नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपूर्ण होते थे। लेकिन स्त्रियों को कभी नहीं सताते थे। और न किसी की धन-संपत्ति लूटते थे।
झाँसी की जनता उनसे भयभीत थी परंतु अपनी रानी पर मुग्ध थी। रानी शासन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लेती थीं, कितु राजा के कठोर शासन में जहाँ कहीं दया दिखाई पड़ती थी, उसमें जनता रानी के प्रभाव के आभास की कल्पना करती थी।
कंपनी का झाँसी प्रवासी असिस्टेंट पॉलीटिकल एजेंट राजा के कठोर शासन, अत्याचार इत्यादि के समाचार गवर्नर जनरल के पास बराबर भेजता रहता था। उनके किसी भी सत्कार्य का समावेश उन समाचारों में न किया जाता था। और राज्यों के साथ कलकत्ता में झाँसी राज्य की भी मिसिल तैयार होती चली जा रही थी।
अंग्रेजों का चौरस करनेवाला बेलन बेतहाशा, लगातार और जोर के साथ चल रहा था। अंग्रेज लोग अपनी दूकान में हिंदुस्थान को अधूरे या अधकचरे सौदे का रूप लिए नहीं देख सकते थे। एक कानून, एक जाब्ता, एक मालिक, एक नजर, इसमें अनैक्य को तिल-भर भी स्थान देने की गुंजाइश न थी। मौका मिलते ही छोटे-मोटे रजवाड़े साफ, हजम! भारतीय जनता के सुख के लिए!!
ऊँचे पदों पर भारतीय पहुँच नहीं पावें। भारतीय संस्कृति हेच और नाचीज है, इसलिए पनपने न पावे। भारत में बहुत फालतू सोना-चाँदी है, इसलिए अंग्रेजी दूकान की रोकड़ बढ़ती चली जावे। जनता स्वाधीनता का नाम ले तो उसको बड़ी रियासतों के अंधेरों का संकेत करके चुप कर दिया जावे। बड़ी रियासतोंवाले जरा-सा भी सिर उठावें तो छोटी रियासतों को किसी-न-किसी बहाने घोंट-घाँटकर बड़ी रियासतों को चुप रहने का सबक सिखाया जावे।
सबसे बड़ा काम जो अंग्रेजों ने हिदुस्थानी जनता की भलाई (!) के लिए किया, वह था पंचायतों का सर्वनाश। अंग्रेजों को इस बात के परखने में बिलकुल विलंब नहीं हुआ कि उनके कानून के सामने हिंदुस्थान की आत्मा का सिर तभी झुकेगा जब यहाँ की पंचायतें विलीन हो जाएँगी, और हिंदुस्थानी, अर्जियाँ लिए हुए उनकी बनाई हुई साहबी अदालतों के सामने मुँहबाए भटकते फिरेंगे।
यह सब उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक ढंग से हुआ। जो परिस्थिति कठोर- से-कठोर पठान या मुगल नरेश अपने प्रकट अत्याचारों से उत्पन्न नहीं कर पाए थे, वह अंग्रेजों ने अपनी वैज्ञानिक हिकमत से उत्पन्न कर दी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और नवाब अपनी जनता का दामन छोड़कर अंग्रेजों का मुँह ताकने लगे। पुरुषार्थ की जरूरत न थी, इसलिए सिर डुबोकर विलासिता के पोखरों में घुस पड़े। अंग्रेजी बंदूक और संगीन उनकी पीठ पर थी, जनता की परवाह ही क्या की जाती?
अंग्रेजों को केवल एक बात का खुटका था-उनके इलाकों के हिंदू और मुसलमान धर्म के इतने ढकोसले क्यों मानते हैं? किसी दिन इन ढकोसलों की श्रद्धा में होकर हमें नफरत की निगाह से न देखने लगें? धर्म से लिपटी हुई आत्मा का कैसे उद्धार करके अपना भक्त बनाया जाए? बस, इनकी रूहानी भक्ति मिली कि हिंदुस्थान में अपना राज्य अमर और अक्षय हो गया।
इसलिए सरकारी पाठशालाओं में बाइबल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अमेरिका हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, सोने की चिड़िया, सोने के अंडे देनेवाली मुरगी- भारत-भूमि-तो हाथ में आई! यह न जाने पावे किसी तरह भी हाथ से! मंदिरों की मूर्तियाँ मत तोड़ो, मसजिदों को अपवित्र मत करो परंतु धर्म पर से श्रद्धा को हटा दो, फल उससे भी कहीं बढ़कर होगा। और कोने-कोने में डौंडी पीट दो कि हम धर्मों के विषय में बिलकुल तटस्थ हैं-हमारा एकमात्र आदर्श हिंदुस्थान के लूटेरों और डाकुओं का दमन करके शांति स्थापित करने का है, जिससे खेती-किसानी आबाद हो सके और व्यापार बेरोक-टोक चल सके। किसका व्यापार? किसके लिए खेती-किसानी? उसी अंग्रेज दूकानदार के लिए!
