थीं, अपने आदर के झरोखे में होकर। मनू के मन की धारा, गंगाधरराव की सवारी, बाजों - गाजों और झाँसी निवासियों के हर्षोन्माद से संघर्ष पाकर दूसरी ओर चली गई थी।

सब स्त्रियाँ-लड़कियाँ भी अपने अच्छे-से-अच्छे वस्त्र और आभरण पहने हुए थीं। केश खूब सँवारे गए थे और उनमें रंग-बिरंगे और सुगन्धित फूल गूँथे गए थे। मनू के केशों में भी फूल थे। मनू ने हँसकर कहा, 'तुम लोग यदि कुश्ती सीखने के लिए इसी समय अखाड़े में उतरो तो क्या हो?'

सुंदर मुसकराकर बोली, 'तो इन फूलों से सारा अखाड़ा भर जावेगा।'

मनू ने हँसकर कहा, 'और तुम्हारे बालों में अखाड़े की मिट्टी भर जावेगी।'

वे सब खिलखिला पड़ीं।

मनू बोली, 'परंतु वह मिट्टी तुम्हारे केशों पर इन फूलों से कहीं अधिक सुहावनी लगेगी।'

मुंदर बोली, 'सरकार, बालों की शोभा मिट्टी से!'

मनू ने मुंदर का कंधा हिलाकर कहा, 'ये फूल कहाँ से आए? कहाँ जाएँगे? ये क्या मिट्टी से बढ़कर हैं?'

मनू की बात में, अपनी दादियों से सुनी हुई संसार की अस्थिरता की झाँईं सुनकर वे सब सहम गईं।

मनू समझ गई। बोली, 'नहीं, फूलों से नाता बनाए रखो परंतु मिट्टी से संबंध तोड़कर नहीं।'

स्त्रियों के मन पर एक दार्शनिक झकोर ठोकर दे गई। उन्होंने ऊँचे स्वर में 'हाँ-हाँ' कही; परंतु आँखों से ऐसा जान पड़ता था, मानो उनका आनंद कहीं भाग गया। उन्हें अपनी असंगत अवस्था में क्लेश होने लगा, मानो मनू ने उनके फूलों की भर्त्सना की हो और उनके आदर का अपमान।

मनू ने उन सब स्त्रियों से कहा, 'तुम गणेश मंदिर में जाकर देखो क्या होता है। मैं तब तक इन तीनों से बात करती हूँ। परंतु एक बात सुनती जाओ। मुझको तुम्हारे फूल बहुत अच्छे लगे, इनको फेंक मत देना।'

इस बात पर प्रसन्‍न होकर वे सब चली गईं। केवल सुंदर, मुंदर और काशी रह गईं।

मनू बोली, 'मैं सुनती हूँ झाँसी के लोग फूलों को बहुत प्यार करते हैं। अच्छा है। मुझको भी पसंद हैं, परंतु क्या दुबले-पतले घोड़े पर सोने-चाँदी का जीन अच्छा लगता है?'

सुंदर ने उमंग के साथ तुरंत कहा, 'सरकार, मैं आपकी बात अब समझी।'

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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(भाग 28)

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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