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वंसंत ऋतु के अद्भुत सौन्दर्य ने,
मेरे हृदय में पुरजोर अगन है लगाई!
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तुझे पाने की चाहत ने मेरे हिया में,
अश्कों की नदियाँ कई बहवाई!!
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प्रगाड़ नींद्रा से झकझोर मुझे तुमने जगाया!
तन्द्रा को रक्तिम-तिव्र किरणों से दूर भगाया!!
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अहिर्निष तुम्हारे लिए मैं तड़प- तरस रहा हूँ!
तुम कब आओगे, पथ को एकटक तक रहा हूँ!!
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जड़ता पाश में बंध मैं नींद्रा में खो भ्रमित स्तब्ध हूँ!
दिव्य श्नेहमय ऊष्ण स्पर्श से तन्द्रा-मुक्त हुआ हूँ!!
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तेरी करुणा से अब जागृत हो संभल चुका हूँ!
तुम्हारी अहेतुकी कृपा हेतु मैं अति व्यध्र हूँ!!
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अतुल ब्रह्माण्ड में तुम अतुलनीय हो!
तुम हर स्थान से उपर,- कालातीत हो!!
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चिदाकाश, तुम मेरे मानस पटल पर स्थापित हो!
समझ रहा हूँ प्रभु मैं- तुम कण-कण के वासी हो!!
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चहुओर सुगंधित पुष्पों से नभ मण्डल सुवासित है!
हिमगिरि पिधल बन रहा चहुँदिसि वारी है!!
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सब कुछ है मगर तुम क्यों नहीं अब आ रहे हो?
कहते हो मन मैं तेरे हूँ बैठा! दरस नहीं दे पा रहे हो??
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🙏🙏🙏 डॉ. कवि कुमार निर्मल 🙏🙏🙏