मेरा न्यारा देश है ये भारत
दीप जले घर-घर, हर आँगन
रंग-बिरंगी सजी रंगोली द्वारों पर
प्रिये का श्रृंगार देख, इठलाये साजन
विजय-ध्वजा फहरे हर चौबारे
वीरों का ये देश राष्ट्र की सीमा संवारे
पाई हर बच्चे ने आज महारथ
देश-प्रेम से बड़ा न कोई स्वारथ
जग-मग करता मेरा प्यारा भारत
स्वरचित ©®
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प्रेरणात्मक सृजन
लूट-लपट हर गाँव में
ऐसे में आओ कुछ सोचें,
बैठ नीम की छाँव में
शवे दिन कंधों पर झण्डे थे
पोर-पोर पड़ते डण्डे थे
बूटों की ठोकरें, जेल, फाँसियाँ
दमन के हथकण्डे थे
क्रूर यातना शिविरों में हम
होते थे बेसुध औ‘ बेदम
झुके न पल भर को, हिमगिरी-सा
सदा तने रहते थे हरदम
जेल गये, फाँसी पर झूले
मेर-मिटे, पर ध्येय न भूले
चिन्ता थी बस एक कि घर-घर
बेला फूले, चम्पा फूले
और एक दिन चित्त हो गया,
दुश्मन हल्के दाँव में
टूट-टूट बिखरी हथकडि़याँ,
बेड़ी तड़की पाँव में
मना मुक्ति का पर्व सुहाना
रहा खुशी का नहीं ठिकाना
लगा रहा शासन की कुर्सी
पर अपनों का आना-जाना
किन्तु, आज सारी खुशियाँ
हो गयी तिरोहित, वज्र गिरा है
घोर अनैतिकता के विष से-
भरी देश की शिरा-शिरा है
स्वप्न भंग हो गया,
मुर्दागनी छायी,
घर-घर अंधकार है
राष्ट्र-प्रेम की उड़ी धज्ज्यिाँ
लूट मच रही धुआँधार है
लहरें छूती आसमान को,
छेद हो गया नाव में
लगता देश बिकेगा जल्दी,
एक टके के। भाव में
जब तक पद का मद महकेगा
लालच-लोभ-स्वार्थ बहकेगा
सत्ता की मदिरा पी-पीकर
मानव नर-पशु-सा बहकेगा
अनाचार का अन्त न होगा
पतझर छोड़ वसन्त ना होगा
घर-घर दानव पैदा होंगे
कोई सज्जन-संत न होगा
जल्दी ही कुछ करना होगा
बनना और सँवरना होगा
नयी राह ढूँढ़नी पड़ेगी
यदि न, लाश यह और सड़ेगी
कीड़े पड़ जायेंगे
‘रोगी प्रजातंत्र’ के घाव में
देशवासियों!
आग लगाकर ईष्र्या-द्वेष-दुराव में
आओ, कुछ सोचें, कुछ समझें,
बैठ नीम की छाँव में
अन्यरचित काव्य रचना:
कीर्तिशेष श्री विमल राजस्थानी जी
(अपने मेरे पिता🙏)