*मानव जीवन बड़ा ही विचित्र है यहां समय-समय पर मनुष्य को सुख एवं दुख प्राप्त होते रहते हैं | किसी - किसी को ऐसा प्रतीत होता है कि जब से उसका जन्म हुआ तब से लेकर आज तक उसको दुख ही प्राप्त हुआ है ! ऐसा हो भी सकता है क्योंकि मनुष्य का इस संसार में यदि कोई सच्चा मित्र है तो वह दुख ही है क्योंकि यह दुख सदैव मनुष्य से लिपटा रहता है | कभी पुत्र का दुख , कभी परिवार का दुख , कभी पति का दुख , कभी समाज का दुख तो कभी संपत्ति का दुख | कहने का तात्पर्य है कि किसी न किसी रूप में यह मनुष्य के पास सदैव बना रहता है | सुख तो एक स्वप्न की भांति है जो कुछ क्षण के लिए आता है और चला जाता है जबकि दुख सदैव बना रहता है | मनुष्य दुख में दुखी हो जाता है जबकि दुख में भी मुस्कुराने वाला मनुष्य ही जीवन को ढंग से जीने में सफल होता है | प्राय: लोग ईश्वर से सुख की कामना करते हैं जबकि महारानी कुंती ने भगवान श्याम सुंदर कन्हैया से सुख की कामना न करते हुए दुख ही मांगा था | जैसा कि हमारे शास्त्रों में वर्णित है :- "विपदः सन्तु नः शश्वत तत्र तत्र जगतगुरो ! भवतो दर्शनं यत्स्याद्पुनभवदर्शनम् !! अर्थात :- हे गोविन्द मैं तो एक ही वरदान मांगती हूँ कि जबतक मेरा जीवन है तब तक मुझे दुःख और विपत्ति ही मिले | आखिर दुख है क्या ? मनुष्य दुखी क्यों होता है ? यदि इसके कारणों पर विचार किया जाय तो यही परिणाम निकल कर आता है कि जब मनुष्य की अपेक्षाये नहीं पूरी होती हैं तो वह दुखी हो जाता है | दुख का होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब मनुष्य सुखी हो जाता है तो वह अपने सुख के उन्माद में सारे संसार को भूलने लगता है और दुख में उसे अपने सगे संबंधी यहां तक कि ईश्वर की भी याद बनी रहती है और जिसे ईश्वर की याद बनी रहती हो उसके पास दुख फटक भी नहीं सकता है | मनुष्य के दुखों का कारण मोह माया ही कही जा सकती है | बाबा जी ने मानस में लिखा है :- मोह शकल व्याधिन्ह कर मूला" किसी के प्रति मोह हो जाने पर जब वह हमसे दूर चला जाता है या हम उसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो फिर हृदय में दुख व्याप्त हो जाता है | दुख पाकर व्यथित होने वाले यह शायद भूल जाते हैं की इस संसार का नाम ही "दु:खालय" है अर्थात दुख का घर | मनुष्य को सुख तो सिर्फ भगवान के चरणों में ही मिल सकता है | सभी कामनाओं , वासनाओं एवं इच्छाओं का त्याग कर पाना संभव तो नहीं परंतु किसी के प्रति आसक्ति हो जाना कि दुख का मुख्य कारण कहा जा सकता है |*
*आज जिस प्रकार युग परिवर्तन हुआ है उसी प्रकार दुख की परिभाषा भी परिवर्तित हो गई है | आज मनुष्य को छोटी-छोटी बात पर दुखी होते हुए देखा जा सकता है | वास्तविक दुख क्या है ? इस पर कोई विचार ही नहीं करना चाहता | मनुष्य कभी-कभी अपने मन में विचार करता है कि हमने ऐसा कौन सा कर्म कर दिया है जिसके कारण हमें दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं | ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बता देना चाहता हूं कि इस जन्म के कर्म के अतिरिक्त पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भी हमको इसी जन्म में भोगना पड़ता है | दुख की परिभाषा हमारे शास्त्रों में बताई गई है कि :- "विपद विष्मरणं विष्णुः संपन्नारायणास्मृतिः" अर्थात :- भगवान विष्णु का विस्मरण ही (उन्हें भुला देना ही) विपत्ति है और भगवान की स्मृति ही सबसे बड़ी संपत्ती है | आज हम भौतिकता में इतने ज्यादा उलझ गए कि हमें ईश्वर का ध्यान करने के लिए समय ही नहीं मिल पाता | दुख - दुख - दुख चिल्लाते - चिल्लाते सारा जीवन व्यतीत हो जाता है | एक तथ्य यह भी कि जिस विषय का मस्तिष्क सदैव चिंतन करता रहता है हमें वही प्राप्त भी होता है | इसलिए सर्वप्रथम मस्तिष्क को दुख से मुक्त करने की आवश्यकता होती है | दुख में प्रसन्न तो नहीं रहा जा सकता परंतु प्रसन्न रहने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है | दुख से स्वयं को बचाने का सबसे सरल मार्ग यही है क्योंकि हम जिस प्रकार का चिंतन करते रहते हैं हमारा जीवन उसी प्रकार बनता चला जाता है और हमें वही प्राप्त भी होता है , इसलिए सदैव मनुष्य को सकारात्मक चिंतन तो करना ही चाहिए साथ ही जीवन के सुखद पलों का स्मरण एवं चिंतन अपने मस्तिष्क में करते रहना चाहिए | ऐसा नहीं है कि किसी के जीवन में कभी कोई सुखद पल आया ही ना हो उन्हीं सुखद पलों का स्मरण करके अपने दुख के प्रभाव को कम किया जा सकता है |*
*दुख और सुख जीवन के दो पहलू इनसे कोई भी नहीं बच पाया हे परंतु दुख में भी मुस्कराने वालों ने ही इतिहास रचा है |*