जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर में धूमें मच गईं, 'ताँबे और लोहे के जनेऊ आग में लाल कर-करके राजा ने पहनाए। नहीं तो, इन्होंने आज जनेऊ पहने थे, कल वेदों की ऋचाएँ आल्हा की तरह गली-गली बकते फिरते!'
कोई कहते थे, 'अजी बड़ी कुशल समझो , बिठूरवाले मिहमान दरबार में न होते तो राजा सिर काटकर फेंक देने का हुक्म दे चुके थे।'
नारायण शास्त्री यह सब वाङ्मय चुपचाप सूनते हुए घर आए। उदास थे। किवाड़ लुटकाकर पौर के चबूतरे की चटाई पर लेट गए। देर तक लेटे रहे। संध्या हो गई। अँधेरा छा गया। वह उठे। दीया-बत्ती की। कुछ खा-पीकर फिर पौर में आ बैठे। किसी ने धीरे से साँकल खटकाई। नारायण शास्त्री ने किवाड़ खोले। छोटी थी।
भीतर आ गई। शास्त्री ने किवाड़ बंद करके साँकल चढ़ा ली। छोटी चबूतरे पर बैठ गई। शास्त्री की उदासी जा चुकी थी। छोटी के नेत्रों में कटाक्ष सरल था परंतु सरल चितवन में ही मद बहुत।
छोटी ने अपने एक घुटने पर ठोड़ी टेककर नजर उठाई। बरौनियाँ भौंहों के ऊपर जाने को हुईं। बोली, 'मैं तो बड़ी हैरान हूँ। लोग बहुत तंग करते हैं, छेड़ते हैं। आपका नाम लेकर आवाजें कसते हैं।'
शास्त्री ने भौंहें सकोड़कर कहा, 'ऊँह, बकने दो छोटी! जरा भी परवाह मत करो।'
'मुझको आप ही की फिकर रहती है।' छोटी बोली, 'अपने लिए कोई लटका नहीं। मेरी जातवाले लोग मुझको जात से बाहर करना चाहते हैं। सुग-सुग चल रही है।'
'फिर क्या करोगी?'
'क्या करूँगी-आप ही बतलाइए।'
'देखा जाएगा।'
'कब?'
'जब बात सामने आवेगी तब।'
'और ये लोग जो मुझसे छेड़छाड़ करते हैं, उनका क्या करूँ?'
'उनसे आँख बरकाओ। कान मूँदकर अपना रास्ता लिया करो।'
'ऐसी छेड़छाड़ को तो मैं अनसुनी कर सकती हूँ, करती ही रहती हूँ; परंतु वे प्रेम की बातें करते हैं।'
'अच्छा!'
'हाँ। कोई अप्सरा कहता है। कोई कविता न्योछावर करने की बात कहता है! कोई सौगंध लाता है कि तेरे लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ मैं।'
'तुम क्या जवाब देती हो।'
'किसी को कुछ, किसी को कुछ। कुछ से मैंने पूछा-जनेऊ भी उतार देने को तैयार हो?'
'उन लोगों ने इस सवाल के पल्टे में क्या कहा? '
'उन्होंने कहा, उतार देंगे।'
छोटी मुसकराई। शास्त्री को गुस्सा आया। थोड़ी देर सोचते रहे। कभी सिर खुजाते और कभी छोटी को देखते थे। बोले, 'छोटी, यदि बात ऊपर ही आ जावे तो मैं मारे जाने तक के लिए तैयार हूँ, तुम पक्की हो?'
उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'क्या आपने कभी कोई कचाहट पाई?'
शास्त्री ने नीची गरदन करके कहा, 'वैसे ही पूछा था। एक काम करना होगा।'
'क्या?' निश्चितता के साथ छोटी ने प्रश्न किया।
शास्त्री ने प्रश्न के रूप में उत्तर दिया, 'क्या इन लोगों के जनेऊ उतरवा सकोगी?'
छोटी सहज वृत्ति से बोली, 'जनेऊ उतरवाने के बदले में कुछ देना न पड़ेगा? क्या बड़े-बड़े लोग यों ही जनेऊ उतारकर दे देंगे?'
