रद्दी बही और अखबारों को कूट - काट
बनी लुगदी से चमक- उभर मैं आता हूँ
चाहने वालों के रंग में सहज मैं जाता हूँ
'उकेरी लकिरों' से कवियों का मन पढ़ पाता हूँ
शास्त्र कहें या किताब, पुस्तकालयों में सज जाता हूँ
'भोज पत्र' अब दुर्लभ, मैं हीं सबका मन बहलाता हूँ
नित नई कहानी- 'इतिहास' के पन्नों से जुट जाता हूँ
रद्दी बही और अखबारों को कूट - काट
बनी लुगदी से चमक- उभर मैं आता हूँ
डॉ. कवि कुमार निर्मल