लधुकथा लिखने बैठा पर
विहंगम विषय एक मन में आ गहराया।
सोचा कुछ हल्का- फुल्का लिख डालूँ,
पर हटात् गहन विचार मन में आया।।
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"मन हीं कर्म का कारण है"-
मन की चर्चा करते हैं।
मन की गति की
शुभफलाफलकारी दिशा वरते हैं।।
🏵️मन का स्वभाव और गति🏵️
मृत्यु के समय जब तीनों वायु तन से निकलती हैं तब मन संस्कार के हिसाब से तन खोजने लगता है कारण आशय की तलाश तो उसे करनी होगी हीं। इस खोज में कुछ समय लग सकता है। छ महिने या फिर एक साल भी। इस अंतराल में शरीर में उपस्थित पांच वायुओं प्राण, अपान, समान, व्यान एवं उदान क्रमश: तन परित्याग कर निकसती हैं। अगर अंतिम वायु निकलने के पहले कभी - कभी वह संस्कारवश ठहर भी सकती है ओर निकल गई तो आस-पास हीं रहती है, वापस लौट भी सकती हैं उसी तन में। यही कारण है कि मुक्त आत्माएं, सद् गुरु वा तारक ब्रह्म की अहेतुकी कृपा से बहुतों को मृत धोषित करने के बाद भी जिवन मिल जाता है।
एक कहानी है...
एकबार दो व्यक्ति बनारस गये। एक था साधू और दुसरा पियक्कड। उतरे एक हीं ट्रेन से और बाहर निकल अपने - अपने रिक्से वाले को बोले---
साधु बोला कि मुझे वहाँ ले चलो जहाँ साधुओं का जमावड़ा हो...
वह ले गया उसे दशाश्वमेर धाट। रम गया वह नेह में और तुष्ट हो ओज बटोर अपने गाँव लौट सतसंग करने लगा।
और, दुसरा पहुँच गया शराबखाने।
पैसा कम पड़ा तो देसी सस्ती दुकान और पाउच! टुन्न हो पड़ गया किसी गटरना में।
वही रिक्से वाला इत्तेफाकन उधर से गुजरा तो पहचान दया कर लाद स्टेशन पहुँचा दिया जहाँ एक गाँव वाला दया कर अपने पैसे से उसे उसके घर दयनिय अवस्था में पहुँचा दिया। जहर लिया था प्रचूर अतयेव रुग्ण हो बिछावन से चिपक गया।
फिर देखिये,
"स्वर्ग और नर्क की बात"
कहा गया कि एक सुसंस्कारी स्वर्ग या विहिस्त में और एक कुसंस्कारी नर्क या दोज़ख में जाएगा।
अच्छा किया तो स्वर्ग अन्यथा नर्क जाएगा मन!
जो सोंच सकता है पर इंद्रियों के अभाव में कुछ कर नही सकता और न हीं उसको सुख-दुख का अनुभव होगा।
कोई भी अच्छे कर्म तो साथ हीं कुकर्म भी कर सकता है अपने जीवन में। याने ऐसे में वह दोनों जगहों पर जाएगा हिसाब चूकता करने के लिए। तब बतायें बँधु, पहले वह किस आधार पर कहाँ पहले जाएगा? अतयेव यह स्वर्ग व नर्क की धारणा त्रुटिपुर्ण है।
ख़ुदखुशी और इच्छा मृत्यु अस्वभाविक मनसा है। जो साधक हैं, वे इच्छा मृत्यु भावग्रसिता से बचें......कभी कभी यह घातक और फलित हो भी जाती है।
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सचमुच मौत ढोते - ढोते पौराणिक बिचारी मौत की देवी या काल देव वयोवृद्ध हो चुके होंगे, वे नमन्य हैं।
पर हर कोई न जाने क्यों उससे भयाक्रांत रहता है, उससे भागता रहता है जीर्ण-शिर्ण हो कर भी!
खगोलीय घटनाक्रम में जैसे सूर्योदय के साथ दिन और गोधुली के बिद रात होना नियमक हैं, इसे भी ऐसा हीं सहज भाव से समझें तो व्यर्थ हीं भय सृष्ट नहीं होगा।
कहते हैं...दुर्घटना हो गई!
परन्तु सत्य तो यह है कि घटना होती है सृष्टि चक्र के पूर्वनिर्धारित नियमक से, अकाल लगे हम़े, पर घटित होने वाली हर घटना पुर्व निश्चित है।
यह मृत्यु भी एक दैहिक घटनाक्रम है।
सहज भाव से ससम्मान अंत्येष्टि कर
संतप्त परिवार को सहायता करें।
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मृत्योपरातं नियम से श्राद्ध करने के बाद दैनिक पितृ यज्ञ करें। विदेही आत्मा को हमारा कूछ भी किए का फलाफल नहीं मिलने वाला कारण आत्मा को इंद्रिया नहीं होती, संवेदनशीलता नहीं होती, आत्मा दुखी वा सुखी नहीं होती, वह निराकार अवस्था है। संतप्त परिवार, जो अपने एक प्रिय को खो चुके हैं, उनको यथासंभव सहयोग करें। शुभम्!
🙏🙏🏿डॉ. कवि कुमार निर्मल🙏🏿🙏