विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है।
गंगाधरराव अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न पहले से कर रहे थे। विवाह के उपरांत उनको अधिकार मिल गया। परंतु अधिकार मिलने के पहले कंपनी सरकार के साथ फिर एक अहदनामा हुआ। पुरानी बातें पुष्ट की गईं।
केवल एक बात नई हुई -झाँसी में अंग्रेजी फौज रखी जाएगी अंग्रेजी हुकूमत में, पर खर्चा झाँसी का राज्य देगा। गंगाधरराव को मानना पड़ा। मन को खटका। उन्होंने नकद खर्चा न देकर कंपनी सरकार का आग्रह निभाने के लिए झाँसी के राज्य से २ लाख २७ हजार चार सौ अट्टावन रुपए वार्षिक आय का एक इलाका इन राज्य-लोलपों को दे दिया। जब यह सब हो गया तब गंगाधरराव को शासन का अधिकार मिल पाया। इसके बाद दरबार हुआ। खुशियाँ मनाई गईं। खेल-कूद, नाटक इत्यादि हुए, परंतु अनेक झाँसी निवासियों को उनमें खोखलापन ही दिखलाई पड़ा। उनको अपने प्रदेश का खंडित होना कसका।
स्वयं राजा को नाटकशाला में यथेष्ट मनोरंजन नहीं मिल सका। वे शीघ्र वहाँ से चले आए और रंगमहल में रानी के पास पहुँचे।
रानी किलेवाले महल ही में प्राय: रहती थीं। बाहर बहुत कम निकल पाती थीं। जब निकलती तब परदे की कैद में। इसलिए सवारी, व्यायाम इत्यादि किलेवाले महल के इर्द-गिर्द आड़-ओट से कर पाती थीं, तो भी वे काफी समय इन बातों में लगाती थीं और अपनी समग्र सहेलियों तथा किले के भीतर रहनेवाली रित्रयों को सवारी, शस्त्र-प्रयोग, मलखंब, कुश्ती का अभ्यास कराती थीं। बचे हुए समय में धार्मिक ग्रंथों का थोड़ा-सा परंतु नियमपूर्वक अध्ययन करतीं। भगवद्गीता पर उनकी परम श्रद्धा थी। बाल्यावस्था को पार कर यौवन में पदार्पण करने को थीं परंतु नए-नए वस्त्र, कीमती आभूषणों का शौक न करके उनकी धुन ऊपर लिखी बातों की ओर अधिक रहती थी।
झाँसी आने के बाद चपल, सुखी मनू में एक परिवर्तन धीरे-धीरे घर करता जा रहा था-वे अब उतना नहीं बोलती थीं। रानी लक्ष्मीबाई में गंभीरता जगह करती जा रही थी और क्रुद्ध हो जाने की वृत्ति तो और भी अधिक शीघ्रता के साथ घुलती चली जा रही थी। व्यंग्य करने की इच्छा जरूर कुछ बढ़ती पर थी परंतु वह सहज, सरल, भव्य दिव्य मुसकान सदा साथ रही। और चित्त की दृढ़ता तो पूर्वजन्मों से संचित होकर मानो छठी के दिन ही ब्रह्मा ने पूरी समूची उनके हिस्से में रख दी थी।
रंगमहल में आने पर रानी ने गंगाधरराव का सत्कार जैसा कि हिंदू नारी-और पत्नी-कर सकती है, किया।
राजा अपने भावों को छिपा पाने में असमर्थ थे। उनको इसका अभ्यास न था। चेहरे पर रुखाई थी और आँखों में उदासी।
रानी ने कहा, 'आज आप नाटकशाला से जल्दी लौट आए। खेल अच्छा नहीं हुआ क्या?'
राजा बोले, 'खेल तो सदा अच्छा होता है। मन नहीं लगा। एक नए खेल की तैयारी के लिए कह आया हूँ।'
रानी-'कौन-सा?'
राजा- 'मृच्छकटिक?'
रानी-'यह क्या है?'
राजा-'शूद्रक कवि ने संस्कृत में लिखा है! मैंने हिंदी में उल्था करवाया है। चारूदत्त ब्राह्मण और वसंतसेना के प्रेम की अद्भुत कहानी है। आप देखने चलोगी? '
रानी-'नहीं।
राजा-'घोड़े की सवारी, कुश्ती, मलखंब के सिवाय आपको और भी कुछ पसंद है या नहीं?'
रानी-'अवश्य। सहेलियों को अपना-सा बनाना। उनको अवसर-कुअवसर पड़े पुरुषों की सहायता करने में पीछे पैर न देने की सीख देना, घर की सफाई, स्वच्छता इत्यादि बनाए रखना, काफी काम है।'
राजा-'इन सबको मोटा-तगड़ा बनाकर आप क्या करने जा रही हैं?'
रानी-'अभी तो मुझको भी नहीं मालूम। पर देह और मन को सबल बना लेना क्या कोई कम महत्त्व का काम है?'
राजा-'व्यर्थ है। घर का ही इतना काफी काम स्त्रियों के लिए संसार में है कि उनको घुड़सवारी इत्यादि की ओर खींच ले जाना फूहड़ बनाना है।'
रानी-'और नाचना-गाना?'
राजा-'अकेले में सभी स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। परंतु यदि वे इन विद्याओं को ढंग से सीखें तो शरीर और मन दोनों के लिए काफी कसरत पा सकती हैं।'
रानी-'हाँ, स्वराज्य स्थापित है। अब सिवाय हँसने-खेलने के नर-नारियों के लिए और काम ही क्या बचा है? देखिए न, किस आराम के साथ झाँसी राज्य का पंचआंस से अधिक अंग्रेजों के हाथ में दे दिया गया। आपका वह मित्र गार्डन भी नाटकशाला में आता होगा?'
राजा-'अंग्रेज लोग खूब हँसते-खेलते और नाचते -गाते हैं।'
रानी-'और नाचते -गाते ही पूरे हिंदुस्थान को रोंदते चले जाते हैं! खेल तो बढ़िया है।'
राजा-'हमारे यहाँ फूट है। गाँव-गाँव में उपद्रवी, डाकू और बटमार भरे हुए हैं। अंग्रेजों के पास हथियार अच्छे हैं। इसलिए उन्होंने राज्य कायम कर लिया।'
रानी-'नाटकशाला में जो हथियार बनते हैं, उनसे क्या अंग्रेज नहीं हराए जा सकते हैं?'
राजा को यह व्यंग्य अखर गया। पर जिस मुसकान के साथ वह निसृत हुआ था, वह आकर्षक थी। साथ ही, मोतीबाई, जूही इत्यादि कल्पना में बिजली की तरह कौंध गईं और आगे आनेवाले मृच्छकटिक नाटक के अभिनय ने एक उमंग पैदा की, रानी की मुसकान का आकर्षण उसी क्षण तिरोहित हो गया और उसके साथ ही उठता हुआ क्षोभ। बोले, 'आप कभी-कभी बहुत बड़ी चोट कर बैठती हैं।'
रानी ने अदम्य भाव से कहा, 'आपके यहाँ भाट क्या केवल प्रशंसा और यशगान ही करते हैं या कभी-कभी कड़खा भी सुनाते हैं?”
राजा का क्षोभ उभड़ा परंतु उन्होंने उसको वहीं का वहीं दबाने का प्रयत्न किया और विषयांतर करते हुए बोले, 'हमारे यहाँ कवि, चित्रकार इत्यादि अनेक कलाकार हैं।'
रानी ने भी बात न बढ़ाते हुए पूछा, 'कवि कौन हैं और क्या करते हैं?”
राजा ने भी उत्तर दिया, 'एक हृदयेश है। अच्छा कवि है। एक पजनेश है। रंगीन है। कहता अच्छे ढंग से है।'
'ये लोग क्या लिखते हैं?'
'राधागोविंद का प्रेम-वर्णन, नखशिख, नायिका-भेद'
'नखशिख, नायिका-भेद क्या?'
'राधा या गोपियों की चोटी से लेकर एड़ी तक का कोमल वर्णन। यह नखशिख हुआ। नाना प्रकार की सुंदर स्त्रियों की वृत्तियों का विविध वर्णन, यह नायिका-भेद है।'
'अर्थात् स्त्रियों के पूरे शरीर की सूक्ष्म जाँच-पड़ताल, और इस काम के लिए इन लोगों को इनाम-पुरस्कार भी दिए जाते होंगे?'
राजा जरा झेंपे, परंतु सहमे नहीं। बोले, 'इस प्रकार की कविता करने में बहुत विद्वत्ता और मेहनत खर्च करनी पड़ती है। इसलिए उनको पुरस्कार दिया जाता है। वे लोग राजदरबार की शोभा हैं।'
रानी ने फिर उसी मुसकराहट के साथ पूछा, 'भूषण को छत्रपति शिवाजी क्या इसी तरह की कविता के लिए बढ़ावा दिया करते थे? भूषण तो दरबार की शोभा रहे होंगे?'
राजा इस व्यंग्य से चिढ़ गए और क्षोभ को दबा न सके।
बोले, 'आप हमेशा छत्रपति और पंत प्रधान बाजीराव और न जाने किन-किन का नाम दिन-रात रटा करती हैं। मैंने कई बार कहा कि इन बातों की छेड़छाड़ में अब कोई सार नहीं।'
रानी ने कहा, 'मैं तो विनती किया करती हूँ कि उन बातों को बतलाइए जिनमें सार हो।'
राजा-'आप राज्य का प्रबंध करना सीखिए। मैं भी इस ओर ध्यान देता हूँ। अच्छी व्यवस्था बनी रहेगी तो राज्य बचा रहेगा अन्यथा अंग्रेज फिर इसको अपनी देख-रेख में ले लेंगे-या शायद राज्य को खत्म करके अपना अधिकार बरतने लग जाएँ।'
रानी-'उस समय क्या नाटकशालावाले किसी काम न आएँगे?'
राजा के हृदय में आग-सी लग गई। कुछ कहना चाहते थे, कुछ कह गए, 'आपके मन में हठ नगर-कोट बाहर घोड़े पर घूमने का है और सखी-सहेलियाँ भी
जंगल-टौरियों पर साथ में घोड़े कुदाएँ तो इससे बढ़कर न राज्य है, न राज्य-प्रबंध और न बिचारी नाटकशाला। ठीक है न?'
रानी के ऊपर उनके क्रोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बोली, 'मेरे-आपके दोनों के लिए यह विशाल महल क्या कम है?!
राजा पर इस व्यंग्य की चोट पड़ गई पर वे गुस्से को पीने लगे। कूछ सोचकर पूछा, 'क्या सचमुच आपको नाटकशाला का मेरा मनोरंजन नापसंद है?'
रानी ने तुरंत उत्तर दिया, 'इन दिनों अब इससे अधिक और हो ही क्या सकता है? राज्य का काम चलाने के लिए दीवान है। डाकुओं का दमन करने और प्रजा को ठीक पथ पर चाल् रखने के लिए अंग्रेजी सेना है ही। इस पर यदि कोई गलती हो गई तो कंपनी के एजेंट की खुशामद कर ली। बस, सब काम ज्यों-का-त्यों मनमाना चलता रहा।' रानी मुसकाने लगी।
इस बात में रानी की विलक्षण बुद्धि का आभास पाकर राजा को जरा विस्मय हुआ। उनके होंठों पर बरबस हँसी आई।