💮🌍🌎🌎धरा विचलित🌏🌎🌍💮
धरती माँ की पीड़ा- अकथनीय- अतिरेक,
दिवनिशि धरती माँ रे! अश्रुपूरित रहती है,
मन हुआ क्लांत - म्लान - अतिविक्षिप्त है।
व्यथा-वेदना सर्प फणदंश सम- असह्य है।।
जागृति की एषणा प्रचण्ड- अति तीव्र है।
शंख-प्रत्यंचा सुषुप्त- रणभूमि रिक्त है।।
पौरुषत्व व्यस्त स्वप्नलोक में-
चिर निंद्रा में मानो लिप्त है।
नारी में दुर्गा अवसान, लुप्तप्राय- विनम्र है।
कौन (?) वीर करेगा आकर धर्म की भरपाई,
जन-साधारण दग्ध, त्रस्त- निस्क्रिय है।।
अवतरण अवश्यंभावी पुनः शिव-कृष्ण का
आहत् सति आत्मदाह को आज प्रस्तुत है।
ध्रिणा-द्वेष-प्रतिशोध-लोभ-काम-अनुरक्ति की,
ज्वाला अतिउग्र, भावी महाविनाश प्रचण्ड है।।
मुँह बाए कोरोना करोड़ों परिवार अभिशप्त हैं।
व्याप्त तमसा- सात्विकता का आह्वान सही है।।
आर्तनाद् गुँजायमान- धरा पर व्याप्त तमसा है।
धरा- जल- नभ प्राणवायुहीन- वायु कुपित है।।
पथ अतिदुस्तर - कंटकाजीर्ण भयावह- विकट है।
थम जायेगी लखयुगों से चलायमान् धरा धुरी पर,
रवि रथ चक्र ओजहीन थमा- व्यथित- बाधित है।।
मौन व्योम सौर्य मण्डल- नक्षत्र- सप्तऋषि तारे,
शुभ लक्षण ब्राह्ममूहर्त की अरुणिमा में परिलक्षित है।।
शंखनाद् गुँजायमान, मत कह बँधु! धरा विचलित है।
नभ्य मानवतावादियों के वीर कुरुक्षेत्र में आहुत है।।
💥💥💥 💥 डॉ. कवि कुमार निर्मल 💥 💥💥💥