*आदिकाल से ऋषि महर्षियों ने अपने शरीर को तपा करके एक तेज प्राप्त किया था | उस तेज के बल पर उन्होंने अनेकानेक कार्य किये जो कि मानव कल्याण के लिए उपयोगी सिद्ध हुए | सदैव से ब्राम्हण तेजस्वी माना जाता रहा है | ब्राम्हण वही तेजस्वी होता था जो शास्त्रों में बताए गए नियमानुसार नित्य त्रिकाल संध्या का अनुयायी होता था | ब्राह्मणत्व का उदय त्रिकाल संध्या के माध्यम से ही संभव है | हमारे पुराणों में गायत्री मंत्र की महिमा अपरंपार है | त्रिकाल संध्या में इसी मंत्र का जप किया जाता है | प्रातः कालीन संध्या में हंसवाहिनी ब्रह्मारूपा बालस्वरूप गायत्री का ध्यान , तो मध्यान्ह संध्या में गरुड़वाहिनी विष्णुरूपा युवास्वरूप गायत्री का ध्यान , वही संध्याकालीन संध्या में वृषभवाहिनी शिवारूपा वृद्ध गायत्री का ध्यान एवं जप का विधान बताया गया है | यह ब्राह्मणों के लिए अनिवार्य कर्म था | इस पर प्रकाश डालते हुए आचार्य चाणक्य लिखते हैं ----"वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ! तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणियं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् !! अर्थात्-- ज्ञानी एक वृक्ष के समान है और संध्या अर्थात् आराधाना उस ब्राह्मणरूपी वृक्ष की जड़ है, वेद उस वृक्ष की शाखाएं हैं धर्म-कर्म उसके पत्ते हैं, इसलिए उसे यत्नपूर्वक जड़ की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि जड़ के नष्ट होने पर न शाखाएं रहेंगी और न पत्ते | इसी त्रिकाल संध्या के बल पर ब्राह्मण तेजस्वी , ओजस्वी एवं कान्तिवान बनकर समाज के कल्याण के लिए अपने तपबल का उपयोग करके विद्वान कहलाता था |* *आज के युग में ब्राह्मण भी आधुनिकता की अंधी दौड़ में स्वयं को सम्मिलित करके अपने कर्म को भूलता चला जा रहा है | आज त्रिकाल संध्या करने वाले ब्राह्मणों की संख्या न्यून से न्यूनतम होती जा रही है | आज हम पुस्तकों को पढ़कर
ज्ञान तो अर्जित कर ले रहे हैं , विद्वान बन जा रहे हैं , विद्वता की पराकाष्ठा को भी पार करता हुआ मनुष्य दिखाई पड़ रहा है ! परंतु उसके अंदर जो तेज होना चाहिए उसके दर्शन बहुत कम होने लगे हैं | आज के युग में बहुत कम ऐसे लोग मिलते हैं जो कि त्रिकाल संध्या के अनुयायी होंगे ! मुझे "आचार्य अर्जुन तिवारी" को विद्वतसमाज क्षमा करेगा परंतु यह कटु सत्य है | आज कोई भी सनातनी यदि तेजहीन हो रहा है तो उसका मुख्य कारण है अपने कर्मों से विमुख होना | यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कि लोग अपना गाँव -
देश छोड़कर विदेश में जाकर रहने लगते हैं ! परंतु जीवन भर उनको वह सम्मान नहीं मिल पाता वे "अप्रवासी" ही कहे जाते हैं | उसी प्रकार हम चाहे जितना विद्याध्ययन , वेदाध्ययन कर लें परंतु यदि संध्या विहीन हैं तो हमें कभी वह तेज , वह फल नहीं मिलेगा जो कि प्राप्त होना चाहिए | जैसा कि आचार्य चाणक्य जी ने कहा है कि जड़ को सुरक्षित रखेंगे तो नई शाखायें , पत्ते पुन: आ जायेंगे | तो यह आवश्यक है कि हम भी अपनी जड़ (त्रिकालसंध्या) को मजबूत करते हुए बचाये रखें |* *संध्याविहीन होकर किया गया ज्ञानार्जन ठीक वैसा ही है जैसे कि ठंड में पुवाल की आग का सहारा लेना | पुवाल जलता तो बहुत तेज है परंतु शान्त भी तुरंत हो जाता है | इसीलिए अपने कर्म को , अपने
धर्म को पहचानना आवश्यक है |*