राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया।
मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन रेशमी साड़ी, स्वर्ण के आभूषण, माणिक-मोती के हार। बाजीराव ने अपने वे सब आभरण मनूबाई से फिर वापस नहीं लिए।
मनूबाई के बड़े -बड़े गोल नेत्र मणि-मुक्ताओं को भी आभा दे रहे थे। दुर्गा-सी जान पड़ती थी।
सगाई-वाग्दान की रीति होने के बाद मनूबाई, नाना साहब और रावसाहब एक ही कमरे में इकट्ठे हुए। वे दोनों लड़के भी रेशमी वस्त्रों और आभूषणों से लदे थे। सगाई का उत्सव बाजीराव ने धूमधाम से करवाया। बालकों में बातचीत होने लगी।
नाना-'अब तो मनू झाँसी से हाथियों पर बैठकर ब्रह्मावर्त आया करेगी।'
मनू- एक हाथी पर या दस पर?
नाना-'एक पर बैठेगी, बाकी पर मंत्री, सेनापति इत्यादि बैठे आवेंगे।'
मनू-'मुझको तो घोड़े की सवारी पसंद है।'
नाना- झाँसी में बैठ पावेगी?
मनू-'कौन रोक लेगा?
नाना- 'सुनता हूँ राजा बड़ा क्रोधी है।'
मनू- 'तो क्या मुझको सूली मिलेगी?' रावसाहब-'अरे नहीं। पर नबकर, झुककर चलना पड़ेगा।'
मनू ने नबकर, झुककर कमरे का एक चक्कर काटा। हँसकर बोली, 'ऐसे? ऐसे चलना पड़ेगा?'
वे दोनों लड़के भी हँस दिए। मनू की कांति से वह घर झिलमिला उठा। और जब वे बालक हँसे, उनके दाँतों की दीप्ति से वह घर दमक उठा।
रावसाहब-'मनू, तुम्हारे चले जाने पर हम लोगों को सब तरफ सूना-सूना लगेगा। '
मनू- 'तो साथ चले चलना।'
नाना-'काका एकाध महीने के लिए जाने दे सकते हैं, अधिक समय के लिए नहीं।'
मनू-'अधिक समय तो यहीं रहना चाहिए। बाला गुरु से तुमको अभी बहुत सीखना है, आया ही क्या है? मलखंब, कुश्ती इत्यादि से शरीर को खूब कमाओ। अच्छी तरह से हथियार चलाना सीखो।'
नाना- 'और दिल्ली पर धावा बोल दो।'
मनू- दिल्ली में क्या रखा है! दादा, काका और अखाड़े के सब समझदार लोग चर्चा करते हैं कि दिल्ली के कटघरे में अब एक कठपुतली-भर रह गई है।'
नाना-'अब तो सब तरफ अंग्रेजों का चरचराटा है।'
मनू हँस पड़ी।
रावसाहब ने कहा, 'तो क्या अंग्रेज हमको वैसे ही निगल जाएँगे?'
मनू हँसते-हँसते बोली, 'नाना साहब को कदाचित् विश्वास नहीं होता कि अंग्रेज भी हराए जा सकते हैं।'
नाना जरा कुढ़ गया। कहने लगा, 'छबीली को सिवाय घमंड मारने के और कुछ आता ही नहीं।'
उन उज्ज्वल विशाल नेत्रों को और भी विस्तार मिला। मनू बोली, फिर छबीली कहा?'
नाना हँस पड़ा। 'आज तो तुमने अपने ही मुँह से छबीली कह दिया! ओह मात खाई!' नाना ने कहा।
मनू भी हँसी। बोली, 'आगे कभी मत कहना।'
नाना ने गंभीर मुख-मुद्रा करके कहा, 'अब तो झाँसी की रानी कहा करूँगा।'
मनू मुसकराई।
उस मुसकान में झाँसी का कितना महान् और कैसा अमर इतिहास छिपा पड़ा था! उसी समय वहाँ बाजीराव और मोरोपंत आ गए। बाजीराव प्रसन्न थे और मोरोपंत आनंद-विभोर। उन बच्चों को सुखी देखकर वे लोग उस कमरे के वातावरण में समा गए। बाजीराव के मुँह से निकल पड़ा, ‘मनू, तू ऐसी भाग्यवती हो कि भाग्य को बाँटती रहे!’
मोरोपंत ने मनू को चिढ़ाने के तात्पर्य से कहा, ‘श्रीमंत ने इसका छुटपन में क्या नाम रखा था? मैं तो भूल ही गया।’
मनू ने गरदन मोड़कर होंठ सिकोड़े, आँखों में क्रोध लाने की चेष्टा की, ‘ऊँ’ निकली और मुसकरा दी।
बाजीराव बोले, ‘क्या नाम था, मनू? तू ही बता दे, बेटी।’
बाजीराव के पेट पर अपना सिर रखकर मनू ने कहा, ‘नहीं दादा, छबीली नाम अच्छा नहीं लगता।’
सब खिलखिलाकर हँस पड़े।
उसी समय तात्या ने आकर कहा, ‘सरकार, लोग इकट्ठे हो गए हैं। बातचीत होनी है।’
वे तीनों चले गए। बैठक में ब्रह्मावर्त निवासी महाराष्ट्र के प्रमुख ब्राह्मण विवाह की शर्तों की चर्चा कर रहे थे।
मोरोपंत के पास सोना-चाँदी नहीं था, पर जो कुछ था वह उसे विवाह में लगा देने को तैयार थे। बिठूर के इन प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की मध्यस्थता में तय हुआ कि विवाह का व्यय झाँसी के राजा वहन करेंगे और विवाह झाँसी में जाकर होगा। यह भी तय हुआ कि मोरोपंत झाँसी में ही स्थायी तौर पर रहा करेंगे और उनकी गणना झाँसी के सरदारों में होगी।
झाँसी के मेहमान मोरोपंत को कन्यासहित अपने साथ लिवा ले जाना चाहते थे, लेकिन यह ठीक न समझकर मोरोपंत उन लोगों के साथ नहीं गए। अपने सुभीते के लिए उन्होंने कुछ समय उपरांत झाँसी आने का संकल्प प्रकट किया। विवाह का मुहूर्त निश्चित करके मेहमान झाँसी चले गए। बाजीराव ने बाला गुरु के अखाड़ेवाले तात्या को झाँसी में मोरोपंत के लिए निवास-स्थान इत्यादि की उचित व्यवस्था के लिए उन लोगों के साथ भेजा। यह ब्राह्मण था। आगे चलकर इतिहास में यही युवा तात्या टोपे के नाम से प्रसिद्ध हुआ।