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(भाग 20)

16 मई 2022

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी की प्रतिमा आभूषणों और फूलों के श्रृंगार से लद गई और धूप-दीप तथा नैवेद्य ने कोलाहल-सा मचा दिया। हरदी- कूँकूँ (हलदी-कुंकुम) के उत्सव में सारे नगर की नारियाँ व्यग्र, व्यस्त हो गईं।

परंतु उनमें से बहुत थोड़ी गले में सुमन-मालाएँ डाले थीं, उनके पास हृदयेश की कविता और उसका फल दूसरे रूप में पहुँचा था-उनको भ्रम था कि राजा-रानी हम लोगों के श्रृंगार पसंद नहीं करते। इसलिए जब वे स्त्रियाँ-जो पूजन के लिए रनवास में आईं-चढ़ाने के लिए तो अवश्य फूल ले आईं परंतु गले में माला डाले कुछेक ही आईं।

किले में जाने की सब जातियों को आजादी थी। किले के उस भाग में जहाँ महादेव और गणेश का मंदिर है और उसको शंकर किला कहते थे, सब कोई जा सकते थे-अछूत कहलानेवाले चमार, बसोर और भंगी भी। जहाँ अपने कक्ष में रानी ने गौरी को स्थापित किया था, वहाँ इन जातियों की स्त्रियाँ नहीं जा सकती थीं। परंतु कोरियों और कुम्हारों की स्त्रियाँ जा सकती थीं। कोरी और कुम्हार कभी अछूत नहीं समझे गए थे।

सुंदर ललनाओं को आभूषणों से सजा हुआ देखकर रानी को हर्ष हुआ, परंतु अधिकांश के गलों में पुष्पमालाओं की त्रुटि उनको खटकी। उन्होंने स्त्रियों से कहा, 'तुम लोग हार पहनकर क्यों नहीं आईं? गौरी माता को क्या अधूरे श्रृंगार से प्रसन्‍न करोगी?'

स्त्रियों के मन में एक लहर उद्वेलित हुई।

लालाभाऊ बख्शी की पत्नी उन स्त्रियों की अगुआ बनकर आगे आई। वह यौवन की पूर्णता को पहुँच चुकी थी। सौंदर्य मुखमंडल पर छिटका हुआ था। बख्शिनजू कहलाती थीं। हाथ जोड़कर बोली, 'जब सरकार के गले में माला नहीं है तब हम लोग कैसे पहनें?'

रानी को असली कारण मालूम था। बख्शिनजू के बहाने पर उनको हँसी आई। पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और सबको सुनाकर कहने लगीं, 'बाहर मालिनें नाना प्रकार के हार गूँथे बैठी हुई हैं। एक मेरे लिए लाओ। मैं भी पहनूँगी। तुम सब पहनो और खूब गा-गाकर माता को रिझाओ। जो लोग नाचना जानती हों, नाचें। इसके उपरांत दूसरी रीति का कार्य होगा।'

स्त्रियाँ होड़ाहींसीं में मालिनों के पास दौड़ीं, परंतु मुंदर पहले माला ले आई। बख्शिन जरा पीछे आई। मुंदर माला पहनानेवाली थी कि रानी ने उसको मुसकराकर बरज दिया। मुंदर सिकड़-सी गई।

रानी ने कहा, मुंदर, एक तो तू अभी कुमारी है, दूसरे तेरे हाथ के फूल तो नित्य ही मिल जाते हैं। बख्शिनजू के फूलों का आशीर्वाद लेना चाहती हूँ।'

बख्शिनजू हर्षोत्फुल्ल हो गई। मुंदर को अपने दासीवर्ग की प्रथा का स्मरण हो आया-विवाह होते ही महल और किला छोड़ना पड़ेगा, उदास हो गई। रानी समझ गईं। बख्शिन ने पुष्पमाला उनके गले में डालकर पैर छुए। रानी ने उठकर अंक में भर लिया। फिर मुंदर का सिर पकड़कर अपने कंधे से चिपटाकर उसके कान में कहा, 'पगली, क्‍यों मन गिरा दिया? मेरे पास से कभी अलग न होगी।'

मुंदर उसी स्थिति में हाथ जोड़कर धीरे से बोली, 'सरकार, मैं सदा ऐसी ही रहूँगी और चरणों में अपनी देह को इसी दशा में छोड़ूँगी।'

