DOGMA NO MORE MORE
परंपरा अंधविश्वास का पुष्ट कारण भी हो सकता है।
मेरे पुर्वजों ने चुंकि ऐसा किया,
अतयेव मुझे भी करना चाहिए---गलत है।
उस समय की अवस्था क्या 【?】 थी,
यह उनके सामयिक सिस्टम के अनुकूल
ऐसा कुछ हो रहा होगा, परन्तु आज वह
गलत भी हो सकता है, गलत है सरासर
- समय के प्रतिकूल।
"सती प्रथा" कभी धर्मिक मान्यताओं का हिस्सा रही थी,
पर आज यह अपराध और गलत है।
अनेक ऐतिहासिक उदहारण हैं,
कभी माक़ूल तो आज बेतुके हैं।
यज्ञ, सिखा, सुत्रादि का हीं समझा जाए
तो आज उसे ढोना उचित नहीं।
पेड़ और प्रकृति को परम अराध्य मान कर
पूजा करना हीं डौग्मा है।
"यज्ञोपवित"
"यज्ञोपवित" का अर्थ हुआ 'यज्ञ के समय
धारण करने वाला वस्त्रl' प्राचीन काल में
अन्न प्रचूर था एवं उसको खाने वाले बहुत कम।
खेतों में कटनी के बिना फ़सल सड़ने लगी
और नाना प्रकार के संक्रामक रोग फैलने लगे,
महामारी फैली, पशु और मानवों की मृत्यु होने लगी।
उस समय के बुद्धिजीवियों ने इस त्रादसी से बचने के
लिए उपाय सोचा कि अतिरिक्त अन्न्नादी को एक
गड्ढे में जला दिया जाय। इसे शुभ कार्य माना गया
और जब मृत्यु दर कम हुई तो ख़ुशी से लोग जश्न
मानाने में जुट गए। सोमरस-पान उस समय बुरा
नहीं माना जाता था।
जश्न मनाते हुए लोग जब अग्नि कुण्ड (गड्ढे) के करीब आये
तो नशे में कुछ लोग गिर कर जल गए
और कुछ तो मर भी गए। तब यह तय हुआ
की कुछ सत्वित प्रवित्ति वाले (नशे से परहेज करने वाले)
हीं गड्ढे पे पास जायेंगे और घृत-सुवासित-धुप
आदि से दहन कृया संपन्न करेंगे।
कुछ दिन बीते तो नशे में धुत्त कुछ
दर्शक उन सात्विक लोगों में मिल जा पड़े खड्ड में।
तब यह निश्चय लिया गया कि एक
घेरे में परिसर बनेगा जिसमें सिर्फ सात्विक जन
(यज्ञ-कर्ता) को हीं प्रवेश मिलेगा और वे सहज दहन (यज्ञ)
में दाहक (धृतादि) एवं वातावरण को
सुवासित करने के लिए धुप-चन्दनादि (हवी)
डाल कर कार्य (हवन) संपन्न करेंगे।
कुछ दिन अच्छा चला लेकिन फिर भी
दुर्धटनाओं पर पूर्ण अंकुश नहीं लग पाया।
अंततोगत्वा विद्वत् सभा की मिमांसा से यह तय हुआ की यज्ञकर्ता 'मृग-चर्म'
धारण करेंगे ताकि उनको पहचाना जा सके
और जश्न मानाने वाले यग्य कुण्ड के पास न जा पाएँ,
चौकसी बड़ा दी गईl इस प्रकार ब्राह्मण,
यज्ञ-कर्ता के रूप में समाज के सर्वोच्च व्यक्तियों में
आ गए। मृग चर्म सहज सुलभ नहीं था अतः
कपड़ो के अविष्कार के साथ जनेऊ (यज्ञोपवित)
का सामयिक सुरक्षा हेतु प्रचलन चला।
आज जब लोग भूखे मर रहें हैं और
अन्न तो दूर लकड़ी भी दुर्लभ होती जा रही है,
तब क्या इस यज्ञ की परम्परा को ढ़ोने में
क्या कोई औचित्य है?
