जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अपनी प्यारी रानी के गर्भ से पुत्पत्ति का समाचार सुनकर झाँसी थोड़े समय के लिए इंद्रपुरी बन गई।
राजा ने बहुत खर्च किया, इतना कि खजाना करीब-करीब खाली कर दिया। दरिद्रों को जितना सम्मान उस अवसर पर झाँसी में मिला, उतना शायद ही कभी मिला हो।
दरबार हुआ। गवैए आए। मुगलखाँ का ध्रुवपद सिरे का रहा। उसको हाथी बख्शा गया। नर्तकियों में दुर्गाबाई खूब पुरस्कृत हुई। नाटक हुआ। परंतु उसमें मोतीबाई न थी। राजा के मन में आया कि उसको फिर से रंगशाला में बुलवा लिया जाए, परंतु न किसी ने सिफारिश की और न राजा अपने हठ को छोड़कर स्वयं प्रवृत्त हुए।
दरबार में सभी जागीरदारों को कुछ-न-कुछ मिला।
उस दरबार में केवल एक व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति न हो सकी। वे थे नवाब अलीबहादुर- राजा रघुनाथराव के पुत्र। जब अंग्रेजों ने रघुनाथराव के कुशासन काल में झाँसी का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया था, तभी उनकी जागीर जब्त कर ली गई थी और उनको पाँच सौ रुपया मासिक पेंशन दी जाने लगी थी। जब गंगाधरराव को राज्याधिकार मिला, तब उन्होंने यह पेंशन जारी रखी। अलीबहादुर चाहते थे कि यथासंभव उनको वही जागीर मिल जाए। जागीर न मिल सके तो पेंशन में वृद्धि कर दी जाए। जागीर मिलती न देखकर अलीबहादुर ने पेंशन बढ़ाने के लिए विनय की। राजा ने पॉलीटिकल एजेंट से बात करने की बात कहकर नवाब को उस समय टाला। नवाब का मन मसोस खा गया। परंतु उन्होंने आशा नहीं छोड़ी। अनेक अंग्रेज अफसरों से उनका मेलजोल था, परस्पर आना-जाना था। इसलिए उस आश्रय को दृढ़तापूर्वक पकड़ने की उन्होंने अपने जी में ठानी।
दरबार में पगड़ी बंधवाने की प्रथा बहुत समय से चली आ रही थी। श्याम चौधरी नाम के एक सेठ के घरानेवाले ही ऐसे मौकों पर पगड़ी बाँधते थे। श्याम चौधरी लखपति था। कहते हैं कि उस समय झाँसी में ५२ लखपति थे। ये ५२ घर बावन बसने कहलाते थे। श्याम चौधरी पाग बाँधने के पहले अपना नेग-दस्तूर लेने के लिए बहुत मचला। राजा ने जब मोती जड़े सोने के कड़े देने का वचन दिया तब उसने राजा को पगड़ी बाँधी। नवाब अलीबहादुर का जी इससे और भी अधिक जल गया।
वह किसी भी तरह इस भावना को नहीं दबा पा रहे थे-मैं राजा का लड़का हूँ, मैं ही झाँसी का राजा होता, अब मेरे पास जागीर तक नहीं! छोटे-छोटे से लोगों का इतना आदर-सत्कार और मेरी पेंशन बढ़ाने तक के लिए पॉलीटिकल एजेंट की सलाह की जरूरत!
नवाब साहब ऊपर से प्रसन्न और भीतर से बहुत उदास अपनी हवेली को लौट आए। वे रघुनाथराव के नई बस्तीवाले महल में रहते थे। महल में तीन चौके थे। एक रंगमहल, दूसरा सैनिकों, हाथियों इत्यादि के लिए; तीसरा घोड़ों और गायों के लिए। महल का सदर दरवाजा चाँद दरवाजा कहलाता था। इस पर चढ़कर वे और उनके मुसलमान अफसर ईद के चाँद को देखते थे, इसलिए दरवाजे का नाम चाँद दरवाजा पड़ गया था। बिलकुल अगले सहन के आगे एक और विस्तृत सहन था, जिसके एक ओर इनका प्रिय हाथी मोतीगज बँधता था और दूसरी ओर राजा रघुनाथराव के जीवन-काल में इनकी माता लच्छोबाई के रहने के लिए हवेली थी। इस समय नवाब अलीबहादर के अधिकार में यह हवेली और सारा महल था।
बाहरवाली हवेली में उनके मेहमान या आश्रित ठहराए जाते थे। दरबार से लौटकर अलीबहादुर पहले इसी हवेली में गए। हवेली बड़ी थी। उसमें कई कक्ष थे। परंतु उजाला केवल दो कक्षों में था। बाकी सूनी और अँधेरी थी। बाहर पहरेदार थे। उजाला दीपकों का था। शमादानों में जल रहे थे, दो कमरों में अलग-अलग। दोनों कमरे एक दूसरे से काफी दूर।
जिस पहले कमरे में नवाब अलीबहादुर गए उसमें सिवाय खुदाबख्श के और कोई न था। अभिवादन के बाद उनमें बातचीत होने लगी। गंगाधरराव खुदाबख्श और नर्तकी मोतीबाई से अप्रसन्न हो गए थे और उन्हें दरबार से निकाल दिया गया था। खुदाबख्श ने अलीबहादुर से अपनी प्रार्थना राजा तक पहुँचाने के लिए निवेदन किया था।
खुदाबख्श ने अपनी आशामयी आँखों से कहा, 'हुजूर ने मेरी विनती तो पेश की होगी?'
