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मनुष्य के अंदर सब कुछ जानने
वाला जो बैठा है वही है भगवान्।
ओत-प्रोत योग से वे हर क्षण हमारे साथ हैं।
याने, हम अकेले कदापि नहीं।
जब अनंत शक्तिशाली हमारे साथ हैं
तो हम असहाय कैसे हो सकते हैं?
डर की भावना कभी नहीं रहनी चाहिए--
जैसे एक परमाणु है जिसमें एक
नाभि है तथा एलेक्ट्रोन्स अपनी
धूरि पर अनवरत एक सुनिश्चित
गति से परिक्रमा करते रहते हैं,
एलेक्ट्रोन कितना हीं दूर चले जाए
परमाणु की नाभि के चारों ओर हीं
तो अपनी निर्धारित धूरि पर धुमेगा;
यानि कोई भी जड़-चेतन उनकी
अहेतुकी "कृपा" से वंचित हो हीं
नहीं सकता। एकाकिपन क्यो?
एलेक्ट्रोन अगर धूरि छोड़ दे तो
विनाशकारी 'विस्फोटक' होगा।
प्रोटोन खण्डित हो तो महानाश।
अतुल ब्रह्माण्ड उन्हीं की कृपा
से अस्तित्व में आया, है एवं रहेगा।
यह हम मान कर चलें और उस
परम सत्ता "विश्व-नाभि" के
आकर्षण से एक क्षण के लिए
भी विलग होने की कल्पना भी
न करना हीं ज्ञान है, "धर्म" है।
जिस क्षण यह पूर्ण समर्पण भाव हमारे
हृद्यांचल में अंकुरित होगा, परमानंद के
अधिकारी हो आनन्द सरिता में
गोते लगाएँगे वा परम सुख प्राप्त
करेंगे; यही है मुक्ति या मोक्ष-मार्ग॥
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शुभम्!