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(भाग 16)

16 मई 2022

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है।

गंगाधरराव अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न पहले से कर रहे थे। विवाह के उपरांत उनको अधिकार मिल गया। परंतु अधिकार मिलने के पहले कंपनी सरकार के साथ फिर एक अहदनामा हुआ। पुरानी बातें पुष्ट की गईं।

केवल एक बात नई हुई -झाँसी में अंग्रेजी फौज रखी जाएगी अंग्रेजी हुकूमत में, पर खर्चा झाँसी का राज्य देगा। गंगाधरराव को मानना पड़ा। मन को खटका। उन्होंने नकद खर्चा न देकर कंपनी सरकार का आग्रह निभाने के लिए झाँसी के राज्य से २ लाख २७ हजार चार सौ अट्टावन रुपए वार्षिक आय का एक इलाका इन राज्य-लोलपों को दे दिया। जब यह सब हो गया तब गंगाधरराव को शासन का अधिकार मिल पाया। इसके बाद दरबार हुआ। खुशियाँ मनाई गईं। खेल-कूद, नाटक इत्यादि हुए, परंतु अनेक झाँसी निवासियों को उनमें खोखलापन ही दिखलाई पड़ा। उनको अपने प्रदेश का खंडित होना कसका।

स्वयं राजा को नाटकशाला में यथेष्ट मनोरंजन नहीं मिल सका। वे शीघ्र वहाँ से चले आए और रंगमहल में रानी के पास पहुँचे।

रानी किलेवाले महल ही में प्राय: रहती थीं। बाहर बहुत कम निकल पाती थीं। जब निकलती तब परदे की कैद में। इसलिए सवारी, व्यायाम इत्यादि किलेवाले महल के इर्द-गिर्द आड़-ओट से कर पाती थीं, तो भी वे काफी समय इन बातों में लगाती थीं और अपनी समग्र सहेलियों तथा किले के भीतर रहनेवाली रित्रयों को सवारी, शस्त्र-प्रयोग, मलखंब, कुश्ती का अभ्यास कराती थीं। बचे हुए समय में धार्मिक ग्रंथों का थोड़ा-सा परंतु नियमपूर्वक अध्ययन करतीं। भगवद्गीता पर उनकी परम श्रद्धा थी। बाल्यावस्था को पार कर यौवन में पदार्पण करने को थीं परंतु नए-नए वस्त्र, कीमती आभूषणों का शौक न करके उनकी धुन ऊपर लिखी बातों की ओर अधिक रहती थी।

झाँसी आने के बाद चपल, सुखी मनू में एक परिवर्तन धीरे-धीरे घर करता जा रहा था-वे अब उतना नहीं बोलती थीं। रानी लक्ष्मीबाई में गंभीरता जगह करती जा रही थी और क्रुद्ध हो जाने की वृत्ति तो और भी अधिक शीघ्रता के साथ घुलती चली जा रही थी। व्यंग्य करने की इच्छा जरूर कुछ बढ़ती पर थी परंतु वह सहज, सरल, भव्य दिव्य मुसकान सदा साथ रही। और चित्त की दृढ़ता तो पूर्वजन्मों से संचित होकर मानो छठी के दिन ही ब्रह्मा ने पूरी समूची उनके हिस्से में रख दी थी।

रंगमहल में आने पर रानी ने गंगाधरराव का सत्कार जैसा कि हिंदू नारी-और पत्नी-कर सकती है, किया।

राजा अपने भावों को छिपा पाने में असमर्थ थे। उनको इसका अभ्यास न था। चेहरे पर रुखाई थी और आँखों में उदासी।

रानी ने कहा, 'आज आप नाटकशाला से जल्दी लौट आए। खेल अच्छा नहीं हुआ क्या?'

राजा बोले, 'खेल तो सदा अच्छा होता है। मन नहीं लगा। एक नए खेल की तैयारी के लिए कह आया हूँ।'

रानी-'कौन-सा?'

