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(भाग 21)

16 मई 2022

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपूर्ण होते थे। लेकिन स्त्रियों को कभी नहीं सताते थे। और न किसी की धन-संपत्ति लूटते थे।

झाँसी की जनता उनसे भयभीत थी परंतु अपनी रानी पर मुग्ध थी। रानी शासन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लेती थीं, कितु राजा के कठोर शासन में जहाँ कहीं दया दिखाई पड़ती थी, उसमें जनता रानी के प्रभाव के आभास की कल्पना करती थी।

कंपनी का झाँसी प्रवासी असिस्‍टेंट पॉलीटिकल एजेंट राजा के कठोर शासन, अत्याचार इत्यादि के समाचार गवर्नर जनरल के पास बराबर भेजता रहता था। उनके किसी भी सत्कार्य का समावेश उन समाचारों में न किया जाता था। और राज्यों के साथ कलकत्ता में झाँसी राज्य की भी मिसिल तैयार होती चली जा रही थी।

अंग्रेजों का चौरस करनेवाला बेलन बेतहाशा, लगातार और जोर के साथ चल रहा था। अंग्रेज लोग अपनी दूकान में हिंदुस्थान को अधूरे या अधकचरे सौदे का रूप लिए नहीं देख सकते थे। एक कानून, एक जाब्ता, एक मालिक, एक नजर, इसमें अनैक्य को तिल-भर भी स्थान देने की गुंजाइश न थी। मौका मिलते ही छोटे-मोटे रजवाड़े साफ, हजम! भारतीय जनता के सुख के लिए!!

ऊँचे पदों पर भारतीय पहुँच नहीं पावें। भारतीय संस्कृति हेच और नाचीज है, इसलिए पनपने न पावे। भारत में बहुत फालतू सोना-चाँदी है, इसलिए अंग्रेजी दूकान की रोकड़ बढ़ती चली जावे। जनता स्वाधीनता का नाम ले तो उसको बड़ी रियासतों के अंधेरों का संकेत करके चुप कर दिया जावे। बड़ी रियासतोंवाले जरा-सा भी सिर उठावें तो छोटी रियासतों को किसी-न-किसी बहाने घोंट-घाँटकर बड़ी रियासतों को चुप रहने का सबक सिखाया जावे।

सबसे बड़ा काम जो अंग्रेजों ने हिदुस्थानी जनता की भलाई (!) के लिए किया, वह था पंचायतों का सर्वनाश। अंग्रेजों को इस बात के परखने में बिलकुल विलंब नहीं हुआ कि उनके कानून के सामने हिंदुस्थान की आत्मा का सिर तभी झुकेगा जब यहाँ की पंचायतें विलीन हो जाएँगी, और हिंदुस्थानी, अर्जियाँ लिए हुए उनकी बनाई हुई साहबी अदालतों के सामने मुँहबाए भटकते फिरेंगे।

यह सब उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक ढंग से हुआ। जो परिस्थिति कठोर- से-कठोर पठान या मुगल नरेश अपने प्रकट अत्याचारों से उत्पन्न नहीं कर पाए थे, वह अंग्रेजों ने अपनी वैज्ञानिक हिकमत से उत्पन्न कर दी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और नवाब अपनी जनता का दामन छोड़कर अंग्रेजों का मुँह ताकने लगे। पुरुषार्थ की जरूरत न थी, इसलिए सिर डुबोकर विलासिता के पोखरों में घुस पड़े। अंग्रेजी बंदूक और संगीन उनकी पीठ पर थी, जनता की परवाह ही क्या की जाती?

अंग्रेजों को केवल एक बात का खुटका था-उनके इलाकों के हिंदू और मुसलमान धर्म के इतने ढकोसले क्यों मानते हैं? किसी दिन इन ढकोसलों की श्रद्धा में होकर हमें नफरत की निगाह से न देखने लगें? धर्म से लिपटी हुई आत्मा का कैसे उद्धार करके अपना भक्त बनाया जाए? बस, इनकी रूहानी भक्ति मिली कि हिंदुस्थान में अपना राज्य अमर और अक्षय हो गया।

इसलिए सरकारी पाठशालाओं में बाइबल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अमेरिका हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, सोने की चिड़िया, सोने के अंडे देनेवाली मुरगी- भारत-भूमि-तो हाथ में आई! यह न जाने पावे किसी तरह भी हाथ से! मंदिरों की मूर्तियाँ मत तोड़ो, मसजिदों को अपवित्र मत करो परंतु धर्म पर से श्रद्धा को हटा दो, फल उससे भी कहीं बढ़कर होगा। और कोने-कोने में डौंडी पीट दो कि हम धर्मों के विषय में बिलकुल तटस्थ हैं-हमारा एकमात्र आदर्श हिंदुस्थान के लूटेरों और डाकुओं का दमन करके शांति स्थापित करने का है, जिससे खेती-किसानी आबाद हो सके और व्यापार बेरोक-टोक चल सके। किसका व्यापार? किसके लिए खेती-किसानी? उसी अंग्रेज दूकानदार के लिए!

गंगाधरराव यह सब अच्छी तरह नहीं समझते थे परंतु उनके पहले पूना में एक दुबला-पतला व्यक्ति नाना फड़नवीस हुआ था। वह खूब समझता था, एक-एक नस, एक-एक रग, राई-रत्ती! उसने हिंदस्थान के तत्कालीन राजाओं को बहुत समझाया, बहुत सावधान किया; परंतु वे मूर्ख कुछ न समझे! अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की प्रेरणा में परस्पर कट मरे।

अंग्रेजों ने पंजाब को परास्त करके हाल में ही अपने हाथ में किया था। बिहार और बंगाल में राज्य था ही। मध्यदेश बपौती का रूप धारण करता चला जाता था। इन सबके बीच में दो बड़े-बड़े रोड़े थे-एक अवध की मुसलमानी नवाबी और दूसरी झाँसी की बड़ी हिंदू रियासत। ये दोनों किसी प्रकार खत्म हो जाएँ तो पाँचों घी में और फिर हो चौरस करनेवाले अंग्रेजी बेलन की जय!

गंगाधरराव के पास गार्डन और कुछ अन्य अंग्रेज आया करते थे परंतु गार्डन और वे, केवल दोस्ती निभाने नहीं आया करते थे। राज्य की भीतरी बातों का पता लगाकर गवर्नर जनरल को सूचना देना उनका प्रधान कर्तव्य था।

गंगाधरराव के कोई संतान उस समय तक नहीं हुई थी। दूसरा विवाह संतान की आकांक्षा से किया था। रानी गर्भवती भी थीं; परंतु यह अनिवार्य नहीं था कि उनके पृत्र ही उत्पन्न हो। यदि वह निस्संतान मर गए तो झाँसी को तुरंत अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा। अंग्रेजों के अंतर्मन में यह निहित था। इसीलिए गार्डन इत्यादि गंगाधरराव की खरी-खोटी भी सुन लेते थे। एक दिन शायद आए जब झाँसी निवासी हमारी खरी-खोटी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ सुनेंगे। भीतर-भीतर यह लालसा घर किए बैठी थी।

ठंड पड़ने लगी थी। तारे अधिक चमक-दमक के साथ चंद्रिका की अपनी विस्तृत झीनी चादर उड़ाकर आकाश में उपस्थित हुए। झाँसी स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर गार्डन और राजा गंगाधरराव महल के दीवानखाने में बातचीत कर रहे थे।

गंगाधरराव-'बाजीराव पंतप्रधान के देहांत का समाचार मुझको मिल गया था, परंतु यह हाल में मालूम हुआ कि उसकी पेंशन जब्त कर ली गई है। यह अच्छा नहीं किया गया।'

गार्डन- 'सोचिए सरकार, आठ लाख रुपया साल कितना होता है और फिर बिठूर की जागीर मुफ्त में! उस पर खर्च कुछ नहीं।'

गंगाधरराव-'मुझको याद है, मुझको विश्वसनीय लोगों ने बतलाया है कि कंपनी ने सन्‌ १८०२ में (सन्‌ १८०२ ई० की संधि।) उक्त पंतप्रधान के साथ जो संधि की थी, उसमें गवर्नर जनरल ने अपने हाथ से लिखा था 'यावच्चंद्र -दिवाकर' कायम रहेगी। परंतु चंद्रमा और सूर्य सब जहाँ-के-तहाँ हैं। संधि-पत्र पर दस्तखत किए अभी ५० वर्ष भी नहीं हुए और सारा मैदान सफाचट कर दिया!'

गार्डन-'सरकार, संधि-पत्र मेरे सामने नहीं है, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि उसमें क्‍या लिखा है, परंतु सुनता हूँ, उनको जब १५-१६ वर्ष पीछे पेंशन दी गई तब यह लिखा था कि पेंशन को वह और उनका कंटुंब ही भोग सकेगा।'

गंगाधरराव-नाना धोंडूपंत जो अब जवान है, पंतप्रधान का दत्तक पुत्र है। क्या वह कुटुंबी नहीं माना जाएगा?'

गार्डन-'हमारे देश के कानून में गोद नहीं मानी जाती।'

गंगाधरराव-'पर हिंदुस्थान तो आपका देश नहीं है।'

गार्डन-'अंग्रेज कंपनी का राज्य तो है। राजा अपना कानून बरतता है न कि प्रजा का। सरकार अपने राज्य में अपना ही कानून तो बरतते हैं न?'

गंगाधरराव-'हमारा और हमारी प्रजा का काननू तो एक ही है।'

गार्डन-'यह बिलकुल ठीक है सरकार। और, दीवानी मामलों में हमारे इलाकों में भी प्रजा का ही कानून माना और चलाया जाता है परंतु रियासतों के संबंध में यह बात लागू नहीं की जाती।'

गंगाधरराव-'क्यों, रियासतें और उनके रईस क्या साधारण प्रजा से भी गए-बीते हैं ?'

गार्डन-'सो सरकार मैं नहीं जानता। कंपनी सरकार इंग्लैंड में कानून बना देती है। कुछ कानून गवर्नर जनरल भी बनाते हैं। हमको उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है।'

गंगाधरराव-'हमारे धर्म में विधान है कि यदि औरस पुत्र पिंडदान देने के लिए न हो तो दत्तक पुत्र ठीक औरस पुत्र की तरह पिंडदान दे सकता है। आप लोग क्या राजाओं को इससे वंचित करना चाहते हैं?'

गार्डन-'नहीं सरकार। बड़ी रियासतों को यह अधिकार दे दिया गया है। परंतु जो रियासतें कंपनी सरकार की आश्रित हैं, उनमें गोदी गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना नहीं ली जा सकती। यदि ली जावे तो गोद लिए लड़के को राजगद्दी का अधिकारी नहीं माना जा सकता। वह राजा की निजी संपत्ति अवश्य पा सकता है और पिंडदान मजे में दे सकता है। सरकार ने हमारे धर्म की पुस्तक पढ़ी? उसका हिंदी में अनुवाद हो गया है। छप गई है।'

गंगाधरराव-'छप गई है अर्थात्?'

गार्डन-'छापाखाना में छपती है। उसमें यंत्र होते हैं। वर्णमाला के अक्षर ढले हए होते हैं। उनको मिला-मिलाकर स्याही से कागज पर छाप लेते हैं। हजारों की संख्या में छप जाती है।'

गंगाधरराव-'ऐं! यह विलक्षण यंत्र है। मैं ग्रंथों की नकल करवा-करवाकर हैरानी में पड़ा रहता हूँ और न जाने कितना रुपया व्यय किया करता हूँ। एक यंत्र हमारे लिए भी मँगवा दीजिए।

गार्डन को डर लगा। ऐसा भयंकर विषधर झाँसी में दाखिल किया जावे! पुस्तकें छपेंगी, समाचार-पत्र निकलेंगे। जनता सजग हो जाएगी। अंग्रेजों का रौब धूल में मिल जाएगा। जिस आतंक के बल-भरोसे कंपनी-सरकार राज्य चला रही है, वह हवा में मिल जाएगा। गार्डन ने सोचा था कि राजा को इस कड़वे प्रसंग से हटाकर किसी मनोरंजक प्रसंग में ले जाऊँ, परंतु यह प्रसंग तो और भी अधिक कटु निकला।

लेकिन गार्डन ने चतुराई से अपने को बचा लेने का प्रयत्न किया। बोला, 'सरकार, गवर्नर जनरल की आज्ञा बिना कोई भी उस यंत्र को नहीं रख सकता।'

गंगाधरराव को रोष हुआ, आश्चर्य भी। बोले, 'इसमें भी गवर्नर जनरल की आज्ञा, अनुमति? आप लोग थोड़े दिन में शायद यह भी कहने लगो कि हमारी आज्ञा बिना पानी भी मत पिओ।'

गार्डन हँसने लगा। राजा भी हँसे।

बात टालने की नीयत से उसने कहा, 'सरकार, बड़ी देर से हुक्का नहीं मिला। आज क्या पान भी न मिलेगा?

राजा ने हुक्का दिया।

उसी समय एक हलकारे ने आकर खुशी-खुशी कहा, 'महाराज की जय हो! झाँसी राज्य की जय हो।' राजा को मालूम था कि रानी प्रसव-गृह में हैं। जय का शब्द सुनते ही समझ गए। भीतर का हर्ष भीतर ही दबाकर गंभीरता के साथ पूछा, 'क्या बात है?'

हरकारा हर्ष के मारे उछला पड़ता था। उसने हर्षोन्मत्त होकर उत्तर दिया, 'श्रीमंत सरकार, झाँसी को राजकुमार मिले हैं।'

और उसने नीचा सिर करके अपनी कलाइयों पर उँगलियों से कड़ों के वृत्त बनाए। राजा ने हँसकर कहा, 'सोने के कड़े मिलेंगे और सिरोपाव भी। जा, तोपों की सलामी छुटवा। पर देख, बड़ी तोपें न छूटें। हल्ला बहुत करती है और बस्ती के पंचों और भले आदमियों को सूचना दे।' गार्डन भी बहस से छुटकारा पाकर अपने घर चला गया।

गवर्नर जनरल को सूचना दे दी गई। झाँसी राज्य को अंग्रेजी इलाके में मिला लेने की घड़ी टल गई।


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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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(भाग 22)

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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(भाग 26)

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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(भाग 28)

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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