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गजल

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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँद

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,

याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन आप रुकिेए फ़ाइलों में देख आता हूँ मैं हैं ये चिंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रमित इनको दारु की ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं मार खाने की तबियत हो तो भट्टाच

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती—उतरती है यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में मीत अब यह मन नहीं है एक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर । संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर । अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर । कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका, वे हँस के

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धु

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव मे

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है अब गुल खिला र

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है । सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है । इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पाँव घुटनों

पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी लपट आने लगी है अब हवाओं में ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह पेड़ों से

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह यह ह

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए । खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को सब अपनी अपनी हथ

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है थमी ह

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं हवा में सनसनी घोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं मज़ारों

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया हम पर किसी ख़ुदा की इना

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग क

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