राजा- 'मृच्छकटिक?'

रानी-'यह क्या है?'

राजा-'शूद्रक कवि ने संस्कृत में लिखा है! मैंने हिंदी में उल्था करवाया है। चारूदत्त ब्राह्मण और वसंतसेना के प्रेम की अद्भुत कहानी है। आप देखने चलोगी? '

रानी-'नहीं।

राजा-'घोड़े की सवारी, कुश्ती, मलखंब के सिवाय आपको और भी कुछ पसंद है या नहीं?'

रानी-'अवश्य। सहेलियों को अपना-सा बनाना। उनको अवसर-कुअवसर पड़े पुरुषों की सहायता करने में पीछे पैर न देने की सीख देना, घर की सफाई, स्वच्छता इत्यादि बनाए रखना, काफी काम है।'

राजा-'इन सबको मोटा-तगड़ा बनाकर आप क्‍या करने जा रही हैं?'

रानी-'अभी तो मुझको भी नहीं मालूम। पर देह और मन को सबल बना लेना क्या कोई कम महत्त्व का काम है?'

राजा-'व्यर्थ है। घर का ही इतना काफी काम स्त्रियों के लिए संसार में है कि उनको घुड़सवारी इत्यादि की ओर खींच ले जाना फूहड़ बनाना है।'

रानी-'और नाचना-गाना?'

राजा-'अकेले में सभी स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। परंतु यदि वे इन विद्याओं को ढंग से सीखें तो शरीर और मन दोनों के लिए काफी कसरत पा सकती हैं।'

रानी-'हाँ, स्वराज्य स्थापित है। अब सिवाय हँसने-खेलने के नर-नारियों के लिए और काम ही क्या बचा है? देखिए न, किस आराम के साथ झाँसी राज्य का पंचआंस से अधिक अंग्रेजों के हाथ में दे दिया गया। आपका वह मित्र गार्डन भी नाटकशाला में आता होगा?'

राजा-'अंग्रेज लोग खूब हँसते-खेलते और नाचते -गाते हैं।'

रानी-'और नाचते -गाते ही पूरे हिंदुस्थान को रोंदते चले जाते हैं! खेल तो बढ़िया है।'

राजा-'हमारे यहाँ फूट है। गाँव-गाँव में उपद्रवी, डाकू और बटमार भरे हुए हैं। अंग्रेजों के पास हथियार अच्छे हैं। इसलिए उन्होंने राज्य कायम कर लिया।'

रानी-'नाटकशाला में जो हथियार बनते हैं, उनसे क्‍या अंग्रेज नहीं हराए जा सकते हैं?'

राजा को यह व्यंग्य अखर गया। पर जिस मुसकान के साथ वह निसृत हुआ था, वह आकर्षक थी। साथ ही, मोतीबाई, जूही इत्यादि कल्पना में बिजली की तरह कौंध गईं और आगे आनेवाले मृच्छकटिक नाटक के अभिनय ने एक उमंग पैदा की, रानी की मुसकान का आकर्षण उसी क्षण तिरोहित हो गया और उसके साथ ही उठता हुआ क्षोभ। बोले, 'आप कभी-कभी बहुत बड़ी चोट कर बैठती हैं।'

रानी ने अदम्य भाव से कहा, 'आपके यहाँ भाट क्या केवल प्रशंसा और यशगान ही करते हैं या कभी-कभी कड़खा भी सुनाते हैं?”

राजा का क्षोभ उभड़ा परंतु उन्होंने उसको वहीं का वहीं दबाने का प्रयत्न किया और विषयांतर करते हुए बोले, 'हमारे यहाँ कवि, चित्रकार इत्यादि अनेक कलाकार हैं।'

रानी ने भी बात न बढ़ाते हुए पूछा, 'कवि कौन हैं और क्या करते हैं?”

