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(भाग 7)

16 मई 2022

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया।

मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन रेशमी साड़ी, स्वर्ण के आभूषण, माणिक-मोती के हार। बाजीराव ने अपने वे सब आभरण मनूबाई से फिर वापस नहीं लिए।

मनूबाई के बड़े -बड़े गोल नेत्र मणि-मुक्ताओं को भी आभा दे रहे थे। दुर्गा-सी जान पड़ती थी।

सगाई-वाग्दान की रीति होने के बाद मनूबाई, नाना साहब और रावसाहब एक ही कमरे में इकट्ठे हुए। वे दोनों लड़के भी रेशमी वस्त्रों और आभूषणों से लदे थे। सगाई का उत्सव बाजीराव ने धूमधाम से करवाया। बालकों में बातचीत होने लगी।

नाना-'अब तो मनू झाँसी से हाथियों पर बैठकर ब्रह्मावर्त आया करेगी।'

मनू‌- एक हाथी पर या दस पर?

नाना-'एक पर बैठेगी, बाकी पर मंत्री, सेनापति इत्यादि बैठे आवेंगे।'

मनू‌-'मुझको तो घोड़े की सवारी पसंद है।'

नाना- झाँसी में बैठ पावेगी?

मनू-'कौन रोक लेगा?

नाना- 'सुनता हूँ राजा बड़ा क्रोधी है।'

मनू- 'तो क्या मुझको सूली मिलेगी?' रावसाहब-'अरे नहीं। पर नबकर, झुककर चलना पड़ेगा।'

मनू ने नबकर, झुककर कमरे का एक चक्कर काटा। हँसकर बोली, 'ऐसे? ऐसे चलना पड़ेगा?'

वे दोनों लड़के भी हँस दिए। मनू की कांति से वह घर झिलमिला उठा। और जब वे बालक हँसे, उनके दाँतों की दीप्ति से वह घर दमक उठा।

रावसाहब-'मनू, तुम्हारे चले जाने पर हम लोगों को सब तरफ सूना-सूना लगेगा। '

मनू‌- 'तो साथ चले चलना।'

नाना-'काका एकाध महीने के लिए जाने दे सकते हैं, अधिक समय के लिए नहीं।'

मनू‌-'अधिक समय तो यहीं रहना चाहिए। बाला गुरु से तुमको अभी बहुत सीखना है, आया ही क्या है? मलखंब, कुश्ती इत्यादि से शरीर को खूब कमाओ। अच्छी तरह से हथियार चलाना सीखो।'

नाना- 'और दिल्‍ली पर धावा बोल दो।'

मनू‌- दिल्ली में क्या रखा है! दादा, काका और अखाड़े के सब समझदार लोग चर्चा करते हैं कि दिल्‍ली के कटघरे में अब एक कठपुतली-भर रह गई है।'

नाना-'अब तो सब तरफ अंग्रेजों का चरचराटा है।'

मनू हँस पड़ी।

रावसाहब ने कहा, 'तो क्या अंग्रेज हमको वैसे ही निगल जाएँगे?'

मनू हँसते-हँसते बोली, 'नाना साहब को कदाचित्‌ विश्वास नहीं होता कि अंग्रेज भी हराए जा सकते हैं।'

नाना जरा कुढ़ गया। कहने लगा, 'छबीली को सिवाय घमंड मारने के और कुछ आता ही नहीं।'

उन उज्ज्वल विशाल नेत्रों को और भी विस्तार मिला। मनू बोली, फिर छबीली कहा?'

नाना हँस पड़ा। 'आज तो तुमने अपने ही मुँह से छबीली कह दिया! ओह मात खाई!' नाना ने कहा।

मनू भी हँसी। बोली, 'आगे कभी मत कहना।'

नाना ने गंभीर मुख-मुद्रा करके कहा, 'अब तो झाँसी की रानी कहा करूँगा।'

मनू मुसकराई।

उस मुसकान में झाँसी का कितना महान्‌ और कैसा अमर इतिहास छिपा पड़ा था! उसी समय वहाँ बाजीराव और मोरोपंत आ गए। बाजीराव प्रसन्न थे और मोरोपंत आनंद-विभोर। उन बच्चों को सुखी देखकर वे लोग उस कमरे के वातावरण में समा गए। बाजीराव के मुँह से निकल पड़ा, ‘मनू, तू ऐसी भाग्यवती हो कि भाग्य को बाँटती रहे!’

मोरोपंत ने मनू को चिढ़ाने के तात्पर्य से कहा, ‘श्रीमंत ने इसका छुटपन में क्या नाम रखा था? मैं तो भूल ही गया।’

मनू ने गरदन मोड़कर होंठ सिकोड़े, आँखों में क्रोध लाने की चेष्टा की, ‘ऊँ’ निकली और मुसकरा दी।

बाजीराव बोले, ‘क्या नाम था, मनू? तू ही बता दे, बेटी।’

बाजीराव के पेट पर अपना सिर रखकर मनू ने कहा, ‘नहीं दादा, छबीली नाम अच्छा नहीं लगता।’

सब खिलखिलाकर हँस पड़े।

उसी समय तात्या ने आकर कहा, ‘सरकार, लोग इकट्ठे हो गए हैं। बातचीत होनी है।’

वे तीनों चले गए। बैठक में ब्रह्मावर्त निवासी महाराष्ट्र के प्रमुख ब्राह्मण विवाह की शर्तों की चर्चा कर रहे थे।

मोरोपंत के पास सोना-चाँदी नहीं था, पर जो कुछ था वह उसे विवाह में लगा देने को तैयार थे। बिठूर के इन प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की मध्यस्थता में तय हुआ कि विवाह का व्यय झाँसी के राजा वहन करेंगे और विवाह झाँसी में जाकर होगा। यह भी तय हुआ कि मोरोपंत झाँसी में ही स्थायी तौर पर रहा करेंगे और उनकी गणना झाँसी के सरदारों में होगी।

झाँसी के मेहमान मोरोपंत को कन्यासहित अपने साथ लिवा ले जाना चाहते थे, लेकिन यह ठीक न समझकर मोरोपंत उन लोगों के साथ नहीं गए। अपने सुभीते के लिए उन्होंने कुछ समय उपरांत झाँसी आने का संकल्प प्रकट किया। विवाह का मुहूर्त निश्चित करके मेहमान झाँसी चले गए। बाजीराव ने बाला गुरु के अखाड़ेवाले तात्या को झाँसी में मोरोपंत के लिए निवास-स्थान इत्यादि की उचित व्यवस्था के लिए उन लोगों के साथ भेजा। यह ब्राह्मण था। आगे चलकर इतिहास में यही युवा तात्या टोपे के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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