बच्चे दूध बिना रुग्ण हो रहे हैं तो
धृताहुति की बात क्या हास्यापद नहीं है?
धर्म का अर्थ है धारण करना (धारयेती धर्म),
आवश्यकता थी समाज को तो जनेऊ बनी,
अब जब आप यज्ञ की अहमियत को
नकार रहे हो और यज्ञ नहीं करते तो फिर
यज्ञ के समय धारण करने वाले वस्त्र को क्यों पहनें?
क्या यह धर्म होगा या फिर सिर्फ धार्मिक सदृश बनने की चेष्टा?
पुरोहितों ने धर्म के नम पर शोषण हेतु
यज्ञोपवित को कर्मकांड का रूप दिया।
यज्ञोपवित धारण कर नशा करते बहुतेरे देखे जाते हैं!
भ्रष्ट भी बहुतेरे मिलेंगे गटर में।
सात्विक क्या मांस-मछली खाते हैं?
प्याज-लहसुन खाते हैं? कर्म नहीं तो वस्त्र क्यों?
और, जब यज्ञ हीं अव्यवहारिक है तो फिर यह चिन्ह क्यों? यज्ञोपवित की उत्पत्ति भारत में नहीं वरन आर्यों
के साथ सिन्धु धाटी के उस पार से उनके साथ आई थी।
वर्ण व्यवस्था हिन्दुओं को कमज़ोर बना
लुप्त प्राय करती जा रही है।
एतदर्थ, अंतरजातीय विवाह की परम्परा
'आर्य समाज' ने हीं तो चलायी।
कुछ मित्रों का कहना है यह धर्म विरोधि धारणा है....
"Brahm chareveti Bra'hmanah"
...janm se nahi balki karm se koi vyakti Bra'hman bhi 【cha'ro sath ho to manav purn hota hai】 hota hai...
"Varn Vyavashtha" Aryon ne Samajik utthan ke liye kiya..aj agar koi Pandit Sudra ka karm kare to kya wah Brahman bola jayega? Vastvikta yah hai ki pratyek vyakti ko Brahmabochit, Chhatriyochit, Vaiyochit evam Sudrochit Charo Dharm nibhane hote hai. Kya hamari Bahu-Beti ko koi chhede to hamare khoon me uba'l nahi ayega? Kya yah Chhatriyochit Dharm ek Brahman puja-path se hat kar nahi uthyega astra-sashtra rakchha hetu?
"Andh Vishvash" evam "rudiwadita" ne
hi lakho Brahmabo ko Krischiyan aur
Muslim bana diya...
"Dharm ke nam soshan chakra
chalta raha, Bharat me hi nahi,
Rome aur Irak-Iran me bhi aur
videshiyon ne unhe pyar,
rojgar de kar apna liya.
Aj Yoga videsho me kitna popular hua,
hum dekh rahe hai aur humare Bhartiya
aj sankuchit ho adhe se kum ho gaye missionaries ki seva se prabhawit ho kar.
वैदिक दर्शन में कहा गया...सदगुरू की वाणी
"आप्त वाक्य" है, कई अवतार और युग पुरुष
आये सुधार भी किए जनहित और मानव समाज के
रक्षार्थ समय - समय पर और हम उसे अपनाये भी...
मृग-चर्म को पतले बनारसी सूत में किये जाने का
कहीं तो नहीं लिखा! आवश्यकता आविस्कार की
जननी है, गोया आज की तारीख़ में इसकी
अव्यवहारिकता को क्या नकारा जा सकता है?
कर्म से हीं कोई महान हो सकता है..
जन्म से नहीं!!
कान के पीछे दो नसे दबती हैं और मूत्राशय-मलाशय से पुर्णतः विसर्जित होता है...
ये अवैज्ञानिक मान्यता है...
चाभी के मुआमले में की रिंग से यह सूत्र अधिक सुरक्षित है,
यह बात तो पचती है पर इसे धर्म से जोड़ना आज की
तारीख में मेरी नज़र में ठीक नहीं...