अलीबहादुर ने उत्तर दिया, 'नहीं भाई, मौका नहीं आया। जानते हो, महाराज अव्वल दर्जे के जिद्दी हैं। एकाध दिन मौका हाथ आने दो, तब कहूँगा।'
खुदाबख्श-'उस कमरे में बेचारी मोतीबाई उम्मीदें बाँधे बैठी है। उसका तो कोई कसूर ही नहीं है। उसके लिए आप कुछ कह सके?'
अलीबहादुर-'क्या कहता? वहाँ तो बनियों और छोटे-छोटे लोगों की बन पड़ी। मेरे लिए ही कुछ नहीं हुआ।'
खुदाबख्श-'ऐं!'
अलीबहादुर-'जी हाँ। जागीर चूल्हे में गई-पेंशन बढ़ाने के लिए अर्ज की तो कह दिया कि बड़े साहब से सलाह करेंगे। मैं सोचता हूँ कि हमीं लोग बड़े साहब से क्यों न मिलें? आपके साथ काफी जुल्म हुआ है। आप मुद्दत से छिपे-छिपे फिर रहे हैं। जिस मोतीबाई के लिए राजा पलक-पाँबड़े बिछाते थे, वह बिचारी दर-दर फिर रही है। एक दिन मुझको यह और राजा के अनेक अत्याचार बड़े साहब के सामने साफ बयान करने हैं। आप भी चलना।' खुदाबख्श-'मैं तो आज तक किसी गोरे से नहीं मिला। आपकी उनसे दोस्ती है। आप जैसा ठीक समझें, करें।'
अलीबहादुर-'मोतीबाई से अर्जी न दिलाई जाए? आपसे कुछ बातचीत हुई?' खुदाबख्श-'क्या कहूँ, वे तो मुझसे परदा करती हैं। आप ही पूछिएगा।'
अलीबहादुर-'नाटकशालावाली भी परदा करती है! रंगमंच पर तो परदे का नामनिशान नहीं रहता, बल्कि उससे बिलकल उलटा व्योहार नजर आता है।'
अलीबहादुर की अवस्था ४२-४३ वर्ष की थी। स्वस्थ थे। रंगीन तबीयत के। उन्होंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा-'रंगमंच पर उनका नाच-गाना, हाव-भाव सभी पहले सिरे के देखे। यहाँ परदा कैसा? वे पीरअली के सामने तो निकलती हैं।'
पीरअली अलीबहादुर का खास नौकर और सिपाही था। बरताव एकांत में मित्रों सदृश्य। उसको बुलवाया गया।
पीरअली की मार्फत मोतीबाई से बातचीत होने लगी।
'बड़े साहब' को अर्जी देने के प्रस्ताव पर मोतीबाई ने कहलवाया, 'मैं अर्जी नहीं देना चाहती हूँ। किसी अंग्रेज के सामने नहीं जाऊँगी। आप लोग बड़े आदमी हैं। आप लोगों के रहते मैं अंग्रेजों के बँगलों पर नहीं भटकना चाहती।'
अलीबहादुर ने कहा, 'आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा। आपकी अर्जी मैं पेश कर आऊँगा।'
मोतीबाई ने उत्तर दिलवाया,'साहब से सब कुछ जबानी कह दीजिए। लिखी अर्जी नहीं दूंगी।'
खुदाबख्श ने समर्थन किया। बोला, 'लिखा हुआ कुछ नहीं देना चाहिए। यदि कहीं अर्जी को साहब ने महाराज के पास फैसले के लिए भेज दिया तो हम सब विपद में पड़ जाएंगे।'
अलीबहादुर दूसरे के हाथ से अंगारे डलवाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने खुदाबख्श को समझाया, 'आपका इससे बढ़कर तो अब और कुछ नुकसान हो नहीं सकता। बिना किसी अपराध के देश-निकाला दे दिया गया। घर-द्वार छूटा। जागीर गई। परदेश की खाक छानते फिर रहे हो। मेरी राय में आपको लिखी अर्जी जरूर देनी चाहिए। मैं साहब से सिफारिश करूँगा। वे राजा के पास न भेजकर सीधी लाट साहब गवर्नर जनरल बहादुर के पास भेज देंगे। कंपनी सरकार रियासतों के नुक्स तलाश करने में दिन-रात व्यस्त रहती है।'
खुदाबख्श ने कहा, 'जरा सोच लूँ। फिर किसी दिन अर्ज करूँगा। आप तो मेरे शुभचिंतक हैं। आप अकेले का तो मुझको आधार ही है। आपके अहसानों के बोझ से दबा हूँ।'
अलीबहादुर ने सोचा, जल्दी न करनी चाहिए। पीरअली ने छिपे संकेत में हामी भरी। खुदाबख्श के खाने-पीने की व्यवस्था करके अलीबहादुर चले गए। अकेले रह जाने पर मोतीबाई भी अपने घर गई। जाते समय उसने एक बार खुदाबख्श की ओर देखा। खुदाबख्श को ऐसा जान पड़ा जैसे कमलों का परिमल छुटकाती गई हो।