राजा ने भी उत्तर दिया, 'एक हृदयेश है। अच्छा कवि है। एक पजनेश है। रंगीन है। कहता अच्छे ढंग से है।'

'ये लोग क्‍या लिखते हैं?'

'राधागोविंद का प्रेम-वर्णन, नखशिख, नायिका-भेद'

'नखशिख, नायिका-भेद क्‍या?'

'राधा या गोपियों की चोटी से लेकर एड़ी तक का कोमल वर्णन। यह नखशिख हुआ। नाना प्रकार की सुंदर स्त्रियों की वृत्तियों का विविध वर्णन, यह नायिका-भेद है।'

'अर्थात्‌ स्त्रियों के पूरे शरीर की सूक्ष्म जाँच-पड़ताल, और इस काम के लिए इन लोगों को इनाम-पुरस्कार भी दिए जाते होंगे?'

राजा जरा झेंपे, परंतु सहमे नहीं। बोले, 'इस प्रकार की कविता करने में बहुत विद्वत्ता और मेहनत खर्च करनी पड़ती है। इसलिए उनको पुरस्कार दिया जाता है। वे लोग राजदरबार की शोभा हैं।'

रानी ने फिर उसी मुसकराहट के साथ पूछा, 'भूषण को छत्रपति शिवाजी क्या इसी तरह की कविता के लिए बढ़ावा दिया करते थे? भूषण तो दरबार की शोभा रहे होंगे?'

राजा इस व्यंग्य से चिढ़ गए और क्षोभ को दबा न सके।

बोले, 'आप हमेशा छत्रपति और पंत प्रधान बाजीराव और न जाने किन-किन का नाम दिन-रात रटा करती हैं। मैंने कई बार कहा कि इन बातों की छेड़छाड़ में अब कोई सार नहीं।'

रानी ने कहा, 'मैं तो विनती किया करती हूँ कि उन बातों को बतलाइए जिनमें सार हो।'

राजा-'आप राज्य का प्रबंध करना सीखिए। मैं भी इस ओर ध्यान देता हूँ। अच्छी व्यवस्था बनी रहेगी तो राज्य बचा रहेगा अन्यथा अंग्रेज फिर इसको अपनी देख-रेख में ले लेंगे-या शायद राज्य को खत्म करके अपना अधिकार बरतने लग जाएँ।'

रानी-'उस समय क्‍या नाटकशालावाले किसी काम न आएँगे?'

राजा के हृदय में आग-सी लग गई। कुछ कहना चाहते थे, कुछ कह गए, 'आपके मन में हठ नगर-कोट बाहर घोड़े पर घूमने का है और सखी-सहेलियाँ भी

जंगल-टौरियों पर साथ में घोड़े कुदाएँ तो इससे बढ़कर न राज्य है, न राज्य-प्रबंध और न बिचारी नाटकशाला। ठीक है न?'

रानी के ऊपर उनके क्रोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बोली, 'मेरे-आपके दोनों के लिए यह विशाल महल क्‍या कम है?!

राजा पर इस व्यंग्य की चोट पड़ गई पर वे गुस्से को पीने लगे। कूछ सोचकर पूछा, 'क्या सचमुच आपको नाटकशाला का मेरा मनोरंजन नापसंद है?'

रानी ने तुरंत उत्तर दिया, 'इन दिनों अब इससे अधिक और हो ही क्या सकता है? राज्य का काम चलाने के लिए दीवान है। डाकुओं का दमन करने और प्रजा को ठीक पथ पर चाल्‌ रखने के लिए अंग्रेजी सेना है ही। इस पर यदि कोई गलती हो गई तो कंपनी के एजेंट की खुशामद कर ली। बस, सब काम ज्यों-का-त्यों मनमाना चलता रहा।' रानी मुसकाने लगी।

इस बात में रानी की विलक्षण बुद्धि का आभास पाकर राजा को जरा विस्मय हुआ। उनके होंठों पर बरबस हँसी आई।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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