'कौन-कौन लोग हैं? जाति और नाम तो बतलाओ।' शास्त्री ने कहा।
छोटी ने ब्योरेवार बतलाया। लंबी सूची थी। बतलाने में समय लगा। शास्त्री को फिर क्रोध आया। थोड़ी देर जलते-भुनते रहे।
उसी समय ऐसा जान पड़ा जैसे किसी ने बाहर से साँकल चढ़ा दी हो। छोटी चौंकी। उसने शास्त्री को इशारा किया। शास्त्री धीरे-से किवाड़ों के पास गए। आहट ली। बाहर कुछ खुसफुसाहट और पैरों का शब्द सुनाई पड़ा। छोटी को संकेत किया। वह अँगन में चली गई। शास्त्री ने भीतर की साँकल खोलकर किवाड़ खोलना चाहा। न खुला। आहर से साँकल चढ़ी हुई थी। उन्होंने भीतर की साँकल फिर चढ़ा ली। आँगन में छोटी के पास गए।
कहा, 'ये लोग पाजीपन पर तुले हुए हैं।'
छोटी जरा आतुरता के साथ बोली, 'मैंने अभी-अभी पूछा था कि ऐसा समय आने पर क्या करूँ। समय आ गया। अब बतलाइए।'
शास्त्री ऊपर से दृढ़ और भीतर से घबराए हुए थे। चुप रहे।
छोटी शांति के साथ बोली, 'आप मेरी चिंता छोड़ें। किसी तरह अपने को बचावें। मुझको चाहे मारकर घर के कुएँ में डाल दें। कह दें कि छोटी यहाँ कभी आई ही नहीं।'
शास्त्री ने दृढ़तापूर्वक कहा, 'क्या कहती है छोटी? मेरे भीतर अभी कुछ बाकी है, जो मुझको मरने के समय भी धीरज दे सकता है। अब सब उधड़ गया। राजा के सामने जाना पड़ेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा बाल बाँका न हो। कह देना कि शास्त्री ने जबरदस्ती की। मैं वैसे भी मारा जाऊँगा। तुम इस तरह बच जाओगी।'
'कभी नहीं,' छोटी गर्व के साथ बोली, 'अगर हमारी जाति में कोई गुण है तो एक-हम लोग बेईमानी नहीं कर सकते।'
शास्त्री सोच-विचार में पड़ गए। क॒छ देर बाद उन्होंने एक अनुरोध किया, कुछ न कुछ झूठ बनाना पड़ेगा।'
छोटी बोली, 'सिवाय उस झूठ के और जो कहिए, कह दूँगी।'
शास्त्री ने कहा, तुम कुछ ब्राह्मणों, बनियों इत्यादि के नाम लेकर कह सकती हो कि इन-इन लोगों ने अपने जनेऊ उतारकर तुम्हारे हवाले किए हैं।'
छोटी ने उत्तर दिया, जिन-जिन लोगों ने मेरा धर्म माँगा, उन्हीं-उन्हीं लोगों के नाम लूँगी, औरों के नहीं। पर जनेऊ कहाँ हैं?'
शास्त्री ने समाधान किया, 'जनेऊ मैं देता हूँ। नए हैं, उनो मैला कर लेना। कुछ उतारे हुए भी हैं, उनको नयों में मिला लेना।'
छोटी बोली, 'जल्दी करो। अभी तो मैं निकल जाऊँगी।'
शास्त्री ने पूछा, 'कैसे?'
छोटी ने कहा, 'आप अपना काम देखिए। मैं निकल जाऊँगी।' शास्त्री ने बहुत-से नए-पुराने जनेऊ छोटी को दे दिए।
छोटी ने प्रस्ताव किया, 'आप पौर का दिया भीतर रख दीजिए। किवाड़ खुलवाने का उपाय कीजिए, तब तक मैं ख़परैल पर से कूदकर घर जाती हूँ। देर लगेगी तो ये लोग मेरी जातिवालों को दरवाजे पर इकट्ठा कर देंगे और फिर मैं बहुत मारी-पीटी जाऊँगी। अभी तो मुझको कोई न छुएगा।'
शास्त्री ने मान लिया। उन्होंने किवाड़ खोलने की कोशिश की परंतु न खुले। हल्ला करना ठीक न समझा। छोटी खपरैल से कूदकर निकल गई। परंतु उसके मार्ग में रुकावट डाली गई। फिर भी वह अपने घर पहुँच गई, यद्यपि घिरी हुई थी।