*सनातन साहित्यों में , शास्त्रों में यही बताया जाता है कि आत्मा अजर , अमर , अविनाशी है | अजर अमर होने के बाद भी यह शाश्वत सत्य है कि आत्मा जब भी इस धराधाम पर कोई भी शरीर धारण करती है तो बिना माँ के सहयोग के बिना एक पल भी उसका विकास सम्भव नहीं हो पाता | यदि माँ रूपी महान आत्मा नव शरीर धारण करने वाली आत्मा का पालन - पोषण करने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर न ले जो आत्मा (जीव) का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता है | उसी प्रकार मनुष्य के आध्यात्मिक , भौतिक एवम् बौद्धिक विकास के लिए भी एक सत्ता की आवश्यकता पड़ती है | मनुष्य के आध्यत्मिक , सामाजिक विकास में समर्थ मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वहन जो सत्ता करती है उसका नाम है - "गुरु" | यदि संसार में उत्पत्ति का माध्यम माँ है तो मनुष्य को परिमार्जित करने का कार्य "सद्गुरु" ही कर सकता है , और कर भी रहा है | आत्मा जब संसार में आती है तो माया के अनेक बंधनों में बंध जाती है , इन माया के बंधनों से निकालते हुए आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं सद्गुरु , परंतु शिष्य को कोई भी गुरु तभी कुछ बता सकता है जब कि शिष्य सत्पात्र हो | यह धायान देना भी गुरु का कर्तव्य होता है कि हम
ज्ञान सत्पात्र को दे रहे हैं या कुपात्र को | परंतु गुरुसत्ता इसका ध्यान उसी नहीं देती है जैसे एक माँ का बेटा लायक हो या नालायक वह बराबर प्रेम करती रहती है , उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य से मातृवत् प्रेम ही करता है | अब शिष्य कैसा है और क्या बनना चाहता है यह तो शिष्य ही बता सकता है | कहने का तात्पर्य यह है कि संसार में गुरु का स्थान माँ के बाद दूसरा है | जो इसे नहीं मानते वे अपने जीवन में शायद ही कुछ कर सकें | बिना गुरु का अवलम्ब लिए इस धरती पर मानव कुछ भी नहीं कर सकता | जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया तब एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का अवलम्ब लिया | कहने का तात्पर्य यही है कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या कृपा से आध्यात्मिक , भौतिक सामाजिक या किसी भी प्रकार का विकास असम्भव ही है |* *आज भौतिकता की आँधी में संसार के सारे रिश्ते - नाते गौण ही होते जा रहे हैं | संतान जैसे ही अपने पैर पर खड़ी होती विशेषकर विवाहोपरान्त वह अपने जन्मदाता को भूलकर अपना संसार अलग बसा लेता है | बात यहाँ तक ही सीमित हो तब भी कोई बात नहीं परंतु आजकल तो उसी माता - पिता का विरोध भा़ी किया जा रहा है और उन्हीं बनायी सम्पत्ति एवं कार्यक्षेत्र का उपभोग भी कर रहे हैं | आज प्रत्येक मनुष्य के आँखों प्रबल स्वार्थ का मोटा पर्दा लग गया है | इस स्वार्थ से आज गुरु - शिष्य का सम्बन्ध भी नहीं बचता दीख रहा है | जब तक शिष्य का स्वार्थ है तब तक तो वह गुरु की बहुत सेवा करता है परंतु जैसे ही वह कुछ योग्य होता है वह गुरु से अलग अपना संसार बनाना चाहता है परंतु कार्यक्षेत्र गुरु का ही लेना चाहता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसी संतानों एवं शिष्यों से यही कहना चाहूँगा कि प्रत्येक माता - पिता एवं गुरु का उद्देश्य यही होता है कि उसकी संतान/शिष्य उत्तरोत्तर उन्नति करता हुआ
समाज में स्थापित हो | परंतु जो लोग अपने माता - पिता एवं गुरु की बुराई करके आगे बढना चाहते हैं वे तत्काल तो आगे बढ सकते हैं परंतु उनका भविष्य बहुत अधिक देदीप्यमान नहीं हो सकता है क्योंकि उन्हें स्वयं अपराधबोध का आभास कभी न कभी अवश्य होता है | तब उनके मुखमंडल की आभा कुछ पल के ही सह परंतु कांतिहीन हो ही जाती है |* *बड़े भाग्य से हम किसी की संतान व शिष्य बनते हैं प्रयास यही करना चाहिए कि यह सम्बन्ध यदि आजीवन प्रेममय न रह पाये तो खटास भी न आने पाये | यही जीवन की सफलता की कुंजी है |*