"ग़ज़ल"
गज़ल को सितम पीने की
आदत है बहुत पुरानी
पढ़ कर वो मस्ती में
आफ़जाही- वाह! वाह!!
उम्दा! लाज़वाब कहना-
महफ़िल की जान- मानी
कह दो भले इसे कहानी
ज़माने को क्या पता,
हम किन मजबूरियों में लिखते हैं?
वख़्त पहले था कहाँ की कुछ लिखूँ!
सोहबत की अब गुंजाइश नहीं,
हाय! श्याही ख़तम होती नहीं!!
क़िताब मोटी होती चली गई!
दूर- ख़्वाबों की महक बन गई!!
ज़िंदगी शायर की ससरती गई!!!
डा. कवि कुमार निर्मल