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गजल

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वो जादू है मुहब्बत में जवां जो मन को करता है ना जाने फिर भी क्यों इंसान प्रीति धन को करता है बोल वो प्यार के तेरे समां जाते हैं नस नस में लहू सा बन के फिर ये प्रेम शीतल तन को करता है मुहब्बत की आस पाले नाचते मोर को देखो मोरनी से मिलन को प्यार वो इस घन को करता है मुहब्बत के वार से ही उसने दुनिया हरा

*गहराई की छिपी वर्जनाओं के स्वर*( "स्वयं पर स्वयं" से ) मैं भटकता रहामैं भटकता रहा; समय, यूं ही निकलता रहा; मैं भटकता रहा। उथला जीवन जीता रहा;तंग हाथ किये, जीवन जीता रहा। न किसी को, दिल खोल कर अपना सका;न किसी का, खुला दिल स्वीकार कर सका;न आपस की, दूरी मिटा सका;न सब कु

बह्र - २१२२ २१२२ २१२२ २,कफिया- आते, रदीफ-क्यों...."गजल"चाह गर मन की न होती तो बताते क्योंआह गर निकली न होती तो सुनाते क्योंआप भी तकने लगे अनजान बीमारीबे-वजह की यह जलन तपते तपाते क्यों।।खुद अभी हम तक न पाए भाप का उठनाकब जला देगी हवा किससे छुपाते क्यों।।शोर इतना तेज था विधन

विलायत गया न वकालत पढ़ी है।चेहरों पे लिक्खी इबारत पढ़ी है।पढ़ी हैं किताबें, मगर बेबसी में लगाकर के दिल, बस मुहब्बत पढ़ी है।न कर जुल्म इतने के सब्र टूट जाये मेरे भी दिल ने बग़ावत पढ़ी है ।मुनाफे से कम कुछ न मंजूर इसको दुनिया उसूल-ए-तिज़ारत पढ़ी है | मुस्कुराये लब, तो ख

न भागना ,न कोई बहाना काम आयेगा । मुश्किलों से सिर्फ टकराना काम आयेगा । लोग जहनी हैं, बहुत इल्म है जमाने में । होगा जो सही इस्तेमाल ,माना जायेगा । फुर्सत किसी को वक्त की मोहलत होगी । दिल को करार आयेगा तो, माना जायेगा ।

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दो पल सुकून के नहीं ,गर रख लो जायदाद ,पलकें झपक न पाओगे ,गर रख लो जायदाद ,चुभती हैं अपने हाथों पर अपनी ही रोटियांखाना भी खा न पाओगे ,गर रख लो जायदाद . ................................................................. क्या करती बड़े घर क

काफ़िया- री, रदीफ़- अगी, मात्रा- भार-22 मुझको लगती भली मेरी दीवानगी चाहे दुनिया कहे इसको आवारगी छाए मौसम सुहाने मेरे बाग में कब मिली पाक ऋतुओं री परवानगी॥ धुंध उठने लगी है रुख हवाएँ चली आँधियाँ भी चलेंगी ये खरी वानगी॥ लोग रुकते कहाँ हैं अब किसी के लिए हर निगाहों में दिखती उभरी हैवानगी॥

हँसा सकी न दर्द को मेरे, इनॉसुओं को रुला के न जा बिना बुलाए जख्म मिले हैं, निशानियों को भुला के न जा रखे राहें वफा की मंजिल, ना चल सकेंगे कदम दगा के रुको जरा इस खाली दिल में, नदानियों को झुला के न जा॥ सहमे शिकवे तेरे आँचल, परदे लटके बिना रजा के हटा सकी न जुल्फ के साये, विरानियों को बुला क

कवि: शिवदत्त श्रोत्रियपरिस्थितियाँ नही है मेरी माकूल इस समयतू ही बता कैसे करूँ तुझे कबूल इस समय ||इशारो मे बोलकर कुछ गुनहगार बन गये हैलब्जो से कुछ भी बोलना फ़िज़ूल इस समय ||परिवार मे भी जिसकी बनती थी नही कभीक्यो खुद को समझता है मक़बूल इस समय ||इंसान से इंसान की इंसानियत है लापतादिखता नही खुदा मुझे

काफिया- अर, रदीफ़- जाते , वज्न- 1222 1222 1222 1222 गीतिका/गजल बहुत अब हो गई बातें, बहुत अरमान शुभ रातें विवसता ले कदम चलते, खुशी बरबाद कर जाते यही कहता रहा दुश्मन, कि दामन पाक है उसका मगर उसके महकमे ही, दुसह अपराध कर जाते॥ कहूँ कितना दिखाऊँ क्या, छुपी नापाक

बहर--1222 1222 1222 1222, क़ाफ़िया – आ, रदीफ़--हुआ होगा [गज़ल] कहीं बातें, हुई होंगी, कहीं वादा, हुआ होगा निगाहों ही निगाहों में,कोई अपना हुआ होगा मुहब्बत यूं नहीं चलती, बिना रफ़तार की आँधी कहीं तो बह रही दरिया, किनारा भी हुआ होगा॥ मुकामे दौर को देखे, उमर नादान ब

तनहा कटगया जिंदगी का सफ़र कई साल काचंद अल्फाज कह भी डालिए अजी मेरे हाल परमौसम हैबादलों की बरसात हो ही जाएगीहंस पड़ी धूप तभी इस ख्याल पर फिरकहाँ मिलेंगे मरने के बाद हमसोचतेही रहे सब इस सवाल पर शायद इनर

शहर में चेहरे तो लाखोंहैं, इंसां मगर दिखता नहीं शीशे का मकां न है, पत्थरहाथ में कोई रखता नहीं  आदमी आदमी का में जबसे भेदहोने लगा है  हाथ मिलता है दिल मगर मिलतानहीं  दोस्त कौन है और कौन हैदुश्मन जानते सब हैं कोई मगर कहतानहीं  जुनूने इश्क के रंग भी अजीबहैं दर्द तो देता है दवा मगरदेता नहीं  खरीदने बिकन

साथ गर आपका जो मिल जाए सफ़र जिन्दगी का आसां से कटजाए मन का बंद दरवाजा खुलने कोहैखुशबुओं की राह से जो गुजराजाए हल हो जाए खुदबखुद एक दिनमसलों को सवालों की तरह रखाजाएअंधेरों में ढूंढ़ते रहतेहैं जाने क्या उजालों का हाल क्या कहा जाएलोग कहते हैं आंसू पानी है ‘राजीव’ दिल का मलाल क्याकहा जाए 

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हर किसी को चाहिये सुसंस्कृत नारी जो बस उसके के ही गीत गायेगी खुद के लक्षण हों चाहे शक्ति कपूर जैसे पर बीबी सपनों में, सीता जैसी आयेगीरूप लावण्य से भरी होनी चाहिये जवानी भी पूरी खरी होनी चाहिए सामने बोलना मंजूर ना होगा हरदम नौकरी भी करती हो तो छा जायेगीघर के काम में दक्षता होना तो लाजिमी है जो उसे दब

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