पर्यावरण दिवस पर एक कविता
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स्वर्ग सी पावन धरा थी, शुद्ध था अन्तःकरण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
दूध की नदियाँ बही थीं, जल सुधा का पान था l
पक्षियों की नित्य कलरव, मधुर पिक का गान था ll
मंद बहते पवन के नित श्वास तन में प्राण भरते l
सलिल बहता पारदर्शी स्वच्छ तन-मन जीव करते ll
मनहरण था मन हमारा, और यह वातावरण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
नष्ट करके हरीतिमा, और वन्य प्राणी मारकर l
सिंह बनता है खुले में, सिंह को ही बांधकर ll
श्वास लेने को तरसता, प्रकृति मानव से कहे l
क्या किया तूने नराधम, पाप दानव से कहे ll
अवनि वृक्षों को कुचलता, मानवों का अतिक्रमण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
सूखती नदियाँ जलाशय, पिघलकर बहता हिमालय l
कहीं पर बंजर धरा है, कहीं पर बहता है आलय ll
आकाश धुंआ हो गया है, मानवों के कर्म से l
ओजोन की परतें खुली हैं, दानवों के धर्म से ll
कौन सी औषधि बिखेरें, जो हरे यह संक्रमण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
वन लगाओ पौध के नन्हे करों को पाल लो l
शुष्क शोषित इस धरा को, पुष्प पोषित प्राण दो ll
एक कर हों लक्ष कर, रोपित करें वन सम्पदा l
पर्वतों से इस धरा तक, दूर कर दो आपदा ll
शब्द वृक्षों के भरो, सुगठित करो यह व्याकरण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
हिम-हिमालय से निकलकर वारि धारा बह रही l
प्रस्तरों में सिमटकर कुछ शब्द कल-कल कह रही ll
नव-विहंगों का मधुर रस गान मन को बांधता l
पुष्प कलियाँ गंधरस, किसलय खिला कुछ चाहता ll
बाल रवि हँसता रहे, धरती का हो यह आवरण l
तितलियों के रंग जैसा, स्वच्छ था पर्यावरण ll
-अजय श्रीवास्तव 'विकल'