फिर अन्य स्त्रियों ने भी रानी को हार पहनाए, इतने कि वे ढंक गईं और उनको साँस लेना दूभर हो गया। सहेलियाँ उनकें हार उतार-उतारकर रख देती थीं और वह पुनः-पुन: ढंक दी जाती थीं।

अंत में कोने में खड़ी हुई एक नववधू माला लिए बढ़ी। उसके कपड़े बहुत रंग-बिरंगे थे। चाँदी के जेवर पहने थी। सोने का एकाध ही था। सब ठाठ सोलह आना बुंदेलखंडी। पैर के पैजनों से लेकर सिर की दाउनी (दामिनी) तक सब आभूषण स्थानिक। रंग जरा साँवला। बाकी चेहरा रानी की आकृति, आँख-नाक से बहुत मिलता-जुलता! रानी को आश्चर्य हुआ और स्त्रियों के मन में काफी कुतूहल। वह डरते-डरते रानी के पास आई।

रानी ने मुसकराकर पूछा, 'कौन हो?'

उत्तर मिला, 'सरकार, हों तो कोरिन।'

'नाम?'

'सरकार, झलकारी दुलैया।'

'निःसंदेह जैसा नाम है वैसे ही लक्षण हैं! पहना दे अपनी माला।'

झलकारी ने माला पहना दी और रानी के पैर पकड़ लिए।

रानी के हठ करने पर झलकारी ने पैर छोड़े।

रानी ने उससे पूछा, 'क्या बात है झलकारी? कुछ कहना चाहती है क्या?'

झलकारी ने सिर नीचा किए हुए कहा, 'मोय जा विनती करने-मोय माफी मिल जाय तो कओं।'

रानी ने मुसकराकर अभयदान दिया।

झलकारी बोली, 'महाराज, मोरे घर में पुरिया पूरबे कौ और कपड़ा बुनवे कौ काम होत आओ है। पै उननैं अब कम कर दऔ है। मलखंब, कुश्ती और जाने का-का करन लगे। अब सरकार घर कैसैं चलै?'

रानी ने पूछा, 'तुम्हारी जाति में और कितने लोग मलखंब और कुश्ती में ध्यान देने लगे हैं?'

'काये मैं का घर-घर देखत फिरत? ' झलकारी ने बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें घुमाकर तीक्ष्ण उत्तर दिया।

रानी हँस पड़ीं, यह तो तुम्हारे पति बहुत अच्छा काम करते हैं। तुम भी मललंब, कुश्ती सीखो। इनाम दूँगी। घोड़े की सवारी भी सीखो।'

झलकारी लंबा घुँघट खींचकर नब गई। घूँघट में ही बेतरह हँसी। रानी भी हँसी और अन्य स्त्रियों में भी हँसी का स्रोत फूट पड़ा।

लगभग सभी उपस्थित स्त्रियों ने जरा चिंता के साथ सोचा-हम लोगों से भी मलबंब, कुश्ती के लिए कहा जाएगा। बड़ी मुश्किल आई।

उन स्त्रियों ने फूलों के ढेरों और आभूषणों में होकर अखाड़ों और कुश्तियों को झाँका तथा परंपरा की लज्जा और संकोच में वे ठिठुर-सी गईं। उनकी हँसी को एक जकड़-सी लग गई।

झलकारी बोली, 'महाराज, मैं चकिया पीसत हों, दो-दो तीन-तीन मटकन में पानी भर-भर ले आउत, राँटा (चरखा। चरखा चलाने की प्रथा बुंदेललंड में ऊँचे घरानों तक में, घर-घर थी।) कातत...।'

रानी ने कहा, 'तुम्हारे पति का क्या नाम है?'

झलकारी सिकुड़ गई।

बख्शिन ने तड़ाक से कहा, 'आज हम लोग आपस में कुंकम-रोरी लगाते समय एक-दूसरे से पति का नाम पूछेंगे ही। झलकारी को भी बतलाना पड़ेगा, उस समय। परंतु' वह नखरे के साथ दूसरी स्त्रियों की ओर देखने लगी।'

रानी ने हँसकर पूछा, परंतु क्या बख्शिन जू?'

बख्शिन ने उत्तर दिया, 'सरकार, बड़े काम पहले राजा से आरंभ होते हैं। आज के उत्सव की परिपाटी में रिवाज के अनुसार सबको अपने-अपने पति का नाम लेना पड़ेगा, परंतु प्रारंभ कौन करेगा? यह भी हम लोगों को बतलाना पड़ेगा?'

कुछ स्त्रियाँ हंस पड़ीं। कुछ ताली पीटकर थिरक गईं। रानी की सहेलियाँ मुसकरा-मुसकराकर उनका मुँह देखने लगीं। रानी के गौर मुख पर उषा की अरुण-स्वर्ण रेखाएँ-सी खिच गईं। वह मुसकराईं जैसे एक क्षण के लिए ज्योत्स्ना छिटक गई हो। जरा सिर हिलाया मानो मुक्तपवन ने फूलों से लदी फुलवारियों को लहरा दिया हो।

रानी ने बख्शिन से कहा, 'तुम मुझसे बड़ी हो, तुमको पहले बतलाना होगा।'

'सरकार हमारी महारानी हैं। पहले सरकार बतलावेंगी। पीछे हम लोग आज्ञा का पालन करेंगी।' बख्शिन ने घूँघट का एक भाग होंठों के पास दबाकर कहा।

हरदी-कूँकूँ के उत्सव पर सधवा स्त्रियाँ एक-दूसरे को रोरी (रोली) का टीका लगाती हैं और उनको किसी-न-किसी बहाने अपने पति का नाम लेना पड़ता है।

रानी ने कहा, 'बख्शिनजु, अपनी बात पर दृढ़ रहना। आज्ञापालन में आगा-पीछा नहीं देखा जाता।'

'परंतु धर्म की आज्ञा सबसे ऊपर होती है, सरकार।' बख्शिन हठ पूर्वक बोली।

रानी के गोरे मुखमंडल पर फिर एक क्षण के लिए रक्तिम आभा झाई-सी दे गई। बोलीं, 'बख्शिनजू, याद रखना, मैं भी बहुत हैरान करूँगी। मेरी बारी आएगी तब मैं तुम्हें देखूँगी।'

बख्शिन ने प्रश्न किया, 'अभी तो मेरी बारी है, सरकार बतलाइए, महादेवजी के कितने नाम हैं?'

रानी ने अपने विशाल नेत्र जरा झुकाए, गला साफ किया। बोलीं-शिव, शंकर, भोलानाथ, शंभू, गिरिजापति।

'सरकार को तो पूरा कोष याद है। अब यह बतलाइए कि महादेवजी के जटा-जूट में से क्‍या निकला है?

'सर्प, रुद्राक्ष'

'जी नहीं सरकार-किसकी तपस्या करने पर, किसको महादेव बाबा ने अपनी जटाओं में छिपाया और कौन वहाँ से निकलकर, हिमाचल से बहकर इस देश को पवित्र करने के लिए आया? ब्रह्मावर्त के नीचे किसका महान्‌ सुहानापन है।'

'गंगा का,' यकायक लक्ष्मीबाई के मुँह से निकल पड़ा।

उपस्थित स्त्रियाँ हर्ष के मारे उन्मत्त हो उठीं। नाचने लगीं। झलकारी ने तो अपने बुंदेललंडी नृत्य में अपने को बिसरा-सा दिया। रानी उस प्रमोद में गौरी की प्रतिमा की ओर विनीत कृतज्ञता की दृष्टि से देखने लगीं। प्रमोद की उस थिरकन का वातावरण जब कुछ स्थिर हुआ, रानी ने आनंद-विभोर बख्शिन का हाथ पकड़ा। कहा, 'बख्शिनजू, सावधान हो जाओ। अब तुम्हारी बारी आई।'

बख्शिन के मुँह पर गुलाल-सा बिखर गया।

नतमस्तक होकर बोली, 'सरकार, अभी बड़े-बड़े मंत्रियों और दीवानों की स्त्रियाँ और बहुएँ हैं। हम लोग तो सरकार की सेना के केवल बख्शी ही हैं।'

रानी ने मुसकराते-मुसकराते दाँत पीसकर विशाल नेत्रों को तरेरकर, जिनमें होकर मुसकराहट विवश झरी पड़ रही थी, कहा, 'बख्शी सेना का आधार, तोपों का मालिक, प्रधान सेनापति के सिवाय और किसी से नीचे नहीं। राजा के दाहिने हाथ की पहली उँगली, और तुम यहाँ उपस्थित स्त्रियों में सबसे अधिक शरारतिन। मेरे सवालों का जवाब दो।'

बख्शिन ने अपनी मुखमुद्रा पर गंभीरता, क्षोम और अनमनेपन की छाप बिठलानी चाही। परंतु लाज से बिखेरी हुई चेहरे की गुलाली में से हँसी बरबस फूट पड़ रही थी। बख्शिन बोली, 'सरकार की कलाई इतनी प्रबल है कि मेरा हाथ टूटा जा रहा है।'

रानी ने कहा, तुम्हारी कलाई भी इतनी ही मजबूत बनवाऊँगी, बात न बनाओ, मेरे सवाल का जवाब दो। बोलो, मेरे पुरखों के नाम याद हैं?'

बख्शिन सँभल गई। उसने सोचा, मारके का प्रश्न अभी दूर है। बोली, 'हाँ सरकार। जिनकी सेवा में युग बीत गए उनके नाम हम लोग कैसे भूल सकते हैं?'

'बतलाओ मेरे ससुर का नाम।' रानी ने मुसकुराते हुए दृढ़तापूर्वक कहा।

चतुर बख्शिन गड़बड़ा गई। उसके मुँह से निकल गया-'भाऊ (शिवराव भाऊ गंगाधरराव के पिता थे।) साहब'।

बख्शिन के पति का नाम लाला भाऊ था।

रानी ने हँसकर बख्शिन का हाथ छोड़ दिया।

उपस्थित स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बख्शिन को अपने पति का नाम बतलाना तो अवश्य था, परंतु वह रानी को थोड़ा परेशान करके ही बतलाना चाहती थी; लेकिन रानी ने अनायास ही बख्शिन को परास्त कर दिया।

इसके उपरांत रानी ने चुलबुली झलकारी को बुलाया। उसके पति का वहाँ किसी को नाम नहीं मालूम था। इसलिए बहानों की गुंजाइश न थी।

रानी ने सीधे ही पूछा, 'तुम्हारे पति का नाम?'

झलकारी के पति का नाम पूरन था। पति का नाम बतलाने के लिए व्यग्र थी परंतु उत्सव की रंगत बढ़ाने के लिए उसने जरा सोच-विचारकर एक ढंग निकाला।

बोली, 'सरकार, चंदा पूरनमासी को ही पूरी-पूरी दिखात है न?'

रानी ने हँसकर कहा, 'ओ हो! पहले ही अरसट्टे में फिसल गई! पूरन नाम है?'

झलकारी झेंप गई। चतुराई विफल हुई। हँस पड़ी।

इसी प्रकार हँसते-खेलते और नाचते-गाते स्त्रियों का उत्सव अपने समय पर समाप्त हुआ।

अंत में रानी ने स्त्रियों से एक भीख-सी माँगी, 'तुममें से कोई बहनों के बराबर हो, कोई काकी हो, कोई माई हो, कोई फूफी। फूल सदा नहीं खिलते। उनमें सुगंध भी सदा नहीं रहती। उनकी स्मृति ही मन में बसती है। नृत्यगान की भी स्मृति ही सुखदायक होती है। परंतु इन सब स्मृतियों का पोषक यह शरीर और उसके भीतर आत्मा है। उनको पुष्ट करो और प्रबल बनाओ। क्या मुझे ऐसा करने का वचन दोगी?'

उन स्त्रियों ने इस बात को समझा हो या न समझा हो परंतु उन्होंने हाँ-हाँ की। इन लोगों को डर लगा कि वहीं और तत्काल कहीं मलखंब और कुश्ती न शुरू कर देनी पड़े! इत्रपान के उपरांत वे चली गईं।

लेकिन एक बात स्पष्ट थी-जब वे चली गईं तब वे किसी एक अदृष्ट, अवर्ण्य तेज से ओत-प्रोत थीं।

उसके उपरांत फिर झाँसी नगर की स्त्रियाँ संध्या-समय थालों में दीपक सजा-सजाकर और गले में बेला, मोतिया, जाही, जूही इत्यादि की फूल-मालाएँ डाल-डालकर मंदिरों में जाने लगीं। स्त्रियों को ऐसा भास होने लगा जैसे उनका कोई सतत संरक्षण कर रहा हो, जैसे कोई संरक्षक सदा साथ ही रहता हो, जैसे वे अत्याचार का मुकाबला करने की शक्ति का अपने रक्‍त में संचार पा रही हों।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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(भाग 2)

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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(भाग 4)

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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(भाग 13)

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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(भाग 20)

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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(भाग 21)

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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(भाग 22)

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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(भाग 23)

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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(भाग 26)

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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(भाग 27)

16 मई 2022
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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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(भाग 28)

16 मई 2022
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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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