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(भाग 10)

16 मई 2022

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और डंडे पर आ बैठी। झंझट का रूप जरा भयानक हो गया। मामला गंगाधरराव के पास पहुँचा। जाति और धर्म का झगड़ा था, इसलिए उन्होंने दखल देने की ठानी। नए जनेऊवाले लोग बुलाए गए। प्रमुख ब्राह्मण भी।

उस दिन कुछ वाद-विवाद हुआ, राजा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। छोटी जाति के कहे जानेवाले जनेऊधारियों ने नारायण शास्त्री को पेश करने की मुहलत माँगी। एक दिन का समय मिला। उन लोगों ने नारायण शास्त्री को सहज ही राजी कर लिया। उसी दिन बिठूर से तात्या दीक्षित और युवक तात्या झाँसी आए। दीक्षित ने बिठूर का सब समाचार राजा को सुनाया। राजा ने सब शर्तें मंजूर कर लीं। मँगनी की रस्म बिठूर में हो आई थी, परंतु सीमंती इत्यादि विवाह की अन्य रीतियाँ झाँसी में किसी मकान में होकर होंगी, इसका प्रबंध राजा ने अपने कर्मचारियों के सूपुर्द कर दिया। इसके लिए युवक तात्या को झाँसी में दो-एक दिन के लिए ठहरना पड़ा।

दूसरे दिन जनेऊ संबंधी झगड़े की पेशी होने को थी। युवक तात्या भी इस विलक्षण मुकद्दमे को सुनना चाहता था। दरबार में गया। उसको फौजी अफसर की पोशाक पसंद थी। खास तौर पर लोहे की फ्रांसीसी टोपी।

गंगाधरराव ने उसको आदर के साथ बैठाया। बाजीराव पेशवा का कर्मचारी और भविष्य की ससुराल से आया हुआ मेहमान। राजा अपने पदाभिमान के आतंक में आ गए और शास्त्रियों के थोड़े से ही विवाद को सुनने के बाद वे न्‍याय-निष्ठुरता पर जम गए।

राजा ने अपराधियों से पूछा, 'क्या ब्राह्मण बनना चाहते हो?'

अपराधियों में एक अधिक साहसवाला था। उसने उत्तर दिया, 'नहीं तो सरकार!'

'फिर यह अनुचित काम क्‍यों किया?'

'अनुचित तो नहीं सरकार!'

'क्यों रे अनुचित नहीं है?'

'सरकार! ब्राह्मणों के अलावा और अनेक जातियाँ भी तो जनेऊ पहनती हैं।

'अबे बदमाश! उन जातियों की बराबरी करता है?'

वह चुप रहा।

गंगाधरराव का क्रोध चढ़ लेने पर उतरता मुश्किल से था। बोले, 'जनेऊ तोड़कर फेंक दे और फिर कभी आगे न पहनना। उसने हाथ जोड़े और सिर नीचा कर लिया।

राजा ने कड़ककर कहा, 'क्या कहता है? अपने हाथ से तोड़ता है या तुड़वाऊँ?'

उसने उत्तर दिया, 'अपने हाथों तो हम लोग अपने जनेऊ नहीं तोड़ेंगे चाहे प्राण भले ही निकल जावें। आप राजा हैं, चाहे जो करें।' गंगाधरराव की आँखों के लाल डोरे रक्त हो गए। चोबदार को हुक्म दिया, 'एक पतला तार लाओ। ताँबा, लोहा किसी का भी। जल्दी लाओ।'

वह दौड़कर ले आया। आग मँगवाई गईं। तार को जनेऊ का आकार बनाकर गरम किया गया। आज्ञा दी, 'यह गरम जनेऊ इसको पहनाओ।'

अपराधी ने गर्व से सिर ऊँचा किया। आकाश की ओर एक क्षण के लिए हाथ बाँधकर देखा और फिर नतमस्तक हो गया। वह गरम जनेऊ उसके कंधे को छुआया ही था कि युवक तात्या ने विनय की, 'महाराज, धर्म की रक्षा करिए। यह ठीक नहीं है।'

गंगाधरराव ने वह गरम जनेऊ तुरंत अलग कर दिया। युवक से बोले, 'श्रीमंत पेशवा भी तो यह दंड देते।'

'नहीं सरकार,' युवक ने निर्भयता के साथ सम्मति दी, 'धर्म अपने-अपने विश्वास की बात है। इसमें राज्य को तटस्थ रहना चाहिए।'

'लोकाचार भी ?' गंगाधरराव ने जरा-सा मुसकराकर प्रश्न किया।

'हाँ महाराज,' युवक ने विनीत और मधुर स्वर में उत्तर दिया, 'लोकाचार समय- समय पर बदलते रहते हैं।'

गंगाधरराव के क्रोध ने कुछ ठंडक पाई। उनकी दृष्टि उस युवक के टोपे पर जा टिकी। कुछ क्षण ठहरी। कुतूहलवश पूछा, 'यह टोप क्यों लगाते हो?'

युवक ने उत्तर दिया, 'मैं सिपाही हूँ।'

राजा को इस उत्तर पर हँसी आई। बोले, 'हमारे यहाँ तात्या दीक्षित एक शास्त्रज्ञ ब्राह्मण हैं, सो जानते ही हो। तुम सिपाही ब्राह्मण हो परंतु नाम से बुलाने में कभी-कभी गड़बड़ हो सकती है। इसलिए तुमको तात्या टोपीवाले या सीधे टोपे कहें तो कैसा?'

हँसकर युवक ने जवाब दिया, 'श्रीमंत सरकार, मुझको इसी छोटे से नाम से लोग पुकारते हैं।'

"मुझे भी पसंद है। राजा ने कहा। फिर जनेऊवाले अपराधियों को बनावटी रूखे स्वर में डाँटते हुए बोले, 'इस यवक ने तुमको बचा लिया-भाग जाओ।'

वे लोग चले गए। राजा ने तात्या टोपे को नाटकशाला के लिए आमंत्रित करते हुए कहा, 'टोपे, आज रात को हमारी नाटकशाला में रत्नावली नाटक खेला जाएगा। आना। बहुत अच्छा अभिनय, गायन-वादन और नृत्य है। पहले कभी देखा?'

'नहीं सरकार, टोपे ने उत्तर दिया।

'पढ़ा है?' दूसरा प्रश्न किया गया।

'नहीं सरकार,' टोपे ने उत्तर दिया।

'समय से जरा पहले आ जाना,' राजा ने प्रस्ताव किया, 'मैं तुमको कथानक वहीं बतलाऊँगा।'

संध्या के कुछ घड़ी पीछे तात्या टोपे नाटकशाला पहुँच गया। राजा ने रत्नावली का कथानक उत्साहपूर्वक सुनाया और रंगमंच पर आनेवाले अभिनेताओं के नाम और गुण बतलाए। कहा, 'रानी वासवदता का अभिनय मोतीबाई करेगी। बड़ी कलावती है और सागरिका अर्थात्‌ रत्नावली का अभिनय जूही करेगी। नृत्य बहुत अच्छा करती है। गाती भी है। नाटकशाला में हाल ही में आई है।'

नाटक समय पर शुरू हो गया।

राजा के निकट बैठे हुए नवागंतुक तात्या टोपे को सभी पात्र बहुधा देखते थे। सुंदर, बलिष्ठ और किसी उमंग में तना हुआ। और सिर पर विलक्षण टोपी!

रानी वासवदत्ता का अभिनय मोतीलाई ने बहुत अच्छा किया। सागरिका (रत्नावली) का अभिनय जूही ने खूब निभाया। नाची भी बहुत अच्छा। टोपे को वह बहुत भला लगा। परंतु उसके मुँह से 'वाह' या 'आह' कुछ भी नहीं निकला।

नाटक की समाप्ति पर गंगाधरराव रंगशाला के श्रृंगार-कक्ष में नहीं गए। टोपे से पूछा, 'कैसा रहा?'

टोपे ने जबाब दिया, 'सरकार ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही सब हुआ है।'

'नृत्य कैसा था जूही का?' राजा ने सवाल किया।

टोपे ने सावधानी के साथ जवाब दिया, 'मैंने इससे पहले नृत्य देखे ही नहीं हैं। मुझे तो बड़ा विलक्षण जान पड़ा।'

राजा प्रसन्‍न हुए। उन्होंने प्रस्ताव किया, 'थोड़े दिन ठहर न जाओ झाँसी में? कुछ और अच्छे-अच्छे अभिनय देखने को मिलेंगे।'

टोपे ने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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