गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे।
लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफी कष्ट में बीते।
राजा की खीझ बढ़ गई। उन्होंने सनकों में काम करना शुरू कर दिया। एक दिन उनको मालूम हुआ कि खुदाबख्श नवाब अलीबहादुर के यहाँ कभी-कभी आता है। इस जरा से अपराध पर उन्होंने नवाब साहब का महल जब्त कर लिया। केवल बाहरवाली हवेली उनके रहने के लिए छोड़ी।
सन् १८५३ के शारदीय नवरात का महोत्सव हआ। उस दिन उनका स्वास्थ्य अच्छा जान पड़ता था, केवल कुछ कमजोरी थी। राजवैद्य प्रतापसाह मिश्र का उपचार था। राजा वैद्य पर बहुत खुश थे। वैद्य उदंड प्रकृति का था परंतु राजा उसको बहुत निभाते थे।
दशहरे के भरे दरबार में वैद्य ने अपने एक पड़ोसी का उलाहना दिया-'सरकार, मैं हवेली बनाना चाहता हूँ। मेरे मकान में जगह थोड़ी है। पड़ोसी को मुँह-माँगा दाम देने को तैयार हूँ। वह पाजी है। बिलकुल नट गया है। मकान नहीं छोड़ता। मेरी हवेली नहीं बन पा रही है। वह मकान मुझको दिलवा दिया जाए।'
राजा ने इस प्रार्थना को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
वैद्य ने हठपूर्वक कहा, 'तब मैं कोट बाहर एक अलग छोटी-सी झाँसी बसाऊँगा। सरकार की अनुमति-भर चाहिए। या तो नगर में हवेली बनाकर रहूँगा या कोट बाहर बस्ती बसाऊँगा। और एक दृढ़ कोट उसके चारों ओर खिंचवाऊँगा।'
तीन साल पहले के गंगाधरराव होते तो वह इस प्रस्ताव पर वैद्यराज की खाल खिचवा डालते। परंतु उनका स्वभाव सनकों से भर गया था। बल के साथ तेज भी उनका ठंडा पड़ गया था।
राजा ने वैद्य को अनुमति दे दी। वैद्य का ध्यान उपचार से हटकर नया नगर बसाने और कोट खिचवाने की विशाल मूर्खता पर दृढ़ता के साथ जा अटका। नई बस्ती तो वैद्य नहीं बसा पाए परंतु उसने कोट खिंचवा लिया, जो अपने अखंड रूप में अब भी प्रतापसाह मिश्र के हठ का स्मारक बना बड़े गाँव फाटक के बाहर खड़ा है।
विजयदशमी के उपरांत गंगाधरराव को संग्रहणी रोग ने ग्रस लिया। बहुत दवादारू की गई, कुछ न हुआ। मर्ज बढ़ता ही चला गया।
उस समय झाँसी का असिस्टेंट पॉलिटिकल एजेंट मेजर मालकम था। उसको सूचना दी गई। उसने डॉक्टरी उपचार का अनुरोध किया परंतु वैद्यों और हकीमों ने प्रयत्न को अभी आशारहित नहीं समझा था, इसलिए उस अनुरोध पर विचार करने की भी नौबत नहीं आई।
महालक्ष्मी के मंदिर में, जो लक्ष्मी-फाटक बाहर है और जहाँ सदा ही धूमधाम रहती थी, पाठ बैठाया गया। झाँसी का कोई भी मंदिर न था जहाँ राजा के रोग-निवारण के लिए पूजा-अर्चा न कराई गई हो और जनता ने अपनी प्रार्थनाएँ भेंट न की हों।
नवंबर के तीसरे सप्ताह में राजा का स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ गया। प्रतापसाह मिश्र ने बड़े दंभ के साथ 'प्रताप लंकेश्वर रस' बनाया, परंतु किसी भी रस का कोई प्रभाव न पड़ा।
राजा ने क्षीण मुसकराहट के साथ इतना जरूर कहा, 'कोट खिंचवाने से कैसे अवकाश मिल गया?'
उसके बाद राजा यकायक बेहोश हो गए। रानी के पिता मोरोपंत और दीवान नरसिंहराव घबराए हुए आए।
राजा को पुनः चेत हो आया था।
नरसिंहराव ने कहा, 'सरकार स्वस्थ हो जाएँगे। कोई चिंता की बात नहीं है। हम लोगों को आज्ञा दी जाए।'
राजा समझ गए। कुछ पहले से मन में जो बात उठी थी, उसको उन्होंने कहा, 'मैं अभी जीऊँगा। प्रताप मिश्र का नया नगर देखने जाऊँगा, परंतु मैंने निश्चय किया है कि दत्तक ले लेूँ।' मोरोपंत और नरसिंहराव राजा के मुँह की ओर देखने लगे।
राजा कहते गए, 'हमारे कुटुंबी वासुदेवराव नेवालकर का एक पुत्र आनंदराव है। पाँच वर्ष का है। सुंदर और होनहार है। उसको मैं गोद लेना चाहता हूँ। यदि रानी साहब स्वीकार करें तो मैं आज ही शास्त्रानुसार गोद ले लूँ।'
मोरोपंत पूछ आए। रानी ने स्वीकार कर लिया।
तुरंत दत्तक विधान की तैयारी की गई। नगर की जनता के मुखिया निमंत्रित किए गए। मेजर मालकम की जगह मेजर एलिस असिस्टेंट पॉलिटिकल ऐजेंट होकर आ गया था और मालकम पॉलिटिकल एजेंट होकर चला गया था, उसको तथा अंग्रेजी सेना के अफसर कप्तान मार्टिन को भी बुलाया गया। इन सबके सामने राजा ने आनंदराव को विधिवत् गोद लिया।
आनंदराव का नाम बदलकर दामोदरराव रखा गया।