राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत् १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए। लक्ष्मीबाई साथ थीं। उनको किले में बंद रहना पड़ता था; इस यात्रा में भी तामझाम इत्यादि बंद सवारियों में चलना पड़ा, परंतु नए-नए स्थान देखने के अवसर मिले। इस कारण बंधनों का क्लेश न अखरा। काशी-यात्रा में उनको देव-दर्शान जन्मगृह दर्शन प्राप्त हुए।
गंगाधरराव का क्रोध समय-कुसमय न देखता था। एक दिन काशी नगर में सैर के लिए निकले। मार्ग में एक बेचारा राजेंद्र बाबू पड़ गया। उसने प्रणाम तो किया, परंतु खड़े होकर ताजीम नहीं दी। शामत आ गईं। गंगाधरराव ने उसको बेहद पिटवाया। उसने कंपनी सरकार में फरियाद की।
जवाब मिला, 'गंगाधरराव एक बड़े राजा हैं। यदि तुमको खड़े होकर ताजीम देना पसंद न था तो अपने घर पर बैठे रहते!'
रानी को यह सब देख-सुनकर काफी क्लेश हुआ था।
तीर्थयात्रा के लिए झाँसी छोड़ने के पहले गंगाधरराव को कंपनी सरकार ने शासन के अधिकार वापस किए तब, पहले का जमा किया हुआ तीस लाख रुपया उसको लौटाया था। उसका उन्होंने अपव्यय किया। अपने अनेक हाथियों में उनको सिद्धबकस नामक हाथी बहुत प्यारा था। उसका सारा सामान सोने का बनवाया। और भी अनेक हाथी-घोड़ों का सामान अंबरी, हौदा, जीन, झूले इत्यादि सोने के बनवाए। काशी से एक तामझाम, जिस पर बढ़िया नक्काशी का काम था, बहुत कीमत देकर मँगवाया। और भी काफी राजसी-ठाठ इकट्ठा किया। राजा प्रदर्शन के बहुत प्रेमी थे। रानी को प्रदर्शन बहुत कम पसंद था। परंतु उनको राजा की एक बात अच्छी लगी-उन्होंने पाँच हजार के लगभग सेना कर ली, लगभग दो सहस्र गोल पुलिस, पाँच सौ घोड़ों का रिसाला, सौ खास पायगा के सिपाही और चार तोपखाने।
झाँसी राज्य में और बुंदेललंड में लगभग हर जगह आततायी और डाकू-बटमार बड़ा उपद्रव कर रहे थे। गंगाधरराव ने अपने कठोर शासन से उनका दमन किया। इस कार्य में उनको अपने प्रधानमंत्री राघव रामचंद्र पंत, दरबार वकील नरसिंहराव और न्यायाधीश वृद्ध नाना भोपटकर से बहुत सहायता मिली। राजा के शासन से अंग्रेज संतुष्ट थे, क्योंकि उपद्रवों को शांत करना ही राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य समझा जाता था।
राजा गंगाधरराव ने कई मौकों पर अंग्रेजों की बहुत सहायता की। एक बार अपने विश्वस्त साथी और फौजी अफसर दीवान रघुनाथसिह को कुछ सिपाहियों के साथ मुहिम पर भेज दिया। दीवान रघुनाथरसिह आज्ञाकारी योद्धा था। उसने बड़ी वीरता के साथ अपना कर्तव्य-पालन किया। राजा गंगाधरराव को अंग्रेजों की मैत्री और भी बढ़ी हुई मात्रा में मिली और दीवान रघुनाथसिह को इंग्लैंड और कंपनी सरकार की रानी विक्टोरिया की ओर से एक प्रशंसा-पत्र तथा खड़ग मिला।
परंतु रानी लक्ष्मीबाई को अपने पति के इस यज्ञ पर हर्ष नहीं हुआ और न संतोष। अभी उनकी आयु लगभग १५ वर्ष की होगी, परंतु उनका आचार-विचार आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली परिपक्वता का-सा प्रतीत होता था। उस युग की लड़कियाँ जिस आयु में खेलना-खाना, पहनना-ओढ़ना ही सब कुछ समझती होंगी, उस आयु में लक्ष्मीबाई गंभीर और गंभीरतर होती चली गई।
छुटपन की छबीली मनू, लक्ष्मीबाई के विशाल आदर्शों में विलीन हो गई।