जिन्दगी की हर घड़ी है वारन्टी मय।
कभी जय होती तो कभी होती छय।।
आगे ससरती हीं यह जाती है।
सुर-ताल सब बदल जाते हैं।।
ठोकरो की पुरजोर ताक़त से,
तजुर्बा बढ़ता, निखर जाते हैं।
खिलखिलाहट से कहकशे की,
राह पे सब बढ़ते चले जाते हैं।।
मयपन है कि झुर्रियाँ गिन पाता नहीं।
गुरूर है शौहरत-ओ'-जिश्म का,
हिसाब आइना का भाता नहीं।।
परायों को अपना बनाया सदा-
मुझे खुदगर्ज बनना आता नहीं।
बचपन का वो देना, सिर्फ देना;
अब क्यों (?) रास आता नहीं।।
अपने अजीज थे जो बहुत लोग,
तंग दरबा- गुँजाइश कर पाता नहीं।
जिन्दगी का फलसफ़ा,
आदमी को समझ में आता नहीं।।।
डॉ. कवि कुमार निर्मल