कुछ इसे स्वेक्षिक या अधिकार कह सकते हैं,
ये भी ठीक है पर मेरी अपनी समझ है की पहनो तो
उसकी कद्र करो, दिखावे के लिए या सिर्फ ब्राह्मणत्व
का ठप्पा लगाने के लिए नहीं...
मेरे बहुतेरे मैथिलि ब्राह्मण मित्र है जिनका नित्य का मुख्य
आहार मत्स्यादी है...
अगर यज्ञोपवित धारण कर कोई सात्विक या पूर्ण
निरामिष हो जाये तो मैं इसको हिसाब के कुछ अनुकूल समझूं, पर आज यह उचित नहीँ, कारण प्रचूर है कहाँ?
धर्म दिखावे के लिए नहीं वरण पालन करने के लिए हीं
बनाया गया है...
मनुष्य तन मिला है तो स्वाद के लिए जीव-हत्या
के कम से कम मैं तो एकदम खिलाफ़ हूँ...
हाँ, औषधि के रूप में किसी भी खाद्य या पेय का
व्यव्हार अगर उचित है, जीवन की रक्षा हेतु तो बात!
सिखा का उद्भव:--
आर्य एसियन क्षेत्र में बाहर से आए थे और इस अविकसित भूखंड में आधिपत्य जमा आर्यावर्त्त की स्थापना की।
पहले के जमाने में लोग आज की तरह क्नीन सेभ नहीं रहते थे (आश्चर्य होता है जब सुनता हूँ कि तथाकथित देवताओं को देह पर रोम कूप नगण्य होते थे और उससे अधिक आश्चर्य तब होता है जब जटाजूटधारी शिव को कभी क्लीन सेभ तो कभी मोंछ-दाढ़ी में छवि पटल पर देखा जाता है। आपने शायद हीं कभी कृष्ण की फोटो या प्रतिमा में यह सब देखा होगा, हाँ वाल रूप में लट लटकनी अवश्य देखी है या पढ़ी है दोहों में।)
आदिकाल में सभी पुरुषों को दाढ़ी-मोछ और लम्बे केश रहते थे।
उस समय कृषि का खाद्यादि की आपूर्ति हेतु समुचित विकास नहीं हो पाया था। मांसहारी थे लोग (?)। शिकार हेतु नियमित रूप से बीहड़ में जाना पड़ता था पुरुषों को। अनुमन निशाना चूक जाने पर हिंसक जानवर शिकारी को पकड़ कर या तो बूरी तरह जख्मी कर देते थे या फिर खा जाते थे।
घटनाएं होती रही।
वुद्धिजीवियों ने निवारण हेतु गहन मिमांसा की तो पाया कि अधिकांश आहत अपने लम्बे सर के बालों के झाड़ी में फंस जाने से भाग नहीं पाते थे और आक्रमणकारी पशु दबोच लेता था। तय हुआ की आर्य लम्बे केश नहीं रखेंगे और ब्रह्माण्ड रंध्र के उपर उसे सुरक्षित रखने के इरादे से कुछ लटें छोटी रहने देंगे। यह केशांस शीखा के नाम से जाना गया। इसी आधार पर बाद में परम्परा निभाते हुए वयस्कों को यज्ञोपवीत के साथ मुण्डन करवा शिखा-यज्ञोपवीत से अलंकृत किया जाता था।
अनार्यों ने इसका अनुशरण बहुत बाद में कर, गुणवत्ता देख हेयर कटिंग के रूप में गहा।
अब बताइये आज शिखा चाहे न चाहे स्वतः आधुनिक पीढ़ी ने इस नियम को ताखे पर रख दिया। अब इसका औचित्य क्या रह गया यज्ञोपवीत संस्कार के अलावा?
न वो रिस्क है व न वो यज्ञ हीं वैज्ञानिक रह गया।
🙏 डॉ. कवि कुमार निर्मल, बेतिया 【बिहार】 🙏