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(भाग 11)

16 मई 2022

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर में धूमें मच गईं, 'ताँबे और लोहे के जनेऊ आग में लाल कर-करके राजा ने पहनाए। नहीं तो, इन्होंने आज जनेऊ पहने थे, कल वेदों की ऋचाएँ आल्हा की तरह गली-गली बकते फिरते!'

कोई कहते थे, 'अजी बड़ी कुशल समझो , बिठूरवाले मिहमान दरबार में न होते तो राजा सिर काटकर फेंक देने का हुक्म दे चुके थे।'

नारायण शास्त्री यह सब वाङ्मय चुपचाप सूनते हुए घर आए। उदास थे। किवाड़ लुटकाकर पौर के चबूतरे की चटाई पर लेट गए। देर तक लेटे रहे। संध्या हो गई। अँधेरा छा गया। वह उठे। दीया-बत्ती की। कुछ खा-पीकर फिर पौर में आ बैठे। किसी ने धीरे से साँकल खटकाई। नारायण शास्त्री ने किवाड़ खोले। छोटी थी।

भीतर आ गई। शास्त्री ने किवाड़ बंद करके साँकल चढ़ा ली। छोटी चबूतरे पर बैठ गई। शास्त्री की उदासी जा चुकी थी। छोटी के नेत्रों में कटाक्ष सरल था परंतु सरल चितवन में ही मद बहुत।

छोटी ने अपने एक घुटने पर ठोड़ी टेककर नजर उठाई। बरौनियाँ भौंहों के ऊपर जाने को हुईं। बोली, 'मैं तो बड़ी हैरान हूँ। लोग बहुत तंग करते हैं, छेड़ते हैं। आपका नाम लेकर आवाजें कसते हैं।'

शास्त्री ने भौंहें सकोड़कर कहा, 'ऊँह, बकने दो छोटी! जरा भी परवाह मत करो।'

'मुझको आप ही की फिकर रहती है।' छोटी बोली, 'अपने लिए कोई लटका नहीं। मेरी जातवाले लोग मुझको जात से बाहर करना चाहते हैं। सुग-सुग चल रही है।'

'फिर क्‍या करोगी?'

'क्या करूँगी-आप ही बतलाइए।'

'देखा जाएगा।'

'कब?'

'जब बात सामने आवेगी तब।'

'और ये लोग जो मुझसे छेड़छाड़ करते हैं, उनका क्‍या करूँ?'

'उनसे आँख बरकाओ। कान मूँदकर अपना रास्ता लिया करो।'

'ऐसी छेड़छाड़ को तो मैं अनसुनी कर सकती हूँ, करती ही रहती हूँ; परंतु वे प्रेम की बातें करते हैं।'

'अच्छा!'

'हाँ। कोई अप्सरा कहता है। कोई कविता न्योछावर करने की बात कहता है! कोई सौगंध लाता है कि तेरे लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ मैं।'

'तुम क्या जवाब देती हो।'

'किसी को कुछ, किसी को कुछ। कुछ से मैंने पूछा-जनेऊ भी उतार देने को तैयार हो?'

'उन लोगों ने इस सवाल के पल्टे में क्या कहा? '

'उन्होंने कहा, उतार देंगे।'

छोटी मुसकराई। शास्त्री को गुस्सा आया। थोड़ी देर सोचते रहे। कभी सिर खुजाते और कभी छोटी को देखते थे। बोले, 'छोटी, यदि बात ऊपर ही आ जावे तो मैं मारे जाने तक के लिए तैयार हूँ, तुम पक्की हो?'

उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'क्या आपने कभी कोई कचाहट पाई?'

शास्त्री ने नीची गरदन करके कहा, 'वैसे ही पूछा था। एक काम करना होगा।'

'क्या?' निश्चितता के साथ छोटी ने प्रश्न किया।

शास्त्री ने प्रश्न के रूप में उत्तर दिया, 'क्या इन लोगों के जनेऊ उतरवा सकोगी?'


छोटी सहज वृत्ति से बोली, 'जनेऊ उतरवाने के बदले में कुछ देना न पड़ेगा? क्या बड़े-बड़े लोग यों ही जनेऊ उतारकर दे देंगे?'

'कौन-कौन लोग हैं? जाति और नाम तो बतलाओ।' शास्त्री ने कहा।

छोटी ने ब्योरेवार बतलाया। लंबी सूची थी। बतलाने में समय लगा। शास्त्री को फिर क्रोध आया। थोड़ी देर जलते-भुनते रहे।

उसी समय ऐसा जान पड़ा जैसे किसी ने बाहर से साँकल चढ़ा दी हो। छोटी चौंकी। उसने शास्त्री को इशारा किया। शास्त्री धीरे-से किवाड़ों के पास गए। आहट ली। बाहर कुछ खुसफुसाहट और पैरों का शब्द सुनाई पड़ा। छोटी को संकेत किया। वह अँगन में चली गई। शास्त्री ने भीतर की साँकल खोलकर किवाड़ खोलना चाहा। न खुला। आहर से साँकल चढ़ी हुई थी। उन्होंने भीतर की साँकल फिर चढ़ा ली। आँगन में छोटी के पास गए।

कहा, 'ये लोग पाजीपन पर तुले हुए हैं।'

छोटी जरा आतुरता के साथ बोली, 'मैंने अभी-अभी पूछा था कि ऐसा समय आने पर क्या करूँ। समय आ गया। अब बतलाइए।'

शास्त्री ऊपर से दृढ़ और भीतर से घबराए हुए थे। चुप रहे।

छोटी शांति के साथ बोली, 'आप मेरी चिंता छोड़ें। किसी तरह अपने को बचावें। मुझको चाहे मारकर घर के कुएँ में डाल दें। कह दें कि छोटी यहाँ कभी आई ही नहीं।'

शास्त्री ने दृढ़तापूर्वक कहा, 'क्या कहती है छोटी? मेरे भीतर अभी कुछ बाकी है, जो मुझको मरने के समय भी धीरज दे सकता है। अब सब उधड़ गया। राजा के सामने जाना पड़ेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा बाल बाँका न हो। कह देना कि शास्त्री ने जबरदस्ती की। मैं वैसे भी मारा जाऊँगा। तुम इस तरह बच जाओगी।'

'कभी नहीं,' छोटी गर्व के साथ बोली, 'अगर हमारी जाति में कोई गुण है तो एक-हम लोग बेईमानी नहीं कर सकते।'

शास्त्री सोच-विचार में पड़ गए। क॒छ देर बाद उन्होंने एक अनुरोध किया, कुछ न कुछ झूठ बनाना पड़ेगा।'

छोटी बोली, 'सिवाय उस झूठ के और जो कहिए, कह दूँगी।'

शास्त्री ने कहा, तुम कुछ ब्राह्मणों, बनियों इत्यादि के नाम लेकर कह सकती हो कि इन-इन लोगों ने अपने जनेऊ उतारकर तुम्हारे हवाले किए हैं।'

छोटी ने उत्तर दिया, जिन-जिन लोगों ने मेरा धर्म माँगा, उन्हीं-उन्हीं लोगों के नाम लूँगी, औरों के नहीं। पर जनेऊ कहाँ हैं?'

शास्त्री ने समाधान किया, 'जनेऊ मैं देता हूँ। नए हैं, उनो मैला कर लेना। कुछ उतारे हुए भी हैं, उनको नयों में मिला लेना।'

छोटी बोली, 'जल्दी करो। अभी तो मैं निकल जाऊँगी।'

शास्त्री ने पूछा, 'कैसे?'

छोटी ने कहा, 'आप अपना काम देखिए। मैं निकल जाऊँगी।' शास्त्री ने बहुत-से नए-पुराने जनेऊ छोटी को दे दिए।

छोटी ने प्रस्ताव किया, 'आप पौर का दिया भीतर रख दीजिए। किवाड़ खुलवाने का उपाय कीजिए, तब तक मैं ख़परैल पर से कूदकर घर जाती हूँ। देर लगेगी तो ये लोग मेरी जातिवालों को दरवाजे पर इकट्ठा कर देंगे और फिर मैं बहुत मारी-पीटी जाऊँगी। अभी तो मुझको कोई न छुएगा।'

शास्त्री ने मान लिया। उन्होंने किवाड़ खोलने की कोशिश की परंतु न खुले। हल्ला करना ठीक न समझा। छोटी खपरैल से कूदकर निकल गई। परंतु उसके मार्ग में रुकावट डाली गई। फिर भी वह अपने घर पहुँच गई, यद्यपि घिरी हुई थी। 

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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