लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे के प्यार में जाता था। राजा भी उस बच्चे पर प्यार बरसाने में काफी समय उनके पास बिताते थे। राजा की प्रकृति में अद्भुत अंतर आ गया था। शासन की कठोरता में उन्होंने कमी कर दी। जनता उनको प्रजावत्सल कहने लगी।
उन्हीं दिनों तात्या टोपे झाँसी में आया। राजा का एक फौजी अफसर कर्नल मुहम्मद जमाखाँ था। उसी की हवेली के एक हिस्से में तात्या को डेरा मिला। पास ही जूही रहती थी।
तात्या को रानी से एकांत में बातचीत करने का अवसर मिला। उसने रानी से कहा, 'आपको दादा के देहांत का हाल तो मालूम हो गया था परंतु पेंशन छीने जाने की बात किसी ने नहीं बतलाई! आश्चर्य है!!' लक्ष्मीबाई दुखी स्वर में बोलीं, 'मैं अस्वस्थ थी, इसलिए यह समाचार मुझ तक नहीं आने दिया गया। अंग्रेजों ने बड़ी बेईमानी की।'
तात्या-'यह उन लोगों की न तो पहली बेईमानी है और न आखिरी। उन लोगों की नीति सारे देश को डसती चली जा रही है। गायकवाड़, होलकर, सिंधिया, अवध के नवाब-ये सब अफीम ही खाए बैठे हैं।'
रानी-'पेंशन छीनने के विरुद्ध क्या उपाय किया?'
तात्या-'अर्जी फरियाद की। बड़े लाट ने कोई सुनवाई नहीं की। विलायत को भी लिखा-पढ़ा एक होशियार आदमी भेजा, परंतु सबने कानों में तेल डाल लिया है।'
रानी-'फिर क्या सोचा है?'
तात्या-'कुछ नहीं। नाना साहब और रावसाहब ने आपके पास मुझको भेजा है। उनको आपके विवेक और तेज का भरोसा है।'
रानी-'नवाब साहब के पास लखनऊ गए?'
तात्या-'गया था। परंतु नवाब साहब के चारों तरफ गायिकाओं, नर्तकियों और भाँड़ों का पहरा लगा रहता है। उन लोगों ने कहा कि अगले साल मुलाकात का मुहूर्त निकलेगा।'
रानी हँस पड़ीं। जैसी संध्या के पीले बादलों में दामिनी दमक गई हो। रानी अपनी स्वाभाविक अरुणता अभी पुनः प्राप्त न कर पाई थीं।
तात्या ने कहा, 'मैं नवाब के प्रधानमंत्री से मिला। वह हिंदू है। परंतु बिचारा क्या करता। उसने अपनी असमर्थता प्रकट की। फिर कई बड़े जमींदारों से मिला। उन्होंने कहा, कि कुछ पुरुषार्थ करो, हम साथ देंगे।'
रानी कुछ सोचने लगीं। सोचती रहीं।
तात्या बोला, 'आप बिठूर में छत्रपति, और बाजीराव तथा छत्रसाल न जाने कितने नाम लिया करती थीं।'
रानी ने कहा, 'ये नाम मैं कभी नहीं भूलूँगी। छत्रसाल का नाम इधर के लोगों में अब भी मंत्र का काम करता है।'
तात्या-'यह और वे सब मंत्र कब काम आएँगे?'
रानी जरा मुसकराई। तात्या उस मुसकराहट को पहचानता था। उसके परिवेष्ठन में छुटपन की मन के छोटे निश्चय बड़ी दृढ़ता के साथ निकला करते थे। तात्या ने आशा से कान लगाए।
रानी ने कहा, 'टोपे, अभी समय नहीं आया है। घड़ा अपूर्ण है-अभी भरा नहीं है। हम लोगों के आपसी उपद्रवों ने जनता को त्रस्त कर दिया है। उसको थोड़ा साँस लेने योग्य बन जाने दो। समर्थ रामदास का दिया हुआ स्वराज्य-संदेश, छत्रपति शिवाजी का पाला हुआ वह आदर्श, छत्रसाल का वह अनुशीलन अमर और अक्षय है।'
तात्या जरा अधीर होकर बोला, महारानी साहब, ये बातें कान और हृदय को अच्छी मालूम होती हैं, पर हिंदू और मुसलमान जनता तो अचेत-सी जान पड़ती है।'
रानी ने टोककर दृढ़ स्वर में कहा, 'तात्या भाई, जनता कभी अचेत नहीं होती। उसके नायक अचेत या भ्रममय हो जाते हैं।'
तात्या-'तब नाना साहब से जाकर क्या कहँ?'
रानी-'यही कि कान और आँख खोलकर समय की प्रतीक्षा करें। मुझे अभी तो पूर्ण स्वस्थ होने में ही कुछ समय लगेगा, स्वस्थ होते ही अपने आदर्श के पालन में सचेष्ट होऊँगी। अपने आदर्श को कभी न भूलना-प्रयत्न की पहली और पक्की सीढ़ी है।'
तात्या चलने को हुआ।
रानी ने प्रश्न किया, 'दिल्ली का क्या हाल है?'
तात्या ने उत्तर दिया, 'बादशाह का? उन बिचारों को ९० हजार रुपया साल पेंशन मिलती है। कविता करते हैं और कवि सम्मेलन में उलझते रहते हैं। कंपनी ने उनकी नजर-भेंट बंद कर दी है और उनसे कह रही है कि अपने को बादशाह कहना छोड़ो, नहीं तो पेंशन बंद कर देंगे।'
रानी ने कहा, 'मुसलमान नवाब और जन क्या इस चुनौती को यों ही पी जाएँगे?'
'कह नहीं सकता, तात्या ने कहा। कुछ समय बाद तात्या चला गया।
तात्या झाँसी में और ठहरना चाहता था, परंतु बिठूर जल्दी जाना था और गंगाधरराव की नाटकशाला बंद थी। यद्यपि अभिनय करनेवालों का वेतन बंद नहीं किया गया।