एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बारीकी से परखा होता तो उनको मालूम हो जाता कि उनके आने पर शास्त्री का मन प्रसन्न नहीं हुआ था। पजनेश पौर के चबूतरे पर दरवाजे की ओर पीठ करके बैठ गए। शास्त्री दरवाजे की ओर मँह किए बैठ गए। शास्त्री ने पान खाने के लिए पानदान बढ़ाया। पजनेश के जी में एक क्षणिक झिझक उठी, उसको दबा लिया और पान लगाकर खा लिया।
शास्त्री ने पुछा, 'कोई नया समाचार?'
'अब तो आपके चरित्र पर ही लांछन लगाया जाने लगा है।' पजनेश उत्तर देकर पछताए। उस प्रसंग का प्रवेश और किसी तरह करना चाहते थे।
शास्त्री ने आँख चढ़ाकर कहा, 'मैंने भी सुन लिया है।'
पजनेश ने दम ली। शास्त्री कहते गए, 'मू्र्खों के पास जब युक्त नहीं रहती तब वे गालियों पर आ जाते हैं। मैं क्या गाली-गलौज के दबाव में शास्त्र-चर्चा को छोड़ दूँगा? बदमाशों को मुँहतोड़ जवाब दूँगा। उस पक्ष के जितने शास्त्री हैं, चाहे महाराष्ट्र के हों, चाहे एतद्देशीय, सब इन बनियों, महाजनों और सरदारों के किसी-न-किसी प्रकार आश्रित हैं। और ये आश्रयदाता हैं-पुरानी लीकों के पुजारी। 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' वाले। ये लोग शास्त्र का पारायण नहीं करते अथवा करते हैं तो सच बात न कहकर यजमानों को संतुष्ट करने के लिए केवल उनकी मुँहदेखी कहते हैं। तंत्रशास्त्र वालों का मूल ज्ञान-विज्ञान और सत्य में है, वे अवश्य पुराणियों और कथा-वाचकों के साथ असत्य की साँझ नहीं करते।'
पजनेश-' परंतु अपवाद का दमन जरूरी है। '
शास्त्री-' व्यर्थ! बकने दो। मैं परवाह नहीं करता। अपना काम देखो।'
पजनेश-'मेरी समझ में श्रीमंत सरकार से फरियाद करनी चाहिए। वे जब कठोर दंड देंगे तब यह बदनामी खत्म होगी।'
शास्त्री-'मैं ऐसी सड़ियल बात को राजा के सामने नहीं ले जाना चाहता। राजा तो यों भी उन कथा-वाचकों की दिल््लगी उड़ाया करते हैं।'
पजनेश-'तब मैं क्या कहूँगा?'
शास्त्री को प्रस्ताव पसंद नहीं आया। बोले, 'यह और भी बुरा होगा। राजा कहेंगे कि कुछ रहस्य अवश्य है, तभी तो स्वयं फरियाद न करके मित्र से करवाई।' फिर विषयांतर के लिए कहा, 'आज घर से इतनी जल्दी कैसे निकल पड़े?
पजनेश ने उत्तर दिया, 'कान नहीं दिया गया तो इसी चर्चा के लिए आपके...'
पजनेश का वाक्य पूरा नहीं हो पाया था कि उतरती अवस्था की एक स्त्री डलिया-झाड़ू लेकर दरवाजे पर आईं। वह बाहर ही रह गई, उसके पीछे उससे सटी हुई एक युवती थी। वह कुछ अच्छे वस्त्र पहने थी, थोड़े से आभूषण भी। साफ-सुथरी। युवती उतरती अवस्थावाली स्त्री को एक ओर करके मुसकराती हुई पौर में आ गई। प्रवेश करते समय उसने पजनेश को नहीं देखा था। परंतु भीतर घुसते ही पजनेश की झाँईं पड़ गई। ठिठकी, लौटने के लिए मुड़ी और फिर खड़ी रह गई। दूसरी स्त्री से बोली, 'कोंसा, पौर में तो कोई कूड़ा नहीं।'
कोंसा ने कहा, 'मैं आती हूँ। ठहरना।'
पजनेश ने देखा-ऊँची जाति की सुंदर स्त्रियों जैसी सुंदर है। नायिका-भेद की उपमाएँ स्मरण हो आईं, कमलगात, मृगनयन, कपोत ग्रीवा, कमलतालकटि। परंतु नायिका-भेद का साहित्य और आगे साथ न दे सका। कवि का मन आकर्षण और ग्लानि की खींचतान में पड़ गया।
शास्त्री ने अपनी घबराहट को किसी तरह नियंत्रित करके उस युवती से कहा, 'थोड़ी देर में आना, तब तुम्हारा काम कर दुँगा। समझी छोटी?'
युवती के खरे रंग पर लाली दौड़ गई। वह हाँ कहकर गजगति से नहीं, बिल्ली की तरह वहाँ से भाग गई।
शास्त्री और कवि दोनों किसी एक बड़े बोझ से मानो दब गए। पजनेश के मुँह से वाक्य फूट पड़ा, 'यह कौन है?'
शास्त्री - 'छोटी।'
पजनेश-'यह तो उसका नाम है। वह है कौन?'
शास्त्री-'स्त्री।'
पजनेश-'यह तो मैं भी देखता हूँ। कौन स्त्री?'
शास्त्री-'एक काम से आई थी।'
पजनेश-'खैर, मुभको कुछ मतलब नहीं, परंतु यदि...'
शास्त्री ने बात काटकर पूछा, 'परंतु यदि क्या? आप क्या इसके संबंध में मेरे ऊपर संदेह करते हैं?'
पजनेश ने एक क्षण सोचकर उत्तर दिया 'बस्ती के लोग क्या इसी स्त्री की चर्चा करते हुए आप पर लांछन लगा रहे हैं? यदि ऐसा है तो आपको सावधान हो जाना चाहिए। उस स्त्री की जातिवाले उसका सर्वनाश कर डालेंगे और राजा आपका।'
शास्त्री ने कहा, 'झूठा आरोप है। मैं किसी से नहीं डरता।'
'आप जानें।' पजनेश बोले, 'मेरा कर्तव्य था, सो कह दिया।'
पजनेश उठे। शास्त्री ने एक पान और खाने का अनुरोध किया परंतु पजनेश बिना पान खाए चले गए। बाहर निकलकर उनकी आँखों ने इधर-उधर उस युवती को ढूँढ़ा, परंतु वह न दिखाई पड़ी। उन्हें आश्चर्य था, 'इस जाति में भी पद्मनी होना संभव है!'