गंगाधरराव यह सब अच्छी तरह नहीं समझते थे परंतु उनके पहले पूना में एक दुबला-पतला व्यक्ति नाना फड़नवीस हुआ था। वह खूब समझता था, एक-एक नस, एक-एक रग, राई-रत्ती! उसने हिंदस्थान के तत्कालीन राजाओं को बहुत समझाया, बहुत सावधान किया; परंतु वे मूर्ख कुछ न समझे! अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की प्रेरणा में परस्पर कट मरे।
अंग्रेजों ने पंजाब को परास्त करके हाल में ही अपने हाथ में किया था। बिहार और बंगाल में राज्य था ही। मध्यदेश बपौती का रूप धारण करता चला जाता था। इन सबके बीच में दो बड़े-बड़े रोड़े थे-एक अवध की मुसलमानी नवाबी और दूसरी झाँसी की बड़ी हिंदू रियासत। ये दोनों किसी प्रकार खत्म हो जाएँ तो पाँचों घी में और फिर हो चौरस करनेवाले अंग्रेजी बेलन की जय!
गंगाधरराव के पास गार्डन और कुछ अन्य अंग्रेज आया करते थे परंतु गार्डन और वे, केवल दोस्ती निभाने नहीं आया करते थे। राज्य की भीतरी बातों का पता लगाकर गवर्नर जनरल को सूचना देना उनका प्रधान कर्तव्य था।
गंगाधरराव के कोई संतान उस समय तक नहीं हुई थी। दूसरा विवाह संतान की आकांक्षा से किया था। रानी गर्भवती भी थीं; परंतु यह अनिवार्य नहीं था कि उनके पृत्र ही उत्पन्न हो। यदि वह निस्संतान मर गए तो झाँसी को तुरंत अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा। अंग्रेजों के अंतर्मन में यह निहित था। इसीलिए गार्डन इत्यादि गंगाधरराव की खरी-खोटी भी सुन लेते थे। एक दिन शायद आए जब झाँसी निवासी हमारी खरी-खोटी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ सुनेंगे। भीतर-भीतर यह लालसा घर किए बैठी थी।
ठंड पड़ने लगी थी। तारे अधिक चमक-दमक के साथ चंद्रिका की अपनी विस्तृत झीनी चादर उड़ाकर आकाश में उपस्थित हुए। झाँसी स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर गार्डन और राजा गंगाधरराव महल के दीवानखाने में बातचीत कर रहे थे।
गंगाधरराव-'बाजीराव पंतप्रधान के देहांत का समाचार मुझको मिल गया था, परंतु यह हाल में मालूम हुआ कि उसकी पेंशन जब्त कर ली गई है। यह अच्छा नहीं किया गया।'
गार्डन- 'सोचिए सरकार, आठ लाख रुपया साल कितना होता है और फिर बिठूर की जागीर मुफ्त में! उस पर खर्च कुछ नहीं।'
गंगाधरराव-'मुझको याद है, मुझको विश्वसनीय लोगों ने बतलाया है कि कंपनी ने सन् १८०२ में (सन् १८०२ ई० की संधि।) उक्त पंतप्रधान के साथ जो संधि की थी, उसमें गवर्नर जनरल ने अपने हाथ से लिखा था 'यावच्चंद्र -दिवाकर' कायम रहेगी। परंतु चंद्रमा और सूर्य सब जहाँ-के-तहाँ हैं। संधि-पत्र पर दस्तखत किए अभी ५० वर्ष भी नहीं हुए और सारा मैदान सफाचट कर दिया!'
गार्डन-'सरकार, संधि-पत्र मेरे सामने नहीं है, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि उसमें क्या लिखा है, परंतु सुनता हूँ, उनको जब १५-१६ वर्ष पीछे पेंशन दी गई तब यह लिखा था कि पेंशन को वह और उनका कंटुंब ही भोग सकेगा।'
गंगाधरराव-नाना धोंडूपंत जो अब जवान है, पंतप्रधान का दत्तक पुत्र है। क्या वह कुटुंबी नहीं माना जाएगा?'
गार्डन-'हमारे देश के कानून में गोद नहीं मानी जाती।'
गंगाधरराव-'पर हिंदुस्थान तो आपका देश नहीं है।'
गार्डन-'अंग्रेज कंपनी का राज्य तो है। राजा अपना कानून बरतता है न कि प्रजा का। सरकार अपने राज्य में अपना ही कानून तो बरतते हैं न?'
गंगाधरराव-'हमारा और हमारी प्रजा का काननू तो एक ही है।'
गार्डन-'यह बिलकुल ठीक है सरकार। और, दीवानी मामलों में हमारे इलाकों में भी प्रजा का ही कानून माना और चलाया जाता है परंतु रियासतों के संबंध में यह बात लागू नहीं की जाती।'
गंगाधरराव-'क्यों, रियासतें और उनके रईस क्या साधारण प्रजा से भी गए-बीते हैं ?'
गार्डन-'सो सरकार मैं नहीं जानता। कंपनी सरकार इंग्लैंड में कानून बना देती है। कुछ कानून गवर्नर जनरल भी बनाते हैं। हमको उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है।'
गंगाधरराव-'हमारे धर्म में विधान है कि यदि औरस पुत्र पिंडदान देने के लिए न हो तो दत्तक पुत्र ठीक औरस पुत्र की तरह पिंडदान दे सकता है। आप लोग क्या राजाओं को इससे वंचित करना चाहते हैं?'
गार्डन-'नहीं सरकार। बड़ी रियासतों को यह अधिकार दे दिया गया है। परंतु जो रियासतें कंपनी सरकार की आश्रित हैं, उनमें गोदी गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना नहीं ली जा सकती। यदि ली जावे तो गोद लिए लड़के को राजगद्दी का अधिकारी नहीं माना जा सकता। वह राजा की निजी संपत्ति अवश्य पा सकता है और पिंडदान मजे में दे सकता है। सरकार ने हमारे धर्म की पुस्तक पढ़ी? उसका हिंदी में अनुवाद हो गया है। छप गई है।'
गंगाधरराव-'छप गई है अर्थात्?'
गार्डन-'छापाखाना में छपती है। उसमें यंत्र होते हैं। वर्णमाला के अक्षर ढले हए होते हैं। उनको मिला-मिलाकर स्याही से कागज पर छाप लेते हैं। हजारों की संख्या में छप जाती है।'
गंगाधरराव-'ऐं! यह विलक्षण यंत्र है। मैं ग्रंथों की नकल करवा-करवाकर हैरानी में पड़ा रहता हूँ और न जाने कितना रुपया व्यय किया करता हूँ। एक यंत्र हमारे लिए भी मँगवा दीजिए।
गार्डन को डर लगा। ऐसा भयंकर विषधर झाँसी में दाखिल किया जावे! पुस्तकें छपेंगी, समाचार-पत्र निकलेंगे। जनता सजग हो जाएगी। अंग्रेजों का रौब धूल में मिल जाएगा। जिस आतंक के बल-भरोसे कंपनी-सरकार राज्य चला रही है, वह हवा में मिल जाएगा। गार्डन ने सोचा था कि राजा को इस कड़वे प्रसंग से हटाकर किसी मनोरंजक प्रसंग में ले जाऊँ, परंतु यह प्रसंग तो और भी अधिक कटु निकला।
लेकिन गार्डन ने चतुराई से अपने को बचा लेने का प्रयत्न किया। बोला, 'सरकार, गवर्नर जनरल की आज्ञा बिना कोई भी उस यंत्र को नहीं रख सकता।'
गंगाधरराव को रोष हुआ, आश्चर्य भी। बोले, 'इसमें भी गवर्नर जनरल की आज्ञा, अनुमति? आप लोग थोड़े दिन में शायद यह भी कहने लगो कि हमारी आज्ञा बिना पानी भी मत पिओ।'
गार्डन हँसने लगा। राजा भी हँसे।
बात टालने की नीयत से उसने कहा, 'सरकार, बड़ी देर से हुक्का नहीं मिला। आज क्या पान भी न मिलेगा?
राजा ने हुक्का दिया।
उसी समय एक हलकारे ने आकर खुशी-खुशी कहा, 'महाराज की जय हो! झाँसी राज्य की जय हो।' राजा को मालूम था कि रानी प्रसव-गृह में हैं। जय का शब्द सुनते ही समझ गए। भीतर का हर्ष भीतर ही दबाकर गंभीरता के साथ पूछा, 'क्या बात है?'
हरकारा हर्ष के मारे उछला पड़ता था। उसने हर्षोन्मत्त होकर उत्तर दिया, 'श्रीमंत सरकार, झाँसी को राजकुमार मिले हैं।'
और उसने नीचा सिर करके अपनी कलाइयों पर उँगलियों से कड़ों के वृत्त बनाए। राजा ने हँसकर कहा, 'सोने के कड़े मिलेंगे और सिरोपाव भी। जा, तोपों की सलामी छुटवा। पर देख, बड़ी तोपें न छूटें। हल्ला बहुत करती है और बस्ती के पंचों और भले आदमियों को सूचना दे।' गार्डन भी बहस से छुटकारा पाकर अपने घर चला गया।
गवर्नर जनरल को सूचना दे दी गई। झाँसी राज्य को अंग्रेजी इलाके में मिला लेने की घड़ी टल गई।