पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और डंडे पर आ बैठी। झंझट का रूप जरा भयानक हो गया। मामला गंगाधरराव के पास पहुँचा। जाति और धर्म का झगड़ा था, इसलिए उन्होंने दखल देने की ठानी। नए जनेऊवाले लोग बुलाए गए। प्रमुख ब्राह्मण भी।
उस दिन कुछ वाद-विवाद हुआ, राजा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। छोटी जाति के कहे जानेवाले जनेऊधारियों ने नारायण शास्त्री को पेश करने की मुहलत माँगी। एक दिन का समय मिला। उन लोगों ने नारायण शास्त्री को सहज ही राजी कर लिया। उसी दिन बिठूर से तात्या दीक्षित और युवक तात्या झाँसी आए। दीक्षित ने बिठूर का सब समाचार राजा को सुनाया। राजा ने सब शर्तें मंजूर कर लीं। मँगनी की रस्म बिठूर में हो आई थी, परंतु सीमंती इत्यादि विवाह की अन्य रीतियाँ झाँसी में किसी मकान में होकर होंगी, इसका प्रबंध राजा ने अपने कर्मचारियों के सूपुर्द कर दिया। इसके लिए युवक तात्या को झाँसी में दो-एक दिन के लिए ठहरना पड़ा।
दूसरे दिन जनेऊ संबंधी झगड़े की पेशी होने को थी। युवक तात्या भी इस विलक्षण मुकद्दमे को सुनना चाहता था। दरबार में गया। उसको फौजी अफसर की पोशाक पसंद थी। खास तौर पर लोहे की फ्रांसीसी टोपी।
गंगाधरराव ने उसको आदर के साथ बैठाया। बाजीराव पेशवा का कर्मचारी और भविष्य की ससुराल से आया हुआ मेहमान। राजा अपने पदाभिमान के आतंक में आ गए और शास्त्रियों के थोड़े से ही विवाद को सुनने के बाद वे न्याय-निष्ठुरता पर जम गए।
राजा ने अपराधियों से पूछा, 'क्या ब्राह्मण बनना चाहते हो?'
अपराधियों में एक अधिक साहसवाला था। उसने उत्तर दिया, 'नहीं तो सरकार!'
'फिर यह अनुचित काम क्यों किया?'
'अनुचित तो नहीं सरकार!'
'क्यों रे अनुचित नहीं है?'
'सरकार! ब्राह्मणों के अलावा और अनेक जातियाँ भी तो जनेऊ पहनती हैं।
'अबे बदमाश! उन जातियों की बराबरी करता है?'
वह चुप रहा।
गंगाधरराव का क्रोध चढ़ लेने पर उतरता मुश्किल से था। बोले, 'जनेऊ तोड़कर फेंक दे और फिर कभी आगे न पहनना। उसने हाथ जोड़े और सिर नीचा कर लिया।
राजा ने कड़ककर कहा, 'क्या कहता है? अपने हाथ से तोड़ता है या तुड़वाऊँ?'
उसने उत्तर दिया, 'अपने हाथों तो हम लोग अपने जनेऊ नहीं तोड़ेंगे चाहे प्राण भले ही निकल जावें। आप राजा हैं, चाहे जो करें।' गंगाधरराव की आँखों के लाल डोरे रक्त हो गए। चोबदार को हुक्म दिया, 'एक पतला तार लाओ। ताँबा, लोहा किसी का भी। जल्दी लाओ।'
वह दौड़कर ले आया। आग मँगवाई गईं। तार को जनेऊ का आकार बनाकर गरम किया गया। आज्ञा दी, 'यह गरम जनेऊ इसको पहनाओ।'
अपराधी ने गर्व से सिर ऊँचा किया। आकाश की ओर एक क्षण के लिए हाथ बाँधकर देखा और फिर नतमस्तक हो गया। वह गरम जनेऊ उसके कंधे को छुआया ही था कि युवक तात्या ने विनय की, 'महाराज, धर्म की रक्षा करिए। यह ठीक नहीं है।'
गंगाधरराव ने वह गरम जनेऊ तुरंत अलग कर दिया। युवक से बोले, 'श्रीमंत पेशवा भी तो यह दंड देते।'
'नहीं सरकार,' युवक ने निर्भयता के साथ सम्मति दी, 'धर्म अपने-अपने विश्वास की बात है। इसमें राज्य को तटस्थ रहना चाहिए।'
'लोकाचार भी ?' गंगाधरराव ने जरा-सा मुसकराकर प्रश्न किया।
'हाँ महाराज,' युवक ने विनीत और मधुर स्वर में उत्तर दिया, 'लोकाचार समय- समय पर बदलते रहते हैं।'
गंगाधरराव के क्रोध ने कुछ ठंडक पाई। उनकी दृष्टि उस युवक के टोपे पर जा टिकी। कुछ क्षण ठहरी। कुतूहलवश पूछा, 'यह टोप क्यों लगाते हो?'
युवक ने उत्तर दिया, 'मैं सिपाही हूँ।'
राजा को इस उत्तर पर हँसी आई। बोले, 'हमारे यहाँ तात्या दीक्षित एक शास्त्रज्ञ ब्राह्मण हैं, सो जानते ही हो। तुम सिपाही ब्राह्मण हो परंतु नाम से बुलाने में कभी-कभी गड़बड़ हो सकती है। इसलिए तुमको तात्या टोपीवाले या सीधे टोपे कहें तो कैसा?'
हँसकर युवक ने जवाब दिया, 'श्रीमंत सरकार, मुझको इसी छोटे से नाम से लोग पुकारते हैं।'
"मुझे भी पसंद है। राजा ने कहा। फिर जनेऊवाले अपराधियों को बनावटी रूखे स्वर में डाँटते हुए बोले, 'इस यवक ने तुमको बचा लिया-भाग जाओ।'
वे लोग चले गए। राजा ने तात्या टोपे को नाटकशाला के लिए आमंत्रित करते हुए कहा, 'टोपे, आज रात को हमारी नाटकशाला में रत्नावली नाटक खेला जाएगा। आना। बहुत अच्छा अभिनय, गायन-वादन और नृत्य है। पहले कभी देखा?'
'नहीं सरकार, टोपे ने उत्तर दिया।
'पढ़ा है?' दूसरा प्रश्न किया गया।
'नहीं सरकार,' टोपे ने उत्तर दिया।
'समय से जरा पहले आ जाना,' राजा ने प्रस्ताव किया, 'मैं तुमको कथानक वहीं बतलाऊँगा।'
संध्या के कुछ घड़ी पीछे तात्या टोपे नाटकशाला पहुँच गया। राजा ने रत्नावली का कथानक उत्साहपूर्वक सुनाया और रंगमंच पर आनेवाले अभिनेताओं के नाम और गुण बतलाए। कहा, 'रानी वासवदता का अभिनय मोतीबाई करेगी। बड़ी कलावती है और सागरिका अर्थात् रत्नावली का अभिनय जूही करेगी। नृत्य बहुत अच्छा करती है। गाती भी है। नाटकशाला में हाल ही में आई है।'
नाटक समय पर शुरू हो गया।
राजा के निकट बैठे हुए नवागंतुक तात्या टोपे को सभी पात्र बहुधा देखते थे। सुंदर, बलिष्ठ और किसी उमंग में तना हुआ। और सिर पर विलक्षण टोपी!
रानी वासवदत्ता का अभिनय मोतीलाई ने बहुत अच्छा किया। सागरिका (रत्नावली) का अभिनय जूही ने खूब निभाया। नाची भी बहुत अच्छा। टोपे को वह बहुत भला लगा। परंतु उसके मुँह से 'वाह' या 'आह' कुछ भी नहीं निकला।
नाटक की समाप्ति पर गंगाधरराव रंगशाला के श्रृंगार-कक्ष में नहीं गए। टोपे से पूछा, 'कैसा रहा?'
टोपे ने जबाब दिया, 'सरकार ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही सब हुआ है।'
'नृत्य कैसा था जूही का?' राजा ने सवाल किया।
टोपे ने सावधानी के साथ जवाब दिया, 'मैंने इससे पहले नृत्य देखे ही नहीं हैं। मुझे तो बड़ा विलक्षण जान पड़ा।'
राजा प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रस्ताव किया, 'थोड़े दिन ठहर न जाओ झाँसी में? कुछ और अच्छे-अच्छे अभिनय देखने को मिलेंगे।'
टोपे ने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया।