*इस संसार में मानवयोनि पाकर आज मनुष्य इस जीवन को अपने - अपने ढंग से जीना चाह रहा है और जी भी रहा है | जब परिवार में बालक का जन्म होता है तो बड़े उत्साह के साथ तरह - तरह के आयोजन होते हैं | छठवें दिन छठी फिर आने वाले दिनों अनेकानेक उत्सव बालक के एक वर्ष , दो वर्ष आदि होने पर उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं | यहाँ मनुष्य यह भूल जाना है कि इस संसार में जीव एक निश्चित आयु लेकर आता है ! और दिनों दिन उसकी आयु कम होती जा रही है | तरह - तरह के भोगविलासों में लिप्त मनुष्य इस संसार में आने का प्रयोजन भूल जाता है | सद्गुरुओं द्वारा सद्मार्ग बताये जाने पर वह कल कर लेने का वादा करता रहता है | जबकि हमारे शास्त्र कहते हैं कि... यह मनुष्य जीवन केवल अपने सुख भोगने के लिए नहीं है अपितु अपने जीवन निर्वाह के साथ साथ इसका कुछ अंश परमार्थ सेवा के लिए भी जरूरी है | गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में कहते हैं---- "एहि तनु कर फल विषय न भाई !" अर्थात इस मनुष्य देह का उद्देश्य केवल विषय भोग नहीं है, संसार का भौतिक सुख लेना नहीं है बल्कि दूसरों की सेवा करना है | श्रीमदभागवत में कहा गया है कि---- "दुर्लभो मानुषो देहो देहिनाम् क्षणभंगुर:" ये मानव देह मिलना बड़ा दुर्लभ है और अगर मिल भी जाय तो यह क्षणभंगुर है , इसलिए इसका विनियोग सत्कार्यों में करना चाहिए | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने अच्छे कर्मों से सम्पूर्ण प्राणियों की सेवा करनी चाहिए |* *आज इस सत्य को स्वीकार करना तो दूर कोई सुनना भी नहीं चाहता | लोग कहते हैं -- जो करना है कर लो "जिंदगी न मिलेगी दुबारा" | यह सत्य भी है कि दुबारा मानव जीवन ही मिल जाय यह आवश्यक नहीं है | मानवजीवन पाकर भी यदि मन में वैराग्य न हुआ तो सब व्यर्थ | वैराग्य का अर्थ यह नहीं कि आप परिवार / संसार से विरक्त हो जायं ! जी नहीं ! मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं----अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती ! सब तजि भजनु करौं दिन राती !! अर्थात :- ‘हे प्रभु ! तू मुझ पर ऐसी कृपा करना कि सब कुछ छोड़कर मैं दिन-रात तेरा ही भजन करूँ | लोग कहते हैं कि तुलसीदास जी सब छोड॒ने को कह रहे हैं जो कि सम्भव नहीं है | जबकि बाबा जी के ‘सब’ का आशय सभी प्रकार के दोषों से है | महाभारत में तेरह दोषों यथा – क्रोध, काम, शोक, मोह, विधित्सा, परासुता, मद, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, निंदा, दोषदृष्टि व कंजूसी की उत्पत्ति, वृद्धि व निवृत्ति विषयक विस्तृत व्याख्या मिलती है |यहाँ तुलसीदासजी के वचनों में आये हुए ‘सब’ अर्थात् हम शरीरों में जो अहम् करते हैं उसे छोड़कर, शरीर को ‘मैं’ मानना छोड़कर ‘जो कुछ कर्म करूँ वह सब तेरी बन्दगी हो जाय’ इस प्रकार का भावार्थ यहाँ लेना है | शरीर को ‘मैं’ मानने से ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, उद्वेग, भय, चिन्ता, ईर्ष्यादि दोष उत्पन्न होते हैं और हमारे चित्त में इन दोषों के रहते हम चाहे कितना भी भजन क्यों न करें, आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूना मुश्किल है और शरीर को ‘मैं’ मानने का दोष निकल जाने पर आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छूना हमारे लिये आसान है जिससे नित्य नवीन रस भी सहज में प्रगट होता है |* *यदि इस क्षणभंगुर जीवन को सार्थक करना है तो अपने अन्दर आसन जमा चुके "मैं" को मारना ही होगा | बिना "मैं" का त्याग किये मनुष्य भगवत्प्राप्ति कर ही नहीं सकता | जीवन मुट्ठी की रेत की तरह फिसल रहा है अत: सचेत होने की आवश